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मैसूर राज्य का उत्थान एवं पतन

मैसूर राज्य

मैसूर राज्य की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि –

भारत के पूर्वी और दक्षिणी घाट, दक्षिण के सुदूर भाग में जहाँ मिलते हैं, उस क्षेत्र में मैसूर का छोटा सा राज्य था। किसी जमाने में यह क्षेत्र विजयनगर साम्राज्य का अंग था। इस महान साम्राज्य के पतन के बाद रामराय के भाई तिरुमाल ने वेनुगोंडा को राजधानी बनाया और 1570 ई. में उसने अरविंदु वंश की नींव रखी। उसके बाद रंग द्वितीय और उसके बाद वेंकट द्वितीय ने शासन किया। वेंकट द्वितीय के शासन काल में राज्य का विघटन शुरू हो गया और मैसूर का राज्य पूरी तरह से स्वतंत्र हो गया। इस राज्य पर वादयार (वाडियार) वंश के हिन्दू राजाओं ने लंबे समय तक शासन किया, यद्यपि 1704 ई. में उन्हें औरंगजेब की अधीनता स्वीकार करनी पङी। 1719 ई. की संधि के अनुसार मराठों को मैसूर से चौथ वसूल करने का अधिकार मिल गया। उसके बाद मैसूर से कर वसूल करने के संबंध में निजाम और मराठों में झगङे आरंभ हो गये।

मैसूर राज्य का उत्थान एवं पतन

18 वीं शताब्दी के मध्य में मैसूर पर चिंकाकृष्णराज का शासन था। परंतु वह नाममात्र का शासक था। शासन की समस्त शक्ति देवराज तथा नंदराज नामक दो भाइयों के हाथ में थी। बाद में, नंदराज राज्य का सर्वेसर्वा बन गया। इन दोनों मंत्रियों के समय में ही मैसूर में एक अन्य सैनिक अधिकारी – हैदरअली का प्रभाव बढता गया और अन्ततः 1761 ई. में उसने सेना की सहायता से शासन स्वयं संभाल लिया। इस प्रकार, हैदरअली मैसूर का सुल्तान बन बैठा। मैसूर राज्य ने 18 वीं शता के अंत तक भारत के इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। अंग्रेजों से डटकर लोहा लेने वालों में मैसूर राज्य के हैदरअली और टीपू सुल्तान के नाम प्रमुख हैं।

हैदरअली का उत्कर्ष

हैदरअली का जन्म 1722 ई. में मैसूर राज्य में बुदिकोट नामक स्थान पर हुआ। उसका पिता फतहमुहम्मद मैसूर राज्य की सेना में एक सैनिक अधिकारी था। जिस समय हैदरअली 6 वर्ष का था, उसका पिता एक लङाई में मारा गया। बङा होने पर हैदरअली को भी मैसूर की सेना में नौकरी मिल गयी। हैदरअली बिल्कुल निरक्षर था, किन्तु असाधारण प्रतिभा का व्यक्ति था। उसकी युद्ध-शैली एवं कुशलता से प्रभावित होकर नंदराज ने उसे डिण्डुगल किले का फौजदार बना दिया। मैसूर का दीवान खांडेराव अत्यंत ही षङयंत्रकारी व्यक्ति था। उसने राजमाता को सलाह दी कि वह हैदरअली की सहायता से नंदराज को पराजित कर सत्ता अपने हाथ में ले ले। राजमाता ने इस सलाह को स्वीकार कर लिया। हैदरअली ने नंदराज को परास्त कर दिया और सत्ता राजमाता को सौंपने के बजाय अपने हाथ में ले ली। जब खांडेराव ने इसका विरोध किया तो हैदरअली ने उसे भी कैद कर लिया।

डिण्डुगल का फौजदार बनने के बाद हैदरअली ने अपनी शक्ति बढाना आरंभ कर दिया था। हैदराबाद के निजाम आसफखाँ की मृत्यु के बाद नासिरजंग हैदराबाद का निजाम बना था। 1750 में नासिरजंग की हत्या कर दी गयी।उस समय हैदरअली अपने सैनिकों सहित हैदराबाद में था।

नासिरजंग की हत्या से राज्य में अव्यवस्था फैल गयी। नासिरजंग के विरोधी उसका लगभग 3/4 कोष लेकर भागने लगे। हैदरअली ने नासिरजंग के इन विरोधियों को परास्त कर सारा कोष उनसे छीन लिया। इस प्रकार शीघ्र ही उसके पास करोङों रुपये की धनराशि हो गयी। 1776 में जब मैसूर के राजा की मृत्यु हो गयी, तब हैदरअली ने स्वयं को मैसूर का सुल्तान घोषित कर दिया। इससे पहले हैदर ने शासन के समस्त कार्य एवं विजय मैसूर के राजा के नाम पर की थी और उसने कभी भी अपने आपको राजा नहीं कहा, यद्यपि व्यावहारिक दृष्टि से वही शासक था।

हैदरअली के इस उत्कर्ष में उस समय की परिस्थितियों ने उसे भारी सहायता पहुँचाई थी। आंग्ल-फ्रांसीसी संघर्ष से कर्नाटक की समृद्धि का नाश हो चुका था। पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की कमर टूट चुकी थी और हैदराबाद का निजाम निर्बल और लाचार बना हुआ था। अतः हैदरअली की बढती हुई शक्ति पर रोक लगाने वाला कोई नहीं था। उसका उत्कर्ष केवल उसकी सैनिक और राजनीतिक योग्यता तथा व्यक्तिगत परिश्रम पर आधारित था। दक्षिण में फैली अव्यवस्था का लाभ उठाकर हैदरअली ने राज्य की सीमाओं का भी विस्तार कर लिया था।

हैदरअली और मराठे

1762 से 1778 तक हैदरअली इस बात के लिए असफल प्रयत्न करता रहा कि मराठों के विरुद्ध अपनी स्थिति दृढ करने में अंग्रेजों की सहायता प्राप्त करे। किन्तु हैदर की बढती हुई शक्ति से न केवल अंग्रेज, बल्कि निजाम और मराठे भी चौकन्ने हो उठे थे। 1764 में मराठों ने मैसूर पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में हैदर पराजित हुआ और मार्च, 1765 में उसे मराठों से संधि करनी पङी। तदनुसार गुण्टी व सावनूर के जिले व 32 लाख रुपये मराठों को देने पङे इसके एक वर्ष बाद 1766 ई. में अंग्रेज, मराठा व निजाम ने हैदर के विरुद्ध एक शक्तिशाली संघ बना लिया।

किन्तु इस त्रिगुट में पारस्परिक विश्वास नहीं था। मराठों को अंग्रेजों की बढती हुई शक्ति से भय था। निजाम भी अंग्रेजों से उत्तरी सरकार के प्रदेश वापिस लेना चाहता था। हैदर ने अपनी विलक्षण बुद्धि से इस त्रिगुट को भंग कर दिया। उसने मराठों को 35 लाख रुपये देकर वापिस लौटा दिया। इसमें से 18 लाख रुपये नकद दिये गये और शेष 17 लाख रुपयों के बदले कोलार का जिला दिया गया। हैदर ने निजाम के पास संदेश भेजा कि वह उसे उत्तरी सरकार के प्रदेश दिलवाने में सहायता देने को तैयार है। जब निजाम ने देखा कि मराठा सेना लौट रही है, तब उत्तरी सरकार प्राप्त करने की आशा में अंग्रेजों के विरुद्ध उसने 1767 में हैदर से संधि कर ली। इस प्रकार हैदर ने अपनी कूटनीति द्वारा त्रिगुट को भंग कर दिया। उसके बाद हैदर ने अंग्रेजों पर आक्रमण कर उन्हें पराजित कर दिया।

मार्च, 1769 में अंग्रेजों को हैदर से संधि करनी पङी, जिसमें उन्होंने हैदर को वचन दिया कि यदि कोई शक्ति हैदर पर आक्रमण करेगी तो वे उसे सहायता देंगे। अंग्रेजों से सहायता का आश्वासन प्राप्त कर हैदर ने मराठों को खिराज देना बंद कर दिया तथा मराठों को दिये गये अपने प्रदेशों पर आक्रमण कर दिया । इस पर मराठों ने 1770-72 में मैसूर पर आक्रमण कर दिया। हैदर ने अंग्रेजों से सहायता माँगी, किन्तु अंग्रेजों ने उसकी कोई सहायता नहीं की। फलस्वरूप हैदर को पराजित होकर मराठों से अपमानजनक संधि करनी पङी।

अगस्त, 1773 में पेशवा नारायणराव की मृत्यु के बाद मराठा संघ में गृहकलह उत्पन्न हो गया। इस अव्यवस्था का लाभ उठाकर हैदर ने उन सभी प्रदेशों पर अधिकार कर लिया, जो उसे मराठों को देने पङे थे। इसी समय अंग्रेजों और मराठों के बीच युद्ध आरंभ हो गया। मराठे, अंग्रेजों के विरुद्ध हैदर की सहायता चाहते थे। अतः पेशवा के मंत्री नाना फङनवीस ने 1780 में हैदर से समझौता किया, जिसमें हैदर ने वचन दिया कि अंग्रेजों को भारत से निकालने में वह मराठों की सहायता करेगा। इसके बदले में नाना फङनवीस ने हैदर से वसूल की जाने वाली वार्षिक खिराज की राशि में भारी कमी कर दी। उसके बाद हैदर ने अंग्रेजों के विरुद्ध मराठों को सहायता दी थी, किन्तु युद्ध के दौरान ही हैदर की मृत्यु हो गयी थी।

हैदरअली व अंग्रेज

अंग्रेज इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि दक्षिण भारत की यदि तीनों शक्तियाँ एक हो जाती हैं तो दक्षिण में अंग्रेजों के अस्तित्व को खतरी उत्पन्न हो जायेगा। इसलिए वे इन तीनों शक्तियों को अलग-अलग रखना चाहते थे। निजाम, मैसूर व मराठे अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु परस्पर संघर्ष में लीन रहते थे। अतः दक्षिण में अंग्रेजों की कूटनीति अधिक प्रभावशाली सिद्ध हुई। किन्तु मैसूर की स्थिति ऐसी थी कि दक्षिण की अन्य शक्तियाँ उसके अस्तित्व को बनाये रखना चाहती थी। मराठों को खिराज, निजाम को मराठों के आक्रमण के विरुद्ध एक मित्र तथा अंग्रेजों को दक्षिण में शक्ति-संतुलन बनाये रखने के लिए मैसूर की आवश्यकता थी। साथ ही ये शक्तियाँ मैसूर को इतना शक्तिशाली भी देखना नहीं चाहती थी कि वह उनके लिए खतरी बन जाय।

प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध

हैदरअली व फ्रांसीसियों के बीच घनिष्ठ मैत्री थी, किन्तु यह मैत्री अंग्रेजों के विरुद्ध नहीं थी। अंग्रेजों ने इस मैत्री को कर्नाटक के लिए खतरा बताया था।लेकिन हैदरअली की योग्यता, कूटनीतिज्ञता और सैनिक कुशलता अंग्रेजों की दृष्टि में उसका सबसे बङा दोष था। अंग्रेज स्वयं राजसत्ता प्राप्त करना चाहते थे, अतः उनका हैदर से संघर्ष होना अवश्यम्भावी था। अंग्रेज व हैदर के बीच हुए प्रथम संघर्ष के मुख्य कारण निम्नलिखित थे-

  • जब यूरोप में सप्तवर्षीय युद्ध आरंभ हुआ तो भारत में भी अंग्रेजों व फ्रांसीसियों में संघर्ष आरंभ हो गया। फ्रांसीसियों की प्रार्थना पर हैदर ने उन्हें 4,000 घोङे दिये। किन्तु इसी समय हैदर के विरोधियों ने मराठों से सहायता लेकर अचानक उस पर आक्रमण कर दिया। विवश होकर हैदर को बैंगलोर की ओर भागना पङा (12 अगस्त, 1760ई.)। मई, 1761 तक हैदर अपनी स्थिति को दृढ कर सका, तब तक फ्रांसीसियों की शक्ति क्षीण हो चुकी थी। हैदर द्वारा फ्रांसीसियों को सहायता देना अंग्रेजों को क्रुद्ध करने का पर्याप्त कारण था।
  • कर्नाटक का नवाब मोहम्मद अली अंग्रेजों का मित्र था। उसका बङा भाई महफूजखाँ, मोहम्मदअली का कट्टर शत्रु ता। मैसूर-कर्नाटक के बीच सीमा विवाद चल रहा था। अतः हैदर ने महफूजखाँ का पक्ष लिया और उसे अपने यहाँ शरण दी। इतना ही नहीं, हैदर ने चांदासाहब के पुत्र राजा साहब की सहायता की। इससे अंग्रेजों ने नाराज होकर वैलोर में सेना तैनात कर दी। अंग्रेजों की इस कार्यवाही ने हैदर को उत्तेजित कर दिया।
  • 1766 ई. के आरंभ में हैदर ने मालाबार प्रदेश पर आक्रमण कर दिया। मालाबार के शासक अंग्रेजों के शासकों की सहायता देने के संबंध में कोई निर्णय नहीं ले सके, किन्तु अँग्रेज, हैदर के प्रति सशंकित हो गये।
  • हैदर को अंग्रेजों की शक्ति में असीम विश्वास था। हैदर ने परस्पर क्षेत्रीय महत्वाकांक्षा के लिए अंग्रेजों से मैत्री संधि का प्रस्ताव किया, किन्तु अंग्रेजों को हैदर के प्रति विश्वास नहीं था, अतः उन्होंने संधि का प्रस्ताव ठुकरा दिया।
  • इसी समय यह अफवाह फैल गयी कि हैदर निजाम से साँठ-गाँठ कर कर्नाटक पर आक्रमण करने की सोच रहा है। अंग्रेजों ने 12 नवम्बर, 1766 को निजाम से संधि कर ली। पेशवा माधवराव, हैदर के विरुद्ध पहले ही निजाम से संधि कर चुका था तथा मराठों ने मैसूर में लूटमार आरंभ कर दी थी।
  • इन विकट परिस्थितियों में हैदर हिम्मत हारने वाला नहीं था। वह जानता था कि इन तीनों शक्तियों की मैत्री-संधि पारस्परिक स्वार्थों से परिपूर्ण है और इसे आसानी से भंग किया जा सकता है। हैदर ने मराठों को 35 लाख रुपये देकर लौटा दिया तथा निजाम को उत्तरी सरकार दिलवाने का आश्वासन देकर अपने पक्ष में कर लिया। इस प्रकार हैदर की कूटनीति से अंग्रेज अकेले पङ गये।

मई, 1767 में हैदर व निजाम की संयुक्त सेना ने कर्नाटक पर आक्रमण कर दिया तथा कर्नाटक को रौंद डाला। अंग्रेजों की संचार-सेवा अत्यंत ही अकुशल थी, अतः उन्हें शत्रुओं की गतिविधियों की तब तक कोई सूचना नहीं मिली, जब तक कि हैदर व निजाम ने कावेरीपट्टम को घेर नहीं लिया।

इस समय मद्रास के सर्वोच्च सैनिक अधिकारी कर्नल स्मिथ के पास बहुत ही कम सेना थी, अतः वह त्रिनोमली की ओर बढा, ताकि त्रिचनापल्ली से उसे कर्नल वुड की सहायता प्राप्त हो सके। सितंबर, 1767 में कर्नल स्मिथ व कर्नल वुड की सेनाओं तथा हैदर व निजाम की संयुक्त सेना के बीच भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में हैदर व निजाम की संयुक्त सेना पराजित हुई।

अतः निजाम ने हैदर का साथ छोङ दिया तथा 22 मार्च, 1768 को अंग्रेजों से संधि कर ली। निजाम से संधि करने के बाद अंग्रेजों ने मालाबार तट पर हैदर के प्रदेशों पर अधिकार करना आरंभ कर दिया। किन्तु हैदर के पुत्र टीपू ने मंगलौर पर आक्रमण कर 11 मई, 1768 को अंग्रेजों को वहाँ से खदेङ दिया। कर्नल स्मिथ व कर्नल वुड ने हैदर के कई प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। हैदर ने स्मिथ के पास संधि का प्रस्ताव भेजा, किन्तु स्मिथ ने संधि की ऐसी कठोर शर्तें लिखकर भेजी कि हैदर उन्हें स्वीकार न कर सका।

अब हैदर अंग्रेजों पर टूट पङा। उसने अपने प्रदेशों को पुनः प्राप्त करना आरंभ कर दिया। अंग्रेजों की निरंतर पराजय देखकर मद्रास सरकार ने कर्नल स्मिथ को वापस बुला लिया तथा सेना की कमान कर्नल वुड को सौंप दी। हैदर ने कर्नल वुड को भी पराजित किया। अतः मद्रास सरकार ने कर्नल वुड को वापस बुलाकर, कर्नल स्मिथ को पुनः भेजा। स्मिथ ने जनवरी, 1769 में अपना कार्यभार ग्रहण किया, किन्तु स्मिथ के आने से पूर्व हैदर ने उन सभी स्थानों पर अधिकार कर लिया, जिन पर पहले अंग्रेज अधिकार कर चुके थे।

हैदर ने स्मिथ को अनेक स्थानों पर पराजित किया। अंत में आश्चर्यजनक सैनिक गतिविधियों से अचानक हैदर मद्रास और स्मिथ की सेना के बीच पहुँच गया। यह ऐसी स्थिति थी, जहाँ से वह अपनी शर्तें आज्ञापूर्वक लिखवा सकता था। मद्रास सरकार विवश थी, अतः हैदर की एक के बाद एक शर्तें स्वीकार करती गई। अंत में 4 अप्रैल, 1769 को मद्रास की संधि हो गयी। संधि की मुख्य शर्तें इस प्रकार थी-

  • दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के जीते हुए प्रदेश लौटा दिये, किन्तु करूर और उसके आस-पास के प्रदेश हैदर के पास रहे।
    हैदर के जहाजों को जिन्हें बंबई सरकार ने पकङ लिया था, उसके बदले में कोलार का भंडार हैदर को दिया गया।
    दोनों पक्षों ने एक दूसरे की सहायता करने का चन दिया।
  • मद्रास सरकार ने बङी अनिच्छा से इस संधि को स्वीकार किया था, क्योंकि वह युद्ध जारी रखने की स्थिति में नहीं थी। संधि की भाषा से स्पष्ट हो रहा था कि मानो अंग्रेजों ने हैदरअली से शांति स्थापित करने की याचना की हो।

द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध

मद्रास की संधि के बाद हैदरअली को आशा थी कि अब इस क्षेत्र में स्थायी शांति रहेगी, किन्तु ऐसा नहीं हुआ। 1769 के बाद हैदरअली और अंग्रेजों के बीच पुनः मतभेद प्रारंभ हो गये तथा 1780 ई. में पुनः युद्ध आरंभ हो गया, जो हैदरअली की मृत्यु तक चलता रहा।

इस युद्ध के कारण निम्नलिखित थे-

  • मद्रास की संधि में दोनों ने एक-दूसरे को सहायता देना का वचन दिया था, किन्तु 1770 में जब मराठों ने मैसूर पर आक्रमण कर दिया, तब अंग्रेजों ने हैदर की कोई सहायता नहीं की। फलस्वरूप हैदर को पराजित होकर मराठों से अपमानजनक संधि करनी पङी। अतः अपनी रक्षात्मक आवश्यकता के लिए हैदर किसी अन्य शक्ति से सहयोग प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगा।
  • अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम में फ्रांस ने इंग्लैण्ड के विरुद्ध युद्ध में भाग लिया। अतः अंग्रेजों ने 19 मार्च, 1779 ई. को माही पर अधिकार कर लिया। माही, मालाबार तट पर हैदर के शासन के अन्तर्गत था, किन्तु इस पर फ्रांसीसियों का अधिकार था। माही के बंदरगाह से हैदर को निरंतर युद्ध सामग्री प्राप्त होती थी, किन्तु अब इसमें बाधा उत्पन्न हो सकती थी। हैदर ने माही की रक्षा के लिए फ्रांसीसियों को मदद दी थी, किन्तु माही पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया।
  • निजाम के भाई बासालातजंग को गंटूर की जागीर प्राप्त थी। बासालातजंग व फ्रांसीसियों के बीच घनिष्ठ संबंध थे, जिसे अंग्रेज नहीं चाहते थे। अतः अंग्रेजों ने बासालातजंग पर दबाव डाला कि वह गंटूर का प्रदेस उन्हें सौंप दे। बासालातजंग ने अंग्रेजों से कहा कि वे अपनी सेना भेजकर गंटूर पर अधिकार कर लें। गंटूर का रास्ता हैदर व निजाम के राज्य से होकर जाता था। अंग्रेजों ने बिना हैदर व निजाम की अनुमति के इसे रास्ते से अपनी सेनाएँ भेज दी, यद्यपि निजाम व हैदर ने इसका तीव्र विरोध किया। इससे न केवल हैदर व अंग्रेजों के बीच कटुता बढी, वरन निजाम भी अंग्रेजों से नाराज हो गया।
  • इसी दौरान अंग्रेजों ने राधोबा से सूरत की संधि (1775 ई.) कर ली, जिससे आंग्ल-मराठा युद्ध आरंभ हो गया। मराठे अंग्रेजों के विरुद्ध हैदर की सहायता प्राप्त करना चाहते थे। हैदर ने 1780 में मराठों से एक समझौता कर लिया। उसके बाद निजाम को भी इस संयुक्त मोर्चे में सम्मिलित होने को कहा गया। निजाम गंटूर के मामले को लेकर अंग्रेजों से क्रुद्ध था। अतः निजाम भी इस संयुक्त मोर्चे में सम्मिलित हो गया।

अँग्रेजों के विरुद्ध यह मोर्चा अत्यंत ही शक्तिशाली दिखाई देने लगा था। किन्तु वारेन हेस्टिंग्ज ने निजाम को गंटूर लौटाकर इस मोर्चे से अलग कर दिया।

युद्ध का आरंभ

28 मई, 1780 को हैदर श्रीरंगपट्टम के बाहर निकला तथा बंगलौर में अपनी सेना एकत्रित करके अंग्रेजों के ठिकानों पर आक्रमण करना आरंभ कर दिया। इसी समय अंग्रेज सेनानायक मुनरो ने अपने सहयोगी सेनानायक बैली तथा फ्लेचर को हैदर के विरुद्ध भेजा। 10 सितंबर, 1780 को अरनी नामक स्थान पर भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में फ्लेचर मारा गया, बैली को घायल अवस्था में बंदी बना लिया गया। अक्टूबर, 1780 में हैदर ने अर्काट को जीत लिया।

हैदर की इन विजयों से अंग्रेजों की प्रतिष्ठा अपने न्यूनतम बिन्दु तक पहुँच गयी। अतः वारेन हेस्टिंग्ज ने सर आयरकूट को आवश्यक सेना देकर भेजा। जून, 1781 में सर आयरकूट ने हैदर को पोर्टनोवो नामक स्थान पर पराजित किया, किन्तु अंग्रेजों को इस सफलता का लाभ नहीं मिला। आयरकूट के पास घोङे नहीं थे तथा रसद का भी अभाव था।

अतः आयरकूट मद्रास लौट गया तथा अपना त्यागपत्र दे दिया। किन्तु उसे समझा-बुझा कर वापस भेज दिया गया। 27 सितंबर, 1781 को उसने शोलिंगर नामक स्थान पर हैदर को बुरी तरह पराजित किया। 2 जून, 1782 को अरनी नामक स्थान पर जो युद्ध हुआ, वह निर्णायक नहीं रहा।

इसी बीच मराठों ने अंग्रेजों के साथ 17 मई, 1782 को सालबाई की संधि कर ली। अतः जब अंग्रेज हैदर के विरुद्ध अधिक प्रभावशाली ढंग से लङ सकते थे। युद्ध अभी चालू ही था कि युद्ध के दौरान 7 दिसंबर, 1782 को हैदर की मृत्यु हो गयी। उसके बाद हैदर के पुत्र एवं उत्तराधिकारी टीपू ने ब्रिगेडियर मैथ्यूज को उसकी समस्त सेना सहित बंदी बना लिया।

1783 में यूरोप में अंग्रेजों ने फ्रांसीसियों से संधि कर ली। फलस्वरूप अब फ्रांसीसियों ने टीपू को सहायता देना बंद कर दिया। अतः टीपू ने अंग्रेजों से मैत्री करना ही उचित समझा। इधर कंपनी के संचालक मंडल ने भी टीपू से संधि करने का निश्चित आदेश दिया। अतः मार्च, 1784 में दोनों के बीच मंगलौर की संधि हो गयी। संधि के अनुसार टीपू ने कर्नाटक खाली कर दिया तथा अंग्रेजों ने मैसूर के उन क्षेत्रों से अपना अधिकार त्याग दिया, जो युद्धकाल में हस्तगत कर लिये थे।

टीपू ने अंग्रेज युद्धबंदियों को मुक्त करने का वादा किया। अंग्रेजों ने मैसूर में व्यापारिक एकाधिकार की माँग की किन्तु टीपू ने यह माँग स्वीकार नहीं की। इस प्रकार दोनों पक्षों में शांति स्थापित हो गयी।

टीपू सुल्तान और आंग्ल-मैसूर युद्ध

टीपू का जन्म 1749 ई. में हुआ था। ऐसा माना जाता है कि एक मुसलमान फकीर टीपू सुल्तान औलिया के आशीर्वाद से हैदरअली के यहाँ उसका जन्म हुआ था। अतः उसका नाम फतेहअली टीपू रखा गया, जो इतिहास में अपनी वीरता के कारण टीपू सुल्तान के नाम से प्रसिद्ध हुआ। टीपू शिक्षित था तथा अंग्रेजों व मराठों के प्रति उसका दृष्टिकोण अधिक कठोर था। कुछ अंग्रेज इतिहासकारों ने टीपू के विषय में अनेक गलत तथ्यों को प्रस्तुत कर उसे धर्मान्ध व अत्याचारी शासक बताने का प्रयास किया है, किन्तु आधुनिक भारतीय इतिहासकारों ने टीपू में बहुत सी भ्रांतियों को दूर कर दिया है।

टीपू के शासक बनने के समय दक्षिण की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति अत्यन्त ही पेचीदा थी। मैसूर के विरोधी राज्य हैदरअली की मृत्यु के बाद कभी भी प्रबल हो सकते थे। मराठे और निजाम दोनों ही मैसूर के कुछ क्षेत्रों पर अपना दावा कर रहे थे और अंग्रेजों को इस प्रकार हस्तक्षेप करने का अवसर मिल सकता था। ऐसी स्थिति में टीपू के समक्ष दो विकल्प थे – या तो वह अन्य राज्यों से राजनीतिक संबंध स्थापित करके अपने विरोधियों को ललकारा। टीपू स्वयं कुशल सेनानायक था, अतः उसने विस्तारवादी नीति को अपनाया।

मराठा-मैसूर युद्ध(1785-87ई.) – मंगलौर की संधि से द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध समाप्त हो चुका था। टीपू अब मराठों व निजाम के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करने की स्थिति में था। अतः 1785 के आरंभ में उसने नारगुंड व कित्तुर पर अधिकार कर लिया, जो मराठों के अधिकार में थे।

नाना फङनवीस ने अंग्रेजों से सहायता प्राप्त करने का असफल प्रयास किया। उसके बाद नाना ने निजाम की सहायता से बादामी व गजेन्द्रगढ के दुर्गों को जीत लिया। फिर भी टीपू की प्रशिक्षित पैदल सेना मराठों की घुङसवार सेना की अपेक्षा अधिक सफल सिद्ध हुई। इसी बीच अंग्रेजों ने मेलेट को पूना में अपना रेजीडेण्ट नियुक्त किया तथा कुछ सेना भी पूना की ओर रवाना कर दी। टीपू ने समझा कि अंग्रेज भी उसके विरुद्ध मराठों से सहयोग करने को तैयार हो गये हैं, अतः 1787 में उसने मराठों से संधि कर ली, जिसमें दोनों पक्षों ने जीते हुए प्रदेश लौटा दिये तथा टीपू से लिया जाने वाला खिराज कम कर दिया। टीपू ने मराठा युद्धबंदियों को मुक्त कर दिया।

तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध

टीपू की महत्वाकांक्षा शांत होने वाली नहीं थी। अंग्रेजों के विरुद्ध घृणा तो उसे विरासत में मिली थी। वह विदेशी शक्तियों के सहयोग से अपनी शक्ति संगठित करना चाहता था। टर्की के सुल्तान से अंग्रेजों के विरुद्ध सहायता प्राप्त करने के लिए 1786 ई. में उसने गुलाम अलीखाँ के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि-मंडल कुस्तुन्तुनिया भेजा। इसी प्रतिनिधि-मंडल को कुस्तुन्तुनिया से फ्रांस जाना था, ताकि फ्रांसीसियों से सहयोग प्राप्त किया जा सके। 1787 ई. में टीपू ने एक दूसरा प्रतिनिधि-मंडल सीधा फ्रांस भेजा। किन्तु ये दोनों मिशन असफल रहे, क्योंकि उस समय टर्की का सुल्तान रूस और आस्ट्रिया के विरुद्ध संघर्ष कर रहा था तथा अंग्रेजों की मैत्री पर निर्भर था और फ्रांस ने भी इंग्लैण्ड को यह आश्वासन दे दिया था कि अंग्रेजों के विरुद्ध कोई उत्तेजनात्मक कार्यवाही नहीं करेगा।

मराठा-मैसूर युद्ध के समय अगस्त, 1786 में ब्रिटिश रेजीडेण्ट मेलेट ने मराठों को सैनिक सहायता का वचन दिया था, किन्तु सितंबर, 1786 में कार्नवालिस भारत आया और वह बिना उचित तैयारी के अपनी सैनिक प्रतिष्ठा खतरे में डालने को तैयार नहीं हुआ। अतः कार्नवालिस ने 1784 के पिट्स इंडिया एक्ट का बहाना बनाकर तथा टीपू से मैत्री संधि (मंगलोर की संधि) की दुहाई देकर मराठों को सैनिक सहायता देने से इन्कार कर दिया। किन्तु कार्नवालिस टीपू से मैत्री नहीं चाहता था। उसने देखा कि दक्षिण में अंग्रेजों की प्रभुता स्थापित करने का यह एक अच्छा अवसर था, क्योंकि मराठे और निजाम दोनों मैसूर की शक्ति को दबाना चाहते थे। अतः वह ऐसे अवसर की तलाश में था, जिससे कि उसे टीपू पर आक्रमण करने का उचित बहाना प्राप्त हो जाय।

कार्नवालिस और टीपू के संघर्ष के कारणों के संबंध में इतिहासकारों के दो मत हैं। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि कंपनी ने भारत में अपनी साम्राज्य विस्तार की नीति के कारण टीपू से संघर्ष किया। इस कथन के समर्थन में उन्होंने तर्क दिया है कि चूँकि मंगलोर की संधि कंपनी के लिए अपमानजनक थी, अतः कंपनी, टीपू से बदला लेना चाहती थी।

किन्तु कुछ इतिहासकारों का कहना है कि यद्यपि कार्नवालिस भारत में हस्तक्षेप की नीति का अनुसरण कर रहा था, किन्तु टीपू ने स्वयं ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी थी जिससे विवश होकर कार्नवालिस को टीपू से संघर्ष करना पङा। टीपू ने अपनी शक्ति में वृद्धि कर अपने पङौसी राज्यों पर आक्रमण करना आरंभ कर दिया था। उसने हैदराबाद पर आक्रमण कर गंटूर पर अधिकार कर लिया। निजाम ने कार्नवालिस से टीपू के विरुद्ध सैनिक सहायता देने की प्रार्थना की। किन्तु पिट्स इंडिया एक्ट के कारण वह प्रत्यक्ष रूप से निजाम को सहायता नहीं दे सकता थआ।

अतः कार्नवालिस ने इसके लिए एक मार्ग ढूँढ निकाला। उसने 7 जुलाई, 1789 को निजाम से कहा कि कंपनी उसे सैनिक सहायता देने को तैयार है, किन्तु निजाम को यह आश्वासन देना होगा कि वह इस सेना का प्रयोग कंपनी के मित्रों के विरुद्ध नहीं करेगा। कार्नवालिस ने निजाम को कंपनी के मित्रों की एक सूची दी, जिसमें जान-बूझकर टीपू का नाम नहीं दिया। अतः अप्रत्यक्ष रूप से कार्नवालिस टीपू के विरुद्ध निजाम को सैनिक सहायता देने को तैयार हो गया। यह बात दूसरी है कि कार्नवालिस को उस समय टीपू के विरुद्ध सैनिक सहायता नहीं देनी पङी। किन्तु कार्नवालिस की यह कार्यवाही पिट्स इंडिया एक्ट की भावना तथा भाषआ का स्पष्ट उल्लंघन था।

टीपू द्वारा ट्रावनकोर पर आक्रमण –

1773 ई. में हैदरअली ने कालीकट पर अपना नियंत्रण स्थापित किया था, जिससे कालीकट और ट्रावनकोर के बीच में स्थित कोचीन पर उसका आधिपत्य बढ गया। कोचीन के क्षेत्र में एक 40 मील लंबी ट्रावनकोर लाइन्स थी, जो सामरिक महत्त्व की थी। ट्रावनकोर लाइन्स तक पहुँचने का मार्ग दो दुर्गों – क्रांगनूर और आइकोट से नियंत्रित था। ये दोनों दुर्ग डचों के नियंत्रण में थे। ट्रावनकोर के शासक ने इन दोनों दुर्गों को डच गवर्नर से खरीद लिया। चूँकि टीपू स्वयं इन दुर्गों को खरीदना चाहता था, अतः क्रुद्ध होकर टीपू ने 29 दिसंबर, 1789 को ट्रावनकोर पर आक्रमण कर दिया, जो कंपनी का मित्र था। यही कार्नवालिस के लिए युद्ध का बहाना था।

यद्यपि कार्नवालिस ने 5 दिसंबर, 1789 को डूण्डास को लिखा था कि, ट्रावनकोर के राजा का बिना ब्रिटिश सरकार की सहमति के इन दुर्गों को खरीदना अनुचित था। फिर भी कार्नवालिस ने टीपू की कार्यवाही ने टीपू की कार्यवाही को युद्ध का कारण मान लिया। टीपू ने इस लङाई को केवल सीमावर्ती झङप बताया किन्तु कार्नवालिस ने टीपू के कथन को स्वीकार नहीं किया।

कार्नवालिस ने युद्ध आरंभ करने से पूर्व मराठा व निजाम से संधि करने का निर्णय लिया। 1 जून, 1790 को निजाम के साथ तथा 4 जुलाई, 1790 को मराठों के साथ टीपू के विरुद्ध संधियाँ कर ली गयी, जिसके अनुसार दोनों ने अंग्रेजों को सैनिक सहायता देने का वचन दिया तथा अंग्रेजों ने युद्ध की उपलब्धियों को (टीपू के जिन भू-भागों पर वे विजय प्राप्त करेंगे) तीनों में बाँटने का आश्वासन दिया। इस प्रकार कार्नवालिस ने टीपू के विरुद्ध त्रिगुट का निर्माण कर लिया। कार्नवालिस ने मद्रास के गवर्नर हालैण्ड को बिना बताये टीपू के विरुद्ध ये संधियाँ की थी।

अतः हालैण्ड को जब इस बात का पता लगा तो उसने कार्नवालिस को लिखा कि वह जो कुछ टीपू से चाहता है, वह लिखकर भेज दे, टीपू उसे स्वीकार कर लेगा। हालैण्ड के इस व्यवहार से क्रुद्ध होकर कार्नवालिस ने हालैण्ड को पदच्युत कर बंगाल बुला लिया तथा उसके स्थान पर मीडोज नामक अंग्रेज अधिकारी की नियुक्ति कर दी, जो कार्नवालिस की योजना को कार्यान्वित कर सकता था। उस समय के पत्रों से पता चलता है कि टीपू उस समय युद्ध करना नहीं चाहता था, किन्तु कार्नवालिस टीपू की शक्ति को समाप्त करना चाहता था।

इसलिए मीडोज ने टीपू की किसी बात को मानने से इन्कार कर दिया। अप्रैल, 1790 में ट्रावनकोर पर आक्रमण का बहाना लेकर कार्नवालिस ने टीपू के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।

युद्ध का प्रारंभ

टीपू के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करते समय कार्नवालिस को आशा थी कि युद्ध अधिक समय तक नहीं चलेगा, अतः उसने जनरल केली तथा कर्नल मीडोज के नेतृत्व में एक सेना भेज दी। जब जनरल केली बारामहल की ओर बढ रहा था कि अचानक उसकी मृत्यु हो गयी। अतः कर्नल मेक्सवेल की नियुक्ति की गयी।

लेकिन कर्नल मीडोज व मेक्सवेल को टीपू के विरुद्ध कोई सफलता प्राप्त नहीं हुई। इस संबंध में स्वयं कार्नवालिस ने 12 नवम्बर, 1790 को डूण्डास को लिखा था कि, युद्ध की शीघ्र और सफल समाप्ति की मधुर आशा अब कुछ धुँधली हो गयी है। हम युद्ध खो चुके हैं और हमारे शत्रुओं ने प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली।

वस्तुतः कार्नवालिस ने टीपू को अपनी आशा से अधिक शक्तिशाली पाया। इसलिए 1791 के आरंभ में उसने मद्रास पहुँचकर टीपू के विरुद्ध सेना का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया। कार्नवालिस ने 21 मार्च, 1791 को बंगलौर पर अधिकार कर लिया। उसके बाद कार्नवालिस मैसूर राज्य की राजधानी श्रीरंगपट्टम की ओर बढा। इसी समय रास्ते में निजाम की 10,000 सेना कार्नवालिस की सेना से मिल गयी। 13 मई, 1791 को वह श्रीरंगपट्टम के पास पहुँच गया।

इतिहासकार बी.डी.बसु का कहना है कि इस समय तक भी टीपू कंपनी से मित्रता करना चाहता था। टीपू ने कार्नवालिस के पास बातचीत के लिए अपना दूत भी भेजा, किन्तु कार्नवालिस ने टीपू के दूत से भेंट ही नहीं की। कार्नवालिस के श्रीरंगपट्टम के निकट पहुँचने पर टीपू ने अत्यंत कुशल सैन्य संचालन का परिचय दिया।

फलस्वरूप कार्नवालिस को कोई सफलता प्राप्त नहीं हुई। इधर वर्षा आरंभ होने से अंग्रेजी सेना में बीमारी फैल गयी तथा बंगलौर आना पङा। कार्नवालिस की इस सफलता के कारण इंग्लैण्ड में उसकी नीति की कङी आलोचना की गयी तथा मराठा व निजाम के साथ की गई संधियों को पिट्स इंडिया एक्ट के विपरीत बताया गया। इसी बीच मराठे भी अंग्रेजों की तरफ से युद्ध में सम्मिलित हो गये तथा 30 मार्च, 1791 को उन्होंने धारवार पर अधिकार कर लिया।

बंगलौर लौट आने के बाद कार्नवालिस पुनः बारामहल की ओर बढा। 19 अक्टूबर, 1791 को नंदी दुर्ग पर अधिकार कर वह श्रीरंगट्टम की ओर बढा। 5 फरवरी, 1792 को कार्नवालिस श्रीरंगपट्टम से छः मील दूर रह गया तथा यहाँ से उसने पुनः श्रीरंगपट्टम का घेरा डाला। इस बार भी टीपू ने अत्यंत कुशल सैन्य संचालन का परिचय दिया। किन्तु अंग्रेज सेना का अत्यधिक दबाव देखकर टीपू ने कार्नवालिस के पास अपना दूत भेजा तथा संधि की बातचीत हुई। 23 मार्च, 1792 को दोनों पक्षों के बीच श्रीरंगपट्टम की संधि हो गयी।

इस संधि के अनुसार-

  • टीपू ने मैसूर का आधा भू-भाग अंग्रेजों को समर्पित कर दिया। मलाबार, कुर्ग व बारामहल अंग्रेजों को प्राप्त हुए। कृष्णा नदी के आस-पास का क्षेत्र निजाम को तथा कृष्णा व तुंगभद्रा के बीच का क्षेत्र मराठों को प्राप्त हुआ।
  • टीपू ने हैदरअली के समय से पकङे गये युद्धबंदियों को मुक्त करने का वचन दिया।
  • टीपू ने युद्द की क्षतिपूर्ति के रूप में 30 लाख पौण्ड कंपनी को देना स्वीकार किया।
  • टीपू ने अपने दो पुत्रों – मोइजुद्दीन व अब्दुल खलीफ को अंग्रेजों के पास अमानत के रूप में रखना स्वीकार कर लिया।

श्रीरंगपट्टम की संधि की इंग्लैण्ड में कटु आलोचना की गयी। संधि के आलोचकों का कहना था कि कार्नवालिस ने टीपू की शक्ति को पूर्णतया न कुचलकर भयंकर भूल की, जिसके परिणामस्वरूप आगे चलकर वेलेजली को पुनः टीपू से युद्ध करना पङा। किन्तु कार्नवालिस ने अपने इस कार्य का औचित्य सिद्ध करने के लिए कई तर्क देकर आलोचकों का मुँह बंद कर दिया।

युद्ध का महत्त्व

इस युद्ध के बाद मैसूर राज्य की आर्थिक सम्पन्नता व सुरक्षात्मक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी। सामरिक महत्त्व के क्षेत्रों से निकल जाने से मैसूर की प्राकृतिक सुरक्षा व्यवस्था लगभग समाप्त हो गयी। 30 लाख पौण्ड की क्षतिपूर्ति तथा आधा राज्य दे देने से मैसूर की आर्थिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गयी।

अब टीपू के लिए विशाल सेना का खर्च वहन करना असंभव हो गया। अतः मैसूर की अंग्रेजों के विरुद्ध सफलता अब असंभव हो गयी। प्रसिद्ध विद्वान हंटर ने इस युद्ध को दो कारणों से महत्त्वपूर्ण बताया है- प्रथम तो यह कि इतिहास में पहली बार स्वयं गवर्नर-जनरल ने युद्ध में सेना का नेतृत्व किया था तथा दूसरा यह कि दक्षिण की दो शक्तियाँ (मराठा व निजाम) ने दक्षिण की तीसरी शक्ति को समाप्त करने के लिए कंपनी को सहयोग दिया था।

श्रीरंगपट्टम की संधि के फलस्वरूप कुछ समय के लिए शांति अवश्य हो गयी थी, किन्तु स्थायी शांति के आसार नजर नहीं आ रहे थे। यद्यपि टीपू ने परिस्थितिवश अंग्रेजों से संधि कर ली थी, किन्तु उसके ह्रदय में क्रोध की ज्वाला धधक रही थी और उसने अपने अपमान को धोने के लिए फ्रांसीसियों से व अफगानिस्तान के अमीर से गुप्त वार्ताएँ आरंभ कर दी।

चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध

श्रीरंगपट्टम की संधि के बाद टीपू शांत नहीं हुआ। उसने अपनी राजधानी में सुदृढ किलेबंदी की तथा अनेक दुर्गों का निर्माण करवाया, नये सैनिकों की भर्ती की तथा अपनी सेना को अनुशासित कर उसे पुनर्गठित किया, विद्रोही सरदारों को दंडित किया तथा संधि की शर्तों को पूरा करने के लिए और अपने पुत्रों को अंग्रेजों के बंधन से मुक्त करवाने के लिए प्रजा से बलपूर्वक धन वसूल किया।

लॉर्ड कार्नवालिस के बाद 1793 में सर जॉन शोर को गवर्नर-जनरल बनाया गया। सर जॉन शोर ने तटस्थता और अहस्तक्षेप की नीति का अनुसरण किया। सर जॉन शोर के बाद मई, 1798 में लॉर्ड वेलेजली गवर्नर-जनरल बनकर भारत आया। वेलेजली के आने के समय टीपू श्रीरंगपट्टम की संधि का बदला लेने की तैयारी कर रहा था।

निजाम भी अंग्रेजों से असंतुष्ट था, क्योंकि सर जॉन शोर ने उसे मराठों के विरुद्ध सहायता नहीं दी था, जिसके कारण उसे खरदा के युद्ध में पराजित होना पङा था। मराठे भी दक्षिण में कंपनी की प्रभुता नहीं चाहते थे। इन परिस्थितियों में वेलेजली के लिए साम्राज्य विस्तार की नीति का अनुसरण करना अनिवार्य हो गया।

इस नीति के अन्तर्गत वेलेजली ने सहायक प्रथा आरंभ की थी। इस प्रथा द्वारा वह भारत में फ्रांसीसियों के प्रभाव को भी समाप्त करना चाहता था। वेलेजली ने मद्रास सरकार को टीपू के विरुद्ध सचेत रहने तथा युद्ध के लिए तैयार रहने का भी आदेश दे दिया। किन्तु प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि ऐसे कौन से कारण थे, जिनसे विवश होकर वेलेजली को टीपू के विरुद्ध युद्ध के लिए तैयार रहने के आदेश देने पङे।

वेलेजली व टीपू के बीच संघर्ष के मुख्य कारण निम्न थे –

श्रीरंगपट्टम की संधि के बाद टीपू ने अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी शक्ति में वृद्धि करना आरंभ कर दिया था। टीपू यह जानता था कि जब तक वह अपने साधनों में संपन्नता प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक वह अंग्रेजों के विरुद्ध सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। किन्तु अंग्रेज इस बात के लिए तैयार नहीं थे कि टीपू उनके विरुद्ध युद्ध के साधन जुटाये।

टीपू ने मैसूर राज्य की सीमाओं को सुरक्षित करना आरंभ कर दिया था। उसने अपने राज्य में अनेक सुदृढ दुर्गों का निर्माण करवाया, ताकि वह अंग्रेजों के विरुद्ध सफलतापूर्वक युद्ध कर सके। वह अपने इन दुर्गों में अपनी सेना का जमाव कर युद्ध की तैयारी करने लगा था। टीपू की इस कार्यवाही को अंग्रेज सहन करने को तैयार नहीं थे।

टीपू ने अंग्रेजों के विरुद्ध विदेशी शक्तियों से सहायता प्राप्त करने के प्रयत्न आरंभ कर दिये थे। उसने अफगानिस्तान के शासक जमानशाह से पत्र-व्यवहार किया तथा अपने राजदूत अफगानिस्तान, कुस्तुन्तुनिया और फ्रांस भेजे। वेलेजली जिस जहाज से भारत आया था, उसी जहाज से टीपू का राजदूत भी फ्रांस से सहायता की बातचीत करके लौटा था। अतः टीपू की विदेशी शक्तियों से साँठगाँठ वेलेजली के लिए असहनीय थी।

वेलेजली का उद्देश्य भारत में फ्रांसीसियों के बढते हुए प्रभाव को रोकना था। इस समय दक्षिण भारत की प्रमुख तीनों शक्तियों ने अपनी-अपनी सेनाओं को यूरोपियन प्रणाली से प्रशिक्षित करने के लिए अपनी-अपनी सेना में फ्रांसीसी सैनिकों को नियुक्तियाँ दी थी। टीपू ने भी पोरिन नामक एक फ्रेंच अधिकारी को अपनी सेना में नियुक्त किया था।

यूरोप में नेपोलियन की शक्ति बहुत बढ गयी थी। वह यूरोप को विजय करने के बाद एशिया की ओर बढ रहा था तथा मिश्र तक आ पहुँचा था। वेलेजली जानता था कि यदि इस समय टीपू की शक्ति को समाप्त नहीं किया गया तो टीपू नेपोलियन से संबंध स्थापित कर लेगा, जिससे भारत में अंग्रेजों के अस्तित्व को खतरा उत्पन्न हो सकता है।

टीपू ने अपने राज्य में 99 फ्रांसीसी अधिकारियों का सार्वजनिक सम्मान किया। अतः वेलेजली ने अपने 12 अगस्त, 1789 के आलेख में कहा कि टीपू के राज्य में फ्रांसीसी अधिकारियों का सम्मान एक स्पष्ट, असंदिग्ध और निश्चित युद्ध की घोषणा के समान है।

यद्यपि वेलेजली, टीपू द्वारा फ्रांसीसी सैनिकों का सम्मान, युद्ध का कारण मानता था, किन्तु वह उस समय टीपू पर आक्रमण करने को तैयार नहीं था, क्योंकि उसकी सैनिक तैयारी पूरी नहीं थी। अतः कार्नवालिस की भाँति उसने मराठा और निजाम को साथ लेकर टीपू के विरुद्ध त्रिगुट बनाने का निर्णय लिया। निजाम तो 1798 में ही अंग्रेजों से सहायक संधि कर चुका था, किन्तु मराठों के साथ अभी तक कोई संधि नहीं हुई थी। अतः वेलेजली ने पेशवा के समक्ष प्रस्ताव रखा कि यदि मराठा टीपू के विरुद्ध सहायता देते हैं तो मैसूर राज्य का कुछ भू-भाग मराठों को दिया जायेगा। पेशवा ने वेलेजली के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। उसके बाद वेलेजली ने संचालक समिति से इस बात की अनुमति माँगी कि फ्रांसीसियों के प्रभाव को समाप्त करने के लिए टीपू से युद्ध किया जाय। संचालक समिति ने वेलेजली को युद्ध की अनुमति प्रदान कर दी।

संचालक समिति से अनुमति प्राप्त होने के बाद 8 नवम्बर, 1798 को वेलेजली ने टीपू को एक पत्र लिखा, जिसमें टीपू पर श्रीरंगपट्टम की संधि का उल्लंघन करने का आरोप लगाया। वेलेजली ने यह भी लिखा कि वह मेजर डोवटन को टीपू से बातचीत करने हेतु भेजना चाहता है, ताकि दोनों पक्षों के बीच उत्पन्न गलतफहमी को दूर किया जा सके। टीपू ने इस पत्र का कोई उत्तर नहीं दिया। अतः वेलेजली ने टीपू को एक दूसरा पत्र लिखा, लेकिन टीपू ने उसका कोई भी उत्तर नहीं दिया वरन वह अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की तैयारी करता रहा। अतः वेलेजली ने टीपू के विरुद्ध फरवरी, 1799 में युद्ध की घोषणा कर दी।

युद्ध का आरंभ

युद्ध की घोषणा के साथ ही वेलेजली ने जनरल हेरिस के नेतृत्व में एक सेना, जिसमें निजाम की सेना भी सम्मिलित थी, 11 फरवरी, 1799 को टीपू के विरुद्ध भेज दी तथा अपने भाई आर्थर वेलेजली को हेरिस के सहायक के रूप में भेजा। बंबई से भी एक सेना जनरल स्टुअर्ट के नेतृत्व में मैसूर की ओर रवाना हुई। कंपनी की सेना ने टीपू को 5 मार्च, 1799 को सिद्धेश्वर नामक स्थान पर तथा 27 मार्च, 1799 को मल्लावली नामक स्थान पर पराजित किया। उसके बाद 7 अप्रैल, 1799 को कंपनी की सेना ने श्रीरंगपट्टम को घेर लिया। 14 अप्रैल को बम्बई की सेना जनरल हेरिस से मिल गयी, जिससे टीपू की स्थिति और अधिक खराब हो गयी। अतः टीपू ने जनरल हेरिस के पास संधि प्रस्ताव भेजा। इस पर हेरिस ने संधि की मुख्य तीन शर्तें टीपू के पास भेज दी –

  • टीपू अपना आधा भू-क्षेत्र समर्पित करेगा।
  • टीपू छः माह के भीतर 20 लाख पौण्ड अंग्रेजों को देगा।
  • टीपू अपने दो बङे पुत्रों और चार वरिष्ठ अधिकारियों को जमानत के रूप में अंग्रेजों के पास रखेगा।

टीपू इस बार पुनः श्रीरंगपट्टम की संधि की पुनरावृत्ति नहीं चाहता था। अतः टीपू ने इन अपमानजनक शर्तों का कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। अंग्रेजों ने पुनः आक्रमण कर किले की दीवार तोङ दी और कुछ यूरोपियन सैनिक किले के दरवाजे में घुसे। इनमें से एक सैनिक ने टीपू की अत्यंत सुन्दर रत्न जङित म्यान को छीनने का प्रयास किया। इस समय तक टीपू अनेक घावों से क्षत-विक्षत हो चुका था, फिर भी उस सैनिक पर वार करके उसे घायल कर दिया। इससे क्रुद्ध होकर उस सिपाही ने बंदूक से एक गोली चलाई जो टीपू के सिर में लगी। अतः 5 मई, 1799 को टीपू मारा गया। टीपू के मरते ही श्रीरंगपट्टम पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। अंग्रेजों की निर्णायक विजय हुई।

अंग्रेजों ने टीपू के राजमहल व समस्त नगर को लूटा तथा विभिन्न स्थानों पर आग लगा दी। यह लूट और आगजनी 5 मई को प्रातः आरंभ हुई तथा 6 मई तक नगर के मकान जलते देखे गये। इस युद्ध में टीपू का पुस्तकालय भी, जिसमें 2,000 से भी अधिक हस्तलिखित ग्रंथ थे, नष्ट कर दिये गये। टीपू की राजधानी के पतन से प्रत्येक अंग्रेज को लाभ हुआ। आर्थर वेलेजली को 1,200 पौण्ड के जवाहरात तथा 7,000 पौण्ड रोकङ प्राप्त हुए। जनरल हेरिस तथा उसके अन्य 6 अधिकारियों ने तो इतनी लूटमार की कि बाद में उनकी निन्दा तक की गयी है। इस लूट में से संचालक समिति ने वेलेजली को एक लाख पौण्ड स्वीकृत किये, किन्तु वेलेजली ने इसे लेने से इन्कार कर दिया। अतः संचालक समिति ने निर्णय लिया कि वेलेजली को 20 वर्षों तक 5,000 पौण्ड प्रतिवर्ष दिये जाते रहेंगे।

मैसूर का राजनीतिक निर्णय

संपूर्ण मैसूर राज्य पर कंपनी का अधिकार हो गया था, किन्तु वेलेजली इसे अंग्रेजी राज्य में नहीं मिलाना चाहता था, क्योंकि ऐसा करने से राज्य को निजाम व मराठों में बाँटना पङता, जिसके दूरगामी राजनीतिक परिणाम हो सकते थे। टीपू के पुत्रों को मैसूर की गद्दी पर बैठाना कूटनीतिक दृष्टि से उचित न था।

अतः वेलेजली ने श्रीरंगपट्टम, कनारा, कोयम्बटूर तथा धारापुरम् के प्रदेश कंपनी के अधिकार में कर लिये। गुंटी, गोरुमकोण्ड तथा चित्तलदुर्ग के प्रदेश निजाम को दिये। मराठों को भी उत्तर-पश्चिम में कुछ प्रदेश भी निजाम व अंग्रेजों ने आपस में बाँट लिये। मैसूर का शेष भाग (मध्य मैसूर) मैसूर के प्राचीन हिन्दू राजवंश जिनसे हैदरअली ने मैसूर राज्य हस्तगत किया था, के ही वंशज चमराज के दो वर्षीय पुत्र कृष्णराज वाडियार तृतीय को दे दिया। वेलेजली ने उसके साथ सहायक संधि कर ली, जिसके अनुसार कृष्णराज ने कंपनी को 22 लाख रुपया वार्षिक खिराज देने का निश्चय किया। मैसूर में एक अंग्रेज रेजिडेण्ट नियुक्त किया गया। टीपू के दोनों पुत्रों को बंदी बनाकर कलकत्ता भेज दिया गया।

वेलेजली की मैसूर नीति से कंपनी को महत्त्वपूर्ण लाभ हुआ। मैसूर अब बहुत ही छोटा राज्य रह गया तथा अंग्रेजों के कट्टर शत्रु का अंत हो गया। अब मैसूर के प्रशासन पर कंपनी का प्रभाव स्थापित हो गया। कुछ समय बाद निजाम ने मैसूर राज्य का अपना भाग भी अंग्रेजों को दे दिया, जिससे मैसूर ब्रिटिश राज्य से घिर गया। टीपू के पतन को इंग्लैण्ड व भारत में बङा महत्त्व दिया गया। दोनों देशों के ईसाई गिरजाघरों में गये और वहाँ अंग्रेजी राज्य के सबसे बङे शत्रु को नष्ट करने के उपलक्ष्य में ईश्वर को धन्यवाद दिया। इंग्लैण्ड में इस विजय को इतना महत्त्वपूर्ण समझा गया कि वेलेजली को मार्क्विस की उपाधि दी गयी।

अंग्रेजों की मैसूर नीति का मूल्यांकन

अनेक इतिहासकारों ने अंग्रेजों की मैसूर नीति की आलोचना की है। टीपू की बढती हुई शक्ति को कुचलने के लिए कार्नवालिस ने ट्रावनकोर पर टीपू के आक्रमण का बहाना बनाया तथा टीपू पर आक्रमण कर दिया। किन्तु श्रीरंगपट्टम की संधि में ट्रावनकोर का नाम भी सम्मिलित नहीं किया गया। वेलेजली ने भी टीपू से युद्ध करने का निर्णय लिया, जिसके लिए कोई कारण विद्यमान नहीं था। भारत में अंग्रेजों को फ्रांसीसियों से भय था, लेकिन उनका यह भय केवल मानसिक था, वास्तविक नहीं।

फिर अनेक भारतीय नरेशों ने भी अपनी सेना में फ्रांसीसियों को रखा था, लेकिन जिस प्रकार टीपू को दंड दिया गया, वैसा किसी को नहीं दिया गया। मैसूर के प्रति अपनी नीति का औचित्य सिद्ध करते हुए वेलेजली ने कहा था कि वह तो केवल अपने सिद्धांतों पर लङ रहा था, न कि टीपू की बढती हुई शक्ति के कारण। वेलेजली ने यह भी कहा कि टीपू के प्रति पर्याप्त सहनशीलता प्रदर्शित की गयी थी और यही कारण था कि उसे तीसरे मैसूर युद्ध के बाद गद्दीच्युत नहीं किया गया।

किन्तु टीपू ने निरंतर अंग्रेजों के प्रति विरोधी भाव प्रदर्शित किया और उसका यह व्यवहार अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया था, जिसे सहन नहीं किया जा सकता था। वेलेजली के इस कथन में कोई सत्यता नहीं है। वस्तुतः फ्रांसीसियों के प्रति अंग्रेजों का भय सर्वथा काल्पनिक था। मैसूर के पतन का एकमात्र कारण मैसूर की बढती हुई शक्ति थी, जो अंग्रेजों के लिए असहनीय थी।

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