इतिहासमध्यकालीन भारत

चोल-चालुक्य वंश का पतन कैसे हुआ?

चोल-चालुक्य वंश का पतन – विक्रम चोल (1122-1135ई.) – कुलोत्तुंग प्रथम की मृत्यु ही चोलों का बङी तीव्र गति से पतन प्रारंभ हो गया। उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र विक्रम चोल शासक बना। यह उसके शासनकाल में वेंगी का वायसराय एवं उसके शासन के अंतिम चार वर्षों में सहशासक रह चुका था। विक्रम अपने पिता की नीतियों एवं आदर्शों के बिल्कुल प्रतिकूल था। उसने पुराने मंदिरों को खूब दान दिया और नवीन मंदिरों के निर्माण में विशेष रुचि ली। जो प्रदेश चोल साम्राज्य से स्वतंत्र हो गए थे उनको पुनः विजित करने का निरर्थक प्रयास किया। इससे यह प्रतीत होता है, कि वह परंपरावादी चोल शासक था। 1128 ई. में उसने चिदंबरम् के नटराज मंदिर को अपार दान दिया। इसी वर्ष चोल प्रदेशों में भयंकर बाढ तथा उत्तरी एवं दक्षिणी अर्काट और चंजुवर आदि के प्रदेश भयंकर अकाल की चपेट में आए हुए थे। ग्रामीण अंचल की स्थिति इतनी दयनीय थी कि ग्रामों की साझे की जमीन बेचकर राज्य को लगान देने के अतिरिक्त ग्रामीण व्यक्तियों के पास और कोई चारा शेष नहीं रह गया थआ। अकाल एवं अभावों से ग्रस्त गरीब जनता से राजस्व वसूल करके विक्रम चोल चिदंबरम् के मंदिर का विस्तार उसके शिखर एवं परिवेष्टिनी का निर्माण तथा मंदिर के प्रदक्षिणा-पथ को शुद्ध स्वर्ण से मंडित करा रहा था। धार्मिक दृष्टि से भी वह अत्यधिक असहिष्णु था। उसने गोविंदराज मंदिर की प्राचीन वैष्णव मूर्ति को समुद्र में फिंकवा दिया। उसे आत्मप्रशंसा के लिये साम्राज्य के विभिन्न भागों में दौरे का शौक था। इसके लिए उसने साम्राज्य के विभिन्न नगरों में राजप्रासाद निर्मित कराए थे। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि विक्रम चोल की नीतियों एवं कार्यों ने चोल साम्राज्य के पतन की भूमिका के निर्माण का कार्य किया।

कुलोत्तुंग द्वितीय (1135-1150 ई.) – विक्रम चोल का पुत्र कुलोत्तुंग द्वितीय अपने पिता के विचारों का ही अनुकर्त्ता था। विक्रम चोल ने चिदंबरम के मंदिर के विस्तार एवं प्रदक्षिणापथ को स्वर्ण से मंडित कराने के जिस कार्य को प्रारंभ किया था, उसे वह पूर्ण कराता रहा। उसके विषय में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वह धार्मिक दृष्टि से भी अपने पिता की भाँति ही असहिष्णु था।

इस बीच चोल सामंत शासकों ने अपनी स्वतंत्रता के लिये पहले से ही प्रयास आरंभ कर दिए थे। प्रस्तुत परिस्थितियाँ उनके इन प्रयासों के लिये सर्वथा अनुकूल थी किंतु परवर्ती चोल शासकों ने साम्राज्य की पतनोन्मुख स्थिति के प्रति कोई भी चिंता या चेतावनी अनुभव नहीं की।

अन्य चोल शासक

कुलोत्तुंग द्वितीय के बाद क्रमशः राजराज द्वितीय (1150-1173 ई.), राजाधिराज द्वितीय (1173-82 ई.), कुलोत्तुंग तृतीय (1182-1217 ई.), राजराज तृतीय (1216-1250ई.) और राजेन्द्र तृतीय (1250-1279ई.) चोल शासक हुए। इन परवर्ती चोल शासकों के शासनकाल में चोलों के सामंत शासक स्वतंत्रता का अधिग्रहण करने लगे। साथ ही पतनोन्मुख चोल साम्राज्य की स्थिति का लाभ उठाकर नवीन राजवंशों का भी उदय होने लगा। इस युग में सबसे विषम स्थिति मदुरा के पांड्य प्रदेश में उत्पन्न हुई। 1169 ई. में दो पांड्य बंधुओं में पराक्रम पांड्य एवं कुलशेखर पांड्य के मध्य गृहयुद्ध प्रारंभ हो गया। पराक्रम ने श्रीलंका के शासक पराक्रमबाहु से सहायता की याचना की परंतु सिंहली सहायता प्राप्त होने से पूर्व ही कुलशेखर ने पराक्रम एवं उसके परिवार की हत्या कर डाली। इसी बीच सिंहली सेनाओं ने आकर पांड्य प्रदेशों में भयंकर संहार किया। ऐसी स्थिति में चोल नरेश राजराज द्वितीय को कुलशेखर की ओर से हस्तक्षेप करना पङा। चोलों ने कुलशेखर को पांड्य सिंहासन पर आरूढ करके श्रीलंका पर आक्रमण कर दिया। अब पराक्रमबाहु ने कुलशेखर का पक्ष लेना प्रारंभ कर दिया। परिणामस्वरूप कुलशेखर चोलों का विरोधी हो गया। इसके जवाब में चोलों ने पराक्रम पांड्य के पुत्र वीर पांड्य को संरक्षण प्रदान करके उसे सिंहासनारूढ कर दिया। राजराज द्वितीय के शासन के बाद भी यह इंद्रधनुषी राजनीति चलती रही। यद्यपि वीर पांड्य को चोलों ने सिंहासनारूढ किया था, तथापि कुलोत्तुंग तृतीय के शासनकाल में उसने श्रीलंका के साथ गठबंधन कर लिया और चोल विरोधी हो गया। परिणामस्वरूप कुलोत्तुंग तृतीय ने 1182 ई. के आसपास वीर पांड्य को सिंहासनच्युत करके कुलशेखर के एक संबंधी विक्रम पांड्य को सिंहासनारूढ किया। इस पर वीर पांड्य ने केरल नरेश से सहायता लेकर चोलों के विरुद्ध संघर्ष प्रारंभ कर दिया। इसी बीच श्रीलंका के शासक निशकमल्ल ने तीन बार पांड्य प्रदेशों पर आक्रमण किया और संभवतः रामेश्वरम् पर भी अधिकार कर लिया। 1025 ई. के बाद कुलोत्तुंग ने पांड्यों के विरुद्ध तीसरी बार पुनः सैनिक अभियान भेजा और चोल सेनाओं ने मदुरा के अभिषेक मंडप एवं कुछ पांड्य प्रदेशों को नष्ट-भ्रष्ट किया। इसके साथ ही चोल सेनाओं ने केरल पर भी आक्रमण कर दिया। पांड्यों के प्रति कुलोत्तुंग की यह कठोर नीति चोल साम्राज्य के लिये बङी घातक सिद्ध हुई। उक्त अभियान के कुछ वर्ष बाद 1216 ई. में सुंदर पांड्य ने प्रतिशोध में चोल साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। आक्रामक पांड्य सेनाएँ चिदंबरम् तक पहुँची और चोल प्रदेशों में जन संपत्ति का भयंकर विनाश किया। कुलोत्तुंग इन पांड्य आक्रमणों का सफल विरोध नहीं कर सका। अंततः 1216-17ई. में पांड्य स्वतंत्र हो गए और चोलों को अपनी शक्तिहीनता के कारण विवशतावश उसकी स्वतंत्रता स्वीकार करनी पङी।

इस बीच चोल साम्राज्य के बाहर भी तीव्र गति से राजनीतिक परिवर्तन हो रहे थे। कल्याणी के पश्चिमी चालुक्यों का पतन होना प्रारंभ हो गया था और उनके साम्राज्य के तीन ओर तीन प्रसिद्ध राजवंशों – उत्तर में देवगिरि के यादव, पूर्व में वारंगल के काकतीय और दक्षिण में द्वारसमुद्र के होयसल वंश का उदय हो रहा था। सुदूर दक्षिण में चोल शक्ति पूर्णतः पतनोन्मुख हो गई थी और उनका स्थान मदुरा के पांड्यों ने ले लिया था। दक्षिण भारत पर खिलजी आक्रमण के समय पश्चिमी चालुक्य, पूर्वी चालुक्य एवं चोल वंश आदि इतिहास के अंधकार में विलीन हो चुके थे।

Related Articles

error: Content is protected !!