इतिहासमध्यकालीन भारतविजयनगर साम्राज्य

विजयनगर साम्राज्य की राज्य-व्यवस्था कैसी थी | vijayanagar saamraajy kee raajy-vyavastha | Polity of Vijayanagara Empire

विजयनगर साम्राज्य की राज्य-व्यवस्था – चोल-चालुक्य साम्राज्य के पतन के बाद दक्षिण भारत के राज्यतंत्र में अनेक परिवर्तन हुए । परंतु 13 वीं शताब्दी के चार छोटे दक्षिणी राज्यों की तुलना में विजयनगर साम्राज्य बहुत विशाल और शक्तिशाली था और उन चार प्रादेशिक राज्यों की तुलना में उसका स्वरूप भी काफी भिन्न था। अतः विजयनगर काल में साम्राज्य के परिवर्तित स्वरूप, बदली हुई परिस्थितियों और साम्राज्य की आर्थिक एवं सामाजिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए एक सर्वथा नई राज्य व्यवस्था का विकास किया गया। इस व्यवस्था की जङे दक्षिण भारत के पूर्वकालिक राज्यतंत्र से बहुत भिन्न नहीं थी। दूसरे शब्दों में, जो प्रशासकीय समस्याएँ दक्षिण भारत में शताब्दियों से चली आ रही थी उनको ज्यों का त्यों बना रहने दिया गया। किंतु विजयनगर शासन के केंद्रीय ढाँचे में जो परिवर्तन आए उनसे उन संस्थाओं की स्वतंत्रता एवं स्वरूप में भी निश्चित रूप से अनेक परिवर्तन आए। इस संबंध में ग्रामीण प्रशासन से संबंधित संस्थाओं का उल्लेख आवश्यक है चोल-चालुक्य युग में ग्राम्य प्रशासन में काफी स्वायत्तता थी। परंतु विजयनगर युग में उन ग्राम्य प्रशासनिक संस्थाओं को तो बना रहने दिया गया पर उनके ऊपर नौकरशाही एवं सामंती व्यवस्था को आरोपित किया गया जिससे उनकी स्वायत्तता पर बुरा प्रभाव पङा। विजयनगर की राज्य व्यवस्था के संबंध में एक अन्य तथ्य भी बहुत महत्त्वपूर्ण है और वह यह कि इस काल में विजयनगर के बङे-बङे सेनानायकों, अधिकारियों और नौकरशाहों ने भू-स्वामित्व के साथ अपने को जोङने की कोशिश की। ये अधिकारी सामान्यतः बङे-बङे सेनानायक थे जो नायक कहलाते थे और स्थआनीय नौकरशाह आयंगार कहलाते थे। खेतिहर भूमि पर इनके प्रभुत्व की स्थापना के कारण इन अधिकारियों का राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव बहुत अधिक बढ गया जिससे बहुसंख्यक कृषक समुदाय पर भी एक हद तक बुरा असर पङा। परिणामस्वरूप विजयनगर कालीन राज्यतंत्र के अधिकांश सूत्र नायंकार व्यवस्था से ही जुङे हुए हैं और इन परिवर्तनों ने समकालीन राज्य व्यवस्था और राज्यतंत्र को एक विशिष्टता प्रदान की है।

विजयनगर साम्राज्य लगभग दो शताब्दियों तक विकासशील एवं काफी शक्तिशाली स्थिति में रहा और उसके साथ-साथ राज्य व्यवस्था भी विकसित होती गयी। समकालीन राज्य व्यवस्था की सबसे बङी विशेषता यह है कि विजयनगर नरेश अपने शासन और शासन व्यवस्था के विकास में काफी रुचि लेते थे। विजयनगर साम्राज्य के तीनों राजवंशों के इतिहास में लगभग सारे शासकों ने राज्य व्यवस्था के विकास में बहुमुखी भूमिका निभाई। इस संबंध में संगम वंश के नरेश हरिहर प्रथम, बुक्का प्रथम, देवराय प्रथम और देवराय द्वितीय, सालुव वंश में सालुव नरसिंह और तुलुव वंश में क्रमशः कृष्णदेव राय, अच्युत देवराय और रामराय विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। विजयनगर कालीन अभिलेख, साहित्यिक स्त्रोत एवं विदेशी यात्रियों के साक्ष्य समकालीन राज्य व्यवस्था के बहुत अच्छे प्रमाण हैं। विजयनगर की राज्य व्यवस्था और राजतंत्र का निम्नलिखित बिन्दुओं में विवेचन किया जा सकता है-

केंद्रीय व्यवस्था

किसी भी राजतंत्रात्मक व्यवस्था की भाँति विजयनगर काल में भी राजा, जिसे राय कहा जाता था, राज्य और शासन का केन्द्रबिन्दु होता था। इस काल में प्राचीन भारत की भाँति राज्य की सप्तांग विचारधारा पर जोर दिया जाता था। राज्य के इन सप्तांगों में राजा सर्वोपरि होता था और उससे अपेक्षा की जाती थी कि वह सार्वभौम सम्राट के रूप में अपने आदेशों को क्रियान्वित करवाए और प्रजा के हित का ध्यान रखे। प्राचीन भारत की राज्याभिषेक पद्धति के अनुरूप इस काल में राजाओं का राज्याभिषेक किया जाता था। राजा के चयन में राज्य के मंत्रियों और नायकों की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी, जैसे कृष्णदेवराय के राज्यारोहण में मुख्यमंत्री तिम्म और सदाशिव राय को सिंहासनारूढ करने में अनेक मंत्रियों एवं प्रधानमंत्री राम राय ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। राज्याभिषेक के समय विजयनगर नरेश को वैदिक राजाओं की भाँति प्रजा पालन और निष्ठा की शपथ लेनी पङती थी। राज्य के सारे युद्ध और शांति-संबंधी आदेशों की घोषणा, दान की व्यवस्था एवं नियुक्तियाँ तथा प्रजा के मध्य सदभावना की स्थापना आदि संबंधी समस्त कार्य राजा द्वारा ही संपादित किए जाते थे और उससे प्रजापालक होने की अपेक्षा की जाती थी।

राजा के ठीक बाद युवराज का पद होता था जो सामान्यतः राजा का ज्येष्ठ पुत्र होता था। पुत्र न होने पर राजपरिवार के किसी भी योग्यतम पुरुष को युवराज नियुक्त कर दिया जाता था। विजयनगर साम्राज्य में अधिकांश नरेशों ने अपने जीवनकाल में ही युवराजों की घोषणा करके अपने उत्तराधिकारियों की घोषणा कर दी थी। इस कारण विजयनगर काल में उत्तराधिकार संबंधी संघर्ष की संभावना बहुत कम रहती थी। युवराज की नियुक्ति के बाद उसका अभिषेक किया जाता था जिसे युवराज पट्टाभिषेकम कहते थे युवराज से शासन की सैद्धांतिक जानकारी होने की अपेक्षा की जाती थी। कभी-कभी बहुत कम उम्र के राजकुमारों को भी युवराज नियुक्त कर दिया था। युवराज काल में उसे विद्या, साहित्य, कला, ललितकलाओं और युद्ध आदि की शिक्षा भी दी जाती थी।

विजयनगर काल से बहुत पहले हमें दक्षिण भारत में दो व्यक्तियों द्वारा एक साथ शासन करने के अनेक दृष्टांत मिलते हैं, जैसे पांड्यकाल में सुंदर पांड्य और वीर पांड्य नायक नामक दो बंधुओं ने एक साथ शासन किया। इसी प्रकार विजयनगर काल में भी दो बंधुओं के एक साथ सम्राट होने के हमें दृष्टांत मिलते हैं, जैसे हरिहर और बुक्का बंधुओं ने एक साथ ही विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की और सहवर्ती शासक के रूप में शासन किया। इसी प्रकार संभवतः विजयराय और देवराय द्वितीय ने एक साथ शासन किया। इस प्रकार दक्षिण की संयुक्त शासक परंपरा का इस काल में भी निर्वाह हुआ। विजयनगर नरेश प्राचीन भारत की वैदिक परंपराओं का अनुसरण करने में अपना गौरव समझते थे। वे पर्याप्त रूप से वृद्ध हो जाने पर युवराज के पक्ष में अपनी राजगद्दी का परित्याग करना भी श्रेयस्कर समझते थे। इस संबंध में कृष्णदेवराय का दृष्टांत उल्लेखनीय है जो अपने पुत्र के पक्ष में राजगद्दी का परित्याग करना चाहते थे लेकिन पुत्र की असामयिक मृत्यु के कारण वे ऐसा नहीं कर सके।

राजा के रूप में अभिषेक करते समय यदि युवराज अल्पायु होता था तो राजा या तो अपने जीवनकाल में ही किसी मंत्री को उसका संरक्षक नियुक्त कर देता था अथवा मंत्रिपरिषद के सदस्य किसी योग्य व्यक्ति को अल्पायु राजा के संरक्षक के रूप में स्वीकार कर लेते थे। विजयनगर साम्राज्य के परवर्ती इतिहास में इस प्रकार के संरक्षकों की नियुक्ति के अनेक दृष्टांत हैं। विजयनगरकालीन कुछ प्रमुख संरक्षकों में वीर नरसिंह, नरसा नायक और रामराय के बारे में भी हमने पिछली पॉस्ट में बताया था। परंतु इन संरक्षकों ने अधिकांशतः अपनी स्थिति का दुरुपयोग किया जैसे कि नरसा नायक या उसके पुत्र वीर नरसिंह ने सालुव वंश को समाप्त करके तुलुव वंश की स्थापना कर डाली और सदाशिव राय के अल्पायु काल में यह संरक्षक व्यवस्था साम्राज्य के पतन के लिये बहुत अधिक सीमा तक उत्तरदायी सिद्ध हुई।

विजयनगर नरेश केंद्रीय शासन व्यवस्था की धुरी थे और वे कृषक समुदाय के शोषण, औद्योगिक वर्गों के मध्य आपसी विवाद और धार्मिक संप्रदायों के मध्य आपसी संघर्षों को दूर करने में काफी रुचि लेते थे। उक्त स्थितियों में विजयनगर नरेश अपने अधिकारियों या प्रांतीय सूबेदारों का पक्ष नहीं लेते थे वरन जनकल्याण और साम्राज्य के हित उनके सम्मुख सर्वोपरि होते थे। कृषक समुदाय और खेतिहर लोगों के शोषण और दमन को रोकने के लिये विजयनगर नरेशों ने लगातार प्रयास किए और इस संबंध में अनेक समकालीन अभिलेख उनकी इस सद्भावना के अच्छे दृष्टांत हैं। विजयनगर नरेश अपने अभिलेखों में बार-बार धर्म के अनुरूप अर्थात न्याय और समता के सिद्धांतों के अनुसार शासन करने का उल्लेख करते हैं। साम्राज्य के सामाजिक और धार्मिक जीवन में उनकी विशिष्ट भूमिका थी और वे अपने साम्राज्य की सामाजिक एकता, शांति और समृद्धि बनाए रखने के लिये लगातार प्रयत्नशील रहते थे। विजयनगर नरेशों का चाहे व्यक्तिगत धर्म कुछ भी रहा हो लेकिन उन्होंने धर्म के मामले में एक धर्मनिरपेक्ष नीति का अनुसरण किया। यहाँ तक कि उन्होंने अपने धर्मावलंबियों के मुकाबले विधर्मियों और अल्पमत के लोगों को संरक्षण प्रदान किया। इस प्रकार विजयनगर नरेश न्याय और समता के सिद्धांतों पर अपने शासन को अवस्थित करना चाहते थे और वे इस संबंध में अपने उद्देश्यों को पूरा करने में काफी सफल भी हुए थे। वे अपने देश की आर्थिक प्रगति के प्रति भी काफी सजग थे। कृषि उत्पादन की वृद्धि और व्यापार की समृद्धि उनके शासन का एक प्रमुख लक्ष्य होता था। इस दिशा में कृषि योग्य भूमि का विस्तार किया गया, सिंचाई के साधनों को उन्नत किया गया, विदेश व्यापार को प्रोत्साहन दिया गया और औद्योगिक प्रगति के लिये उपयुक्त परिस्थितियों को जन्म दिया गया। विजयनगर नरेश न्याय और दंड को शांति और सुरक्षा के लिये परम आवश्यक मानते थे। सम्राट स्वयं न्याय का सर्वोच्च न्यायालय होता था। इस काल में क्रूर दंडों का पूरी तरह से परित्याग तो नहीं किया गया, परंतु दंड के मामले में क्रूरता को अच्छा नहीं माना जाता था। विजयनगर साम्राज्य में राजा की सत्ता अनियंत्रित या निरंकुश नहीं थी। उसके निरंकुश न हो पाने का सबसे बङा कारण यह था कि राजा स्वयं को प्रजा के प्रति उत्तरदायी समझता था और व्यापारिक निगम, ग्रामीण संस्थाएँ और धार्मिक संस्थाओं से जुङी जन समितियाँ उसकी निरंकुशता के उदय में बाधा बनी हुई थी। इसके अलावा चूँकि राजा को प्राचीन स्मृति विधानों के अनुसार शासन करना और स्मृतियों द्वारा प्रस्तावित कानूनों को क्रियान्वित करना होता था, अतः उसके निरंकुश होने की संभावना बहुत कम होती थी। मंत्रिपरिषद भी राजा की निरंकुशता में बहुत बङी बाधा थी। अतः कुछ विद्वानों का यह विचार उचित नहीं है कि विजयनगर कालीन नरेश निरंकुश होते थे। कृष्णदेव राय ने अपने अनुपम ग्रंथ आमुक्त-माल्यद में इस आदर्श को बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है – अपनी प्रजा की सुरक्षा और कल्याण के उद्देश्य को सदैव आगे रखो तभी देश के लोग राजा के कल्याण की कामना करेंगे और राजा का कल्याण तभी होगा जब देश प्रगतिशील और समृद्धिशील होगा।

राजपरिषद राजा की सत्ता को नियंत्रित करने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थी। राजा राज्य के मामलों और नीतियों के संबंध में इसी परिषद की सलाह लेता था। यही परिषद राजा का राज्याभिषेक करती थी और देश का प्रशासन चलाती थी। इस राज-परिषद के अलावा राजा को परामर्श देने के लिये एक अन्य परिषद भी होती थी। इस परिषद में प्रांतीय सूबेदार, बङे-बङे नायक, सामंत शासक, व्यापारिक निगमों के प्रतिनिधि आदि शामिल होते थे। इस प्रकार यह परिषद काफी वृहत होती होगी। इस परिषद के बाद केंद्र में मंत्रिपरिषद होती थी, जिसका प्रमुख अधिकारी प्रधानी या महाप्रधानी होता था। इसकी स्थिति प्रधानमंत्री की भाँति होती थी। मंत्रिपरिषद में प्रधानमंत्री, मंत्री, उपमंत्री, विभागों के अध्यक्ष और राजा के कुछ निकटस्थ संबंधी भी शामिल होते थे। मंत्रिपरिषद में संभवतः बीस सदस्य होते थे। मंत्रिपरिषद के अध्यक्ष को सभानायक कहा जाता था। प्रधानमंत्री या प्रधानी भी इसकी अध्यक्षता करता था। विद्वान, राजनीति में निपुण, पचास से सत्तर वर्ष की आयु वाले और स्वस्थ व्यक्तियों को ही इस मंत्रिपरिषद का सदस्य बनाया जाता था। यह मंत्रिपरिषद विजयनगर साम्राज्य के संचालन में सबसे महत्त्वपूर्ण संस्था थी। राजा मंत्रिपरिषद से अधिकांश मामलों में राय लेता था, परंतु उसकी राय मानने के लिये वह बाध्य नहीं था। केंद्र में इनके अलावा दंडनायक नामक उच्च अधिकारी भी होते थे। दंड-नायक पदबोधक नहीं था वरन विभिन्न अधिकारियों की विशेष श्रेणी को दंडनायक कहा जाता था। दंडनायक को सेनापति, न्यायाधीश, प्रांतपति या प्रशासकीय अधिकारी आदि भी बनाया जा सकता था। इसी प्रकार कुछ दूसरे अधिकारी कार्यकर्त्ता कहलाते थे। यह भी प्रशासकीय अधिकारियों की एक श्रेणी थी। राजा और युवराज के बाद केन्द्र का सबसे प्रधान अधिकारी प्रधानी होता था जिसकी तुलना हम मराठाकालीन पेशवा से कर सकते हैं।

केंद्रीय सचिवालय

विजयनगर जैसे विशाल साम्राज्य पर केवल राजा और उसकी मंत्रिपरिषद ही अकेले शासन नहीं कर सकते थे, अतः केंद्र में एक सचिवालय की स्थापना की गयी थी। इस सचिवालय में विभागों का बँटवारा किया गया था और इसमें रायसम् या सचिव, कर्णिकम, अर्थात् एकाउंटेंट जैसे अधिकारी होते थे। विशेष विभागों से संबंधित अधिकारियों या विभाग प्रमुखों के पदों के नाम भिन्न थे, जैसे मानेयप्रधान, गृहमंत्री। शाही मुद्रा को रखने वाला अधिकारी मुद्राकर्त्ता कहलाता था। इसी प्रकार के अनेक अधिकारियों के द्वारा विजयनगर के केंद्रीय सचिवालय का गठन किया गया था।

प्रांतीय प्रशासन

विजयनगर जैसे विशाल साम्राज्य पर प्रशासन के लिये उसे अनेक प्रांतों में विभाजित किया गया था। ये प्रांत राज्य या मंडल कहलाते थे। विजयनगर साम्राज्य में इन प्रांतों की संख्या लगातार परिवर्तित होती रही है और चौदहवीं से सोलहवीं शताब्दी तक प्रांतों का क्रमशः विस्तार होता रहा। कृष्णदेव राय के शासनकाल में प्रांतों की संख्या सबसे अधिक थी। प्रांतों को मंडलों में विभाजित किया गया था। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि मंडल राज्य या प्रांत से बङी इकाई थे। जिले कोट्टम या वलनाडु कहलाते थे। कोट्टम को नाडुओं में विभाजित किया गया, इन्हें आज परगना या ताल्लुका कहा जाता है। इन नाडुओं को मेलाग्रामों में विभाजित किया गया। प्रत्येक मेलाग्राम में पचास गाँव होते थे और प्रशासन की सबसे छोटी इकाई उर या ग्राम थे। इस काल में कुछ ग्रामों के समूह को स्थल और सीमा भी कहा गया। प्रांतों का विभाजन सैनिक दृष्टिकोण को ध्यान में रख कर किया जाता था अर्थात् सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण और शक्तिशाली किले से युक्त प्रदेश को प्रांत के रूप में संगठित किया जाता था।

सामान्यतः प्रांतों पर राजपरिवार के व्यक्तियों को ही प्रांतपति या सूबेदार रूप में नियुक्त किया जाता था। कुछ प्रांतों पर कुशल और अनुभवी दंडनायकों को भी सूबेदार के रूप में नियुक्त कर दिया जाता था। इन सूबेदारों को प्रांतों में काफी स्वायत्तता प्राप्त थी। इनका कार्यकाल निर्धारित नहीं होता था और यदि वे कुशल और योग्य होते थे तो काफी लंबे समय तक शासन कर सकते थे। प्रांतपति सिक्कों को प्रसारित कर सकता था, नए कर लगा सकता था, पुराने करों को माफ कर सकता था और भूमिदान आदि दे सकता था। केंद्रीय सरकार प्रांत के प्रशासनिक मामले में सामान्यतः हस्तक्षेप नहीं करती थी, पर यदि प्रांतीय सूबेदार एवं उसके अधिकारी जनता का शोषण और दमन करते थे तो केंद्रीय सरकार प्रांतीय मामलों में हस्तक्षेप करने के प्रति विमुख नहीं रहती थी। प्रांत में कानून एवं व्यवस्था बनाए रखना प्रांतीय सूबेदारों का सबसे प्रमुख उत्तरदायित्व था। सूबेदारों को प्रांतीय राजस्व का एक निर्धारित अंश केंद्र के पास भेजना होता था। ये प्रांतीय सूबेदार अपने सचिव या एजेंट को केंद्र में रखते थे। शक्तिशाली राजाओं के शासनकाल में ये प्रांतीय सूबेदार निष्ठावान बने रहते थे, परंतु केंद्रीय शासन के कमजोर होते ही वे अपनी शक्ति और प्रभाव का विस्तार करने लगते थे।

नायंकार व्यवस्था

विजयनगर कालीन राजतंत्र और प्रांतीय व्यवस्था के प्रसंग में नायंकार व्यवस्था का उल्लेख आवश्यक है। चोल युग और विजयनगर युग के राजतंत्र के बीच सबसे बङा अंतर यही नायंकार व्यवस्था है। इस व्यवस्था की उत्पत्ति, इसके वास्तविक स्वरूप और व्याख्या के संबंध में इतिहासकारों में बङा विवाद है। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि विजयनगर कालीन सेनानायकों को नायक कहा जाता था। कुछ अन्य इतिहासकारों का कहना है कि ये नायक वस्तुतः भू सामंत थे जिन्हें राजा वेतन के बदले अथवा उनकी अधीनस्थ सेना के रख-रखाव के लिए विशेष भू-खंड दे देता था, जो अमरम कहलाते थे। अमरम भूमि का उपभोग करने के कारण इन्हें अमर नायक भी कहा जाता था। 16 वीं शताब्दी के मध्य में इन नायकों की संख्या लगभग दो सौ थी और इन नायकों को सबसे अधिक तमिलनाडु में नियुक्त किया गया था। तमिल प्रदेश की अधिकांश भूमि को अमरम के रूप में नायकों को वितरित कर दिया गया। इस अमरम भूमि का नायक पूरी तरह से स्वयं उपभोग नहीं कर सकता था। अमरम भूमि का उपभोग करने के संबंध में उनके दो प्रमुख दायित्व थे। पहला दायित्व यह कि इससे प्राप्त आय के एक अंश को उन्हें केंद्रीय खजाने में जमा कराना पङता था। दूसरे, उन्हें इसी भूमि की आय से राजा की सहायता के लिये एक सेना रखनी पङती थी। प्रत्येक नायक के अंतर्गत रहने वाली सेना का निर्धारण राजा स्वयं करता था। सामान्यतः नायकों की सेना की संख्या और केंद्र को भेजे जाने वाले राजस्व का अंश, अमरम भूमि के आकार पर निर्भर करता था इसके अलावा नायकों को अपनी अमरम भूमि में शांति और सुरक्षा बनाए रखने और अपराधों को रोकने का दायित्व भी स्वयं वहन करना पङता था। उनके अधिकार क्षेत्र में यदि कहीं चोरी या लूट की घटना हो जाती तो उसकी क्षतिपूर्ति भी उन्हें करनी पङती थी। यदि नायक अपने इन दायित्वों का निर्वाह नहीं कर पाते थे तो उनको प्रदान किए गए भू-खंडों को जब्त किया जा सकता था। कभी-कभी नायकों को शारीरिक रूप से भी दंडित किया जाता था परंतु उन्हें मृत्युदंड देने का हमें प्रमाण नहीं मिलता।

हमने नायंकार व्यवस्था का प्रांतीय शासन व्यवस्था के संदर्भ में उल्लेख किया है परंतु नायक की स्थिति, प्रांतीय गवर्नर की तुलना में निम्न दृष्टियों से भिन्न होती थी –

  • प्रांतीय गवर्नर प्रांत में राजा का प्रतिनिधि होता था और वह राजा के नाम से शासन करता था, जबकि नायक केवल एक सैनिक सामंत होता था और उसे केवल अपने सैनिक एवं वित्तीय दायित्वों की पूर्ति के लिये कुछ जिले या प्रदेश प्रदान कर दिए जाते थे।
  • गवर्नर की तुलना में नायक को अपने प्रदेश में कहीं अधिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। राजा सामान्यतः नायंकार प्रदेशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता था और किसी विशेष परिस्थिति अथवा शासन के मामले में पूर्णतया अक्षम होने पर ही नायक को हटाया जा सकता था।
  • नायकों को एक अमरम प्रदेश से दूसरे अमरम देश में स्थानांनतरित करने के प्रमाण हमें नहीं मिलते जब कि गवर्नर को प्रशासकीय आवश्यकता के अनुरूप स्थानांनतरित या पदच्युत भी किया जा सकता था।
  • गवर्नर की तुलना में नायक के उत्तरदायित्व भी कहीं अधिक थे। जंगलों को साफ कराया, कृषियोग्य भूमि का विस्तार करना, कृषि एवं आम समृद्धि की रक्षा करना आदि उसके कुछ प्रमुख दायित्व थे।
  • गवर्नरों को प्रायः दंडनायक कहा जाता था और अधिकांशतः वे ब्राह्मण हुआ करते थे। परंतु ब्राह्मण नायक होने के दृष्टांत हमें बहुत थोङे मिलते हैं।
  • प्रांतीय गवर्नरों को प्रायः दंडनायक कहा जाता था और अधिकांशतः वे ब्राह्मण हुआ करते थे। परंतु ब्राह्मण नायक होने के दृष्टांत हमें बहुत थोङे मिलते हैं।
  • प्रांतीय गवर्नरों द्वारा अपने पदों को आनुवंशिक बना लेने का हमें कोई दृष्टांत नहीं मिलता, परंतु नायकों के पद धीरे-धीरे आनुवंशिक हो गए थे।
  • नायकों को अपने पद की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए केंद्र में दो प्रकार के संपर्क अधिकारी (राजधानी में) रखने पङते थे। इनमें से एक अधिकारी साम्राज्य की राजधानी (अर्थात विजयनगर) में स्थित नायक की सेना का सेनापति होता था और दूसरा विजयनगर में नियुक्त उसका प्रशासनिक एजेंट होता था जिसे स्थानपति कहा जाता था। यदि हम विजयनगर कालीन नायंकार व्यवस्था को समग्र रूप से देखें, तो यह हमें यूरोप के मध्यकालीन सामंतवाद की याद दिलाती है। यद्यपि नायंकार व्यवस्था की यूरोपीय सामंतवाद के साथ तुलना नहीं की जा सकती, परंतु इस व्यवस्था में सामंतवादी लक्षण बहुत अधिक थे।
  • किन्हीं विशेष परिस्थितियों, आवश्यकताओं और गुणों के कारण इस व्यवस्था को स्थापित किया गया था, अतः मूल रूप में यह व्यवस्था निश्चित रूप से उपयोगी रही होगी। धीरे-धीरे इस व्यवस्था में दोष पैदा होने लगे। वित्तीय साधनों और सैनिक शक्ति से युक्त ये नायक विजयनगर के परवर्ती युग में अपनी स्वतंत्रता की घोषणा और अपने प्रदेशों का विस्तार करने के लिए आपस में युद्ध करने लगे। कमजोर शासकों के शासनकाल में नायकों की उच्छृंखलता और अधिक बढ जाती है।
  • परिणामस्वरूप नायंकार व्यवस्था विजयनगर साम्राज्य के विनाश का कारण बनी। इसी कारण विजयनगर साम्राज्य के परवर्ती दिनों में नायकों की उच्छृंखलता को रोकने के लिये महामंडलेश्वर या विशेष कमिश्नरों की नियुक्ति की गयी और इन्हें सारे दक्षिण भारत में नियुक्त किया गया। यह कार्य कृष्णदेव राय की मृत्यु के बाद अच्युतदेव राय के शासनकाल में उस समय किया गया, जब कृष्णदेव राय की मृत्यु का लाभ उठाकर प्रांतीय नायक अपने को स्वतंत्र घोषित करने की कोशिश करने लगे।

स्थानीय शासन

संपूर्ण दक्षिण भारत के इतिहास में अनेक राजवंशों के उत्थान और पतन के दौरान एक राजनीतिक संस्था – जो बिलकुल ही दुष्प्रभावित नहीं हुई – वह थी स्थानीय शासन। चोल-चालुक्य युग की शासन व्यवस्था के संदर्भ में, हम सभा और नाडु का पहले ही उल्लेख कर आए हैं। यह सभा और नाडु विजयनगर काल में भी प्रचलित रही। इस काल में किसी-किसी प्रदेश में सभा को महासभा, अन्यत्र ऊर और महाजन भी कहा जाता था। प्रत्येक गाँव को अनेक वार्डों या मुहल्लों में बाँटा जाता था। इस सभा के विचार-विमर्श में गाँव या क्षेत्र विशेष के प्रमुख लोग हिस्सा लेते थे। विजयनगर कालीन अभिलेखों में इन स्थानीय स्वशासन संबंधी संस्थाओं का खूब उल्लेख मिलता है।

इन ग्रामीण सभाओं को नई भूमि या अन्य प्रकार की संपत्ति को उपलब्ध करने और गाँव की सार्वजनिक भूमि को बेचने का अधिकार था। ये सभाएँ ग्रामीणों की ओर से सामूहिक निरअणय भी ले सकती थी और गाँव की प्रतिनिधि होने के नाते गाँव की जमीन को दान में भी दे सकती थी। इस प्रकार इन ग्राम सभाओं की स्थिति परिवार के मुखिया की भाँति होती थी। ये ग्रामसभाएँ उसकी भूमि को भी जब्त कर सकती थी। किसी प्राकृतिक विपत्ति के आने पर ग्राम सभाएँ राजा से लगान या कर विशेष की माफी के लिये भी निवेदन करती थी। इस कारण शासन की राजस्व नीति के क्रियान्वयन में इन सभाओं की एक बहुमुखी भूमिका रहती थी।

इन सभाओं के न्यायिक अधिकार भी थे। वे कुछ प्रकार के दीवानी मुकद्दमों का फैसला करती थी और फौजदारी के छोटे-छोटे मामलों में अपराधी को दंड दे सकती थी। कभी-कभी ये ग्रामसभाएँ सार्वजनिक दानों और ट्रस्टों की भी व्यवस्था करती थी। ऐसी स्थिति में दानदाता व्यक्ति किसी विरोध धार्मिक कार्य या पुण्य के लिये उक्त गाँव की भूमि को दान में दे देता था जिसकी आय से ग्राम सभा उक्त दान के उद्देश्य की पूर्ति करती रहती थी।

नाडु गाँव की एक बङी राजनीतिक इकाई था। इसकी सभा को भी नाडु कहा जाता था। और इसके सदस्यों को नात्तवर कहा जाता था। इसके अधिकार ग्रामसभा की ही भाँति होते थे परंतु इसका अधिकार क्षेत्र काफी बङा होता था। ये स्थानीय संस्थाएँ शासकीय नियंत्रण के बाहर नहीं होती थी। यदि वे नियमानुसार ग्राम की व्यवस्था नहीं कर पाती थी अथवा ग्राम के विभिन्न वर्गों के हितों को संरक्षण नहीं प्रदान कर पाती थी तो उन्हें दंडित किया जा सकता था।

विजयनगर युग में इन स्थानीय संस्थाओं का बङी तेजी से पतन हुआ और ये ग्राम सभाएँ, जो चोलयुग में बहुत शक्तिशाली स्थानीय संस्थाएँ थी, चोल साम्राज्य के पतन के बाद क्रमशः पतनोन्मुख होती गई। विजयनगर काल में इनकी जीवंतता लगभग बिल्कुल समाप्त हो गयी। किन्हीं विशेष कारणों एवं परिस्थितियोंवश इन स्थानीय संस्थाओं का पतन हुआ । विजयनगर सम्राटों ने आयगार-व्यवस्था द्वारा स्थानीय प्रदेशों के शासन की व्यवस्था प्रचलित की। इस आयगार-व्यवस्था ने स्थानीय स्वायत्तता और इन ग्रामीण गणतंत्रों के मुक्त जीवन का गला घोंट दिया।

आयगार व्यवस्था

नायंकार-व्यवस्था की भांति आयगार-व्यवस्था भी विजयनगर कालीन शासन व्यवस्था की एक बहुत महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। इस व्यवस्था के अनुसार प्रत्येक ग्राम को एक स्वतंत्र इकाई के रूप में संगठित किया जाता था और इस ग्रामीण शासकीय इकाई पर शासन के लिए बारह व्यक्तियों को नियुक्त किया जाता था। इस बारह शासकीय अधिकारियों के समूह को आयगार कहा जाता था। इन अधिकारियों की नियुक्ति सरकार द्वारा की जाती थी। अभिलेखों में इन आयगारों की नियुक्ति एवं इनके अधिकारों और कर्तव्यों का अनेक स्थानों पर उल्लेख है। इन आयगारों के पद आनुवांशिक होते थे। आयगार अपने पदों को बेच या गिरवी भी रख सकते थे। उन्हें वेतन के बदले लगान और करमुक्त भूमि भी प्रदान की जाती थी। आयगारों के काफी कठिन उत्तरदायित्व होते थे। अपने अधिकार क्षेत्र में शांति और सुरक्षा बनाए रखना उनका सर्वप्रमुख उत्तरदायित्व था। इन ग्रामीण अधिकारियों की बिना जानकारी के न तो संपत्ति को स्थानांनतरित किया जा सकता था और न ही दान दिया जा सकता था। भूमि की बिक्री केवल इन्हीं अधिकारियों की जानकारी से हो सकती थी। कर्णिक (एकाउंटेंट) नामक आयगार भूमि की खरीद या बिक्री की लिखा-पढी तथा तत्संबंधी दस्तावेजों को तैयार करता ता।

राजस्व प्रशासन

विजयगर कालीन राजस्व व्यवस्था एक बहुत व्यापक विषय है और इस संबंध में समकालीन अभिलेखों में असीमित जानकारी भरी पङी है। इसके अलावा विदेशी यात्रियों के विवरणों से भी हमें इस संबंध में काफी जानकारी प्राप्त होती है। विजयनगर काल में राज्य की आय के अनेक स्त्रोत थे, जैसे लगान, संपत्तिकर, व्यापारिक कर, व्यावसायिक कर, उद्योगों पर कर, सामाजिक और सामुदायिक कर और अर्थदंड से प्राप्त आय आदि। मध्यकालीन भारत के अन्य भागों की भाँति विजयनगर साम्राज्य में भी आय का सबसे बङा स्त्रोत लगान था।

भू-राजस्व व्यवस्था

विजयनगर काल में भू राजस्व एवं भू धारण व्यवस्था बहुत व्यापक थी और भूमि को अनेक श्रेणियों में विभाजित किया गया था। भूमि मुख्यतः सिंचाई युक्त या सूखी जमीन के रूप में वर्गीकृत की जाती थी। इस वर्गीकरण के बाद यह देखा जाता था कि इस भूमि का कोई अंश ब्राह्मणों या मंदिरों को तो दान में नहीं दिया गया है। इसके बाद भूमि विशेष में उगाई जाने वाली फसलों के आधार पर भी उनका वर्गीकरण किया जाता था। भूमि के वर्गीकरण के बाद गाँव में जुङे चरागाहों आदि की जाँच की जाती थी और चारागार पर चरवाही कर लगता था। लगान का निर्धारण भूमि की उत्पादकता और उसकी स्थिति के अनुसार किया जाता था। परंतु भूमि से होने वाली पैदावार और उसकी किस्म भू राजस्व के निर्धारण का सबसे बङा आधार थी। विजयनगर काल में पूरे साम्राज्य में न तो भूमि के पैमाइश की समान व्यवस्था थी और न लगान की दरें ही समान थी, जैसे ब्राह्मणों के स्वामित्व वाली भूमि से उपज का बीसवाँ भाग और मंदिरों की भूमि से उपज का तीसवाँ भाग लगान के रूप में लिया जाता था। इसी प्रकार भू-धारण के विभिन्न प्रकारों के लिये लगान की दरें भिन्न-भिन्न होती थी।

अन्य विविध कर – लगान के अलावा मकान, पशुओं, संपत्ति कर, औद्योगिक कर जैसे अनेक करों को राज्य द्वारा वसूल किया जाता था। समकालीन अर्थव्यवस्था से संबंधित ऐसा कोई वर्ग नहीं था जिसे व्यावसायिक कर न देने होते हों। इससे गङरिए, बढई, धोबी और नाई तक मुक्त नहीं थे। परंतु सोलहवीं शताब्दी के अंतिम चरण में नाइयों को व्यावसायिक कर से मुक्त कर दिया गया। इसके अतिरिक्त विभिन्न समुदायों से भी कर वसूल किए जाते थे, जैसे मनोरंजन करने वालों और व्यापारिक निगमों एवं श्रेणियों आदि से। सामाजिक और सामुदायिक करों में विवाह कर बहुत रोचक है। यह कर वैवाहिक समारोह के आयोजन के आकार और विवाह में खर्च किए जाने वाले धन पर निर्भर करता था। यह कर वर और कन्या दोनों पक्षों से वसूल किया जाता था पर यदि कोई व्यक्ति विधवा से विवाह करता था तो उससे और उसकी वधू दोनों से कर नहीं लिए जाते थे। विजयनगर नरेशों ने विधवा विवाह को विवाह कर से मुक्त करके इस प्रकार के विवाह को न केवल सामाजिक मान्यता प्रदान करने का प्रयास किया वरन विधवाओं की दयनीय स्थिति में सुधार लाने की चेष्टा की। विजयनगर कालीन राजस्व व्यवस्था की प्रायः यह आलोचना की जाती है कि इन विविध करों के द्वारा प्रजा पर करों का दुस्सह बोझ डाल दिया गया। परंतु इस संबंध में एक बात ध्यान देने योग्य है कि विजयनगर युग में साम्राज्य के सारे वर्गों की आर्थिक समृद्धि में आशातीत वृद्धि हुई। अतः राज्य द्वारा इस समृद्धि का कुछ अंश लेना स्वाभाविक था। इसके अलावा इस काल में करों की संख्या भले ही अधिक रही हो लेकिन करों की दरें अधिक नहीं थी। साथ ही विजयनगर नरेश आपातस्थिति में करों को माफ करने में भी बङे उदार थे और प्रजा की आर्थिक समृद्धि का उनके सम्मुख सबसे बङा उद्देश्य रहता था।

यदि हम विजयनगर कालीन राजतंत्र और शासन व्यवस्था पर एक नजर डाले तो ऐसा प्रतीत होता है कि विजयनगर नरेशों के सम्मुख अपनी प्रजा का कल्याण और उनकी समृद्धि का विकास उनके शासन का मूल मंत्र था। उन्होंने अपनी प्रजा के हितों का बलिदान करके राज्य के उद्देश्यों और हितों की पूर्ति नहीं की। उनके द्वारा प्रचलित कुछ प्रशासकीय संस्थाएँ, जैसे राजस्व व्यवस्था एवं आयगार व्यवस्था विजयनगर साम्राज्य के विनाश के बहुत बाद तक ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल तक स्थायी रही और कंपनी के अधिकारियों ने इस व्यवस्था को उपयोगी और लाभप्रद समझकर कुछ संशोधन करके क्रियान्वित किया। इससे समकालीन प्रशासकीय संस्थाओं के महत्व का मूल्यांकन किया जा सकता है।

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