इतिहासमध्यकालीन भारत

राजपूतों की उत्पत्ति कैसे हुई?

राजपूतों की उत्पत्ति – सन् 750-1200 के बीच का समय भारतीय इतिहास में अनेक राजवंशों के उत्थान और पतन का काल रहा है। इन राजवंशों में गुर्जर-प्रतिहार, चौहान, परमार, चालुक्य, चंदेल, गहङवाल, गुहिल, तोमर आदि अधिकांश वंश राजपूत माने जाते हैं। राजपूतों की उत्पत्ति संबंधी ऐतिहासिक साक्ष्य पर विचार करते हुए कुछ मूल लक्ष्यों को ध्यान में रखना आवश्यक है :

  • विदेशी इतिहासकारों की धारणा
  • भारतीय इतिहासकारों के विभिन्न मत
  • जातियों के उत्कर्ष और अपकर्ष के पारंपरिक सिद्धांत का व्यावहारिक रूप
  • राजनीतिक शक्तियों के उदय की जनजातीय पृष्ठभूमि
  • क्षेत्र विशेष में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन तथा विकास की भूमिका।

यूरोप के अनेक इतिहासकारों ने राजपूतों को विदेशी मूल का प्रमाणित करने का प्रयास किया है। किसी हद तक इस प्रयास का प्रच्छन्न मंतव्य भारत में विदेशियों के शासन की परंपरा को पुष्ट करना भी हो सकता है। कर्नल टाड ने राजपूतों को शक, कुषाण तथा हूण आदि विदेशी शासकों के वंशजों से संबंधित माना है। टाड का तर्क है कि अश्वमेघ यज्ञ, अश्व तथा शस्त्र पूजा, स्त्रियों की सामाजिक स्थिति आदि में इन विदेशियों तथा राजपूतों में समानता के पर्याप्त तत्व मौजूद थे। विलियम क्रुक तथा वी.स्मिथ के अनुसार भी राजपूत वंशों की उत्पत्ति हूण आदि विदेशी जातियों से संबंधित है, विशेष रूप से गुर्जर लोग हूणों के समय में ही भारत आए थे और इनमें से कुछ परिवार राजपूत क्षत्रिय के रूप में भारतीय समाज में समाहित हो गए। कालांतर में उन्होंने प्राचीन भारतीय परंपरा के चंद्रवंशी तथा सूर्यवंशी क्षत्रियों से अपना संबंध स्थापित किया। क्रुक का मत टाड तथा स्मिथ के मत से मिलता जुलता है। स्मिथ की यह मान्यता भी है कि निचले सामाजिक दर्जे के क्षत्रिय, राजपूत शासकों के रूप में स्थापित हो गए थे।

भारतीय इतिहासकारों में ईश्वरी प्रसाद तथा डी.आर.भंडारकर यह मानते हैं कि भारतीय समाज में विदेशी मूल के लोगों के सम्मिलित होने से राजपूतों की उत्पत्ति हुई। भंडारकर ने एक सिक्के पर अंकित श्री वासुदेव बहमन के आधार पर तथा अन्य अनेक तर्कों के साथ चौहानों (चाहमानों) को खजर नामक विदेशी जाति के पुरोहित वर्ग का माना है।

इन इतिहासकारों के मत का विरोध करते हुए गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने राजपूतों को प्राचीन क्षत्रियों का वंशज प्रमाणित करने का प्रयास किया है। टाड के तर्क का खंडन करते हुए उन्होंने कहा है कि इस प्रकार के रीति-रिवाज विदेशियों में प्रचलित थे और विदेशी शासक वर्ग ने इन्हें क्षत्रियों से ग्रहण किया। ओझा का मत है कि राजपूत अपनी जातिगत विशिष्टताओं तथा शारीरिक संरचना में भी प्राचीन क्षत्रियों की संतान प्रतीत होते हैं।

जो विदेशी जातियाँ भारत आई थी वे क्षत्रियों तथा राजपूतों के समान ही युद्धप्रिय और लङाकू जातियाँ थी। शस्त्र और अश्व का महत्त्व तथा स्त्रियों की विशेष सामाजिक स्थिति इन सभी में एक दूसरे के प्रभाव के बिना भी स्वतंत्र रूप से विद्यमान हो सकती है। इसलिए राजपूतों को विदेशी मूल का मानने के लिये इस रीति-रिवाजों के प्रभाव का तर्क कोई ठोस आधार प्रस्तुत नहीं कर पाता है। किंतु ऐतिहासिक साक्ष्यों (विशेष रूप से अभिलेखों) से हमें हूण जाति के शासकों के राजपूत जाति में परिवर्तित होने के यथेष्ट प्रमाम मिलते हैं। उदाहरण के लिए, बनाफर राजपूतों में बनस्फर तथा तोमर राजपूतों को हूण तोरमाण से जोङा जाता है। ब्राह्मणों में खाकलद्वीपी ब्राह्मण ईरान के मग पुरोहितों को हूण तोरमाण से जोङा जाता है। ब्राह्मणों में शाकलद्वीपी ब्राह्मण ईरान के मग पुरोहितों की ही संतति हैं। इन उदाहरणों से सिद्ध हो जाता है कि सभी राजपूत वंशों को विदेशी मूल का घोषित करना नितांत भ्रामक बात है।

राजपूतों की उत्पत्ति की समस्या के मूल में प्राचीन भारतीय वर्ण व्यवस्था का मानदंड किसी न किसी रूप में निहित है। इसी कारण से शास्त्रों की व्यवस्था के अंतर्गत हम पाते हैं कि क्षत्रिय जाति को ही राजसत्ता का अधिकारी माना गया है। यहाँ ध्यान देने की बात यह भी है कि ब्राह्मण या पुरोहित ही इस व्यवस्था के कट्टर समर्थक थे। किंतु लोक व्यवहार में किसी भी जाति का योग्य व्यक्ति राजनीतिक सत्ता संगठित कर सकता था या शासन का अधिकारी बन सकता था। महापद्मनंद, चंद्रगुप्त मौर्य, पुष्यमित्र शुंग आदि प्राचीन काल से ही ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। मनु या याज्ञवल्लक्य तथा इनके अनेक भाष्यकारों ने जात्युपकर्ष (निम्न जाति से ऊँची जाति में उठना) तथा जात्यपकर्ष (ऊँची जाति से निम्न जाति में गिरना) को जो पुनर्जन्म से संबद्ध किया है, उसके मूल में सामाजिक कट्टरता से अधिक परंपरित समाज को दृढता प्रदान करने की भावना निहित थी। दो चार पीढी के अंतर में ही किसी परिवार विशेष के उच्च या निम्न जाति में परिवर्तित होने की सामाजिक प्रक्रिया से ये सामाजिक व्यवस्थाकार अनभिज्ञ नहीं हो सकते। ऐसे परिवर्तन चाहे अपवाद स्वरूप ही होते हों किंतु आर्थिक, राजनीतिक दशा बदलने के साथ ही देशांतर गमन के कारण इस प्रकार के सामाजिक परिवर्तन के अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं। किसी राजवंश को क्षत्रिय या ब्राह्मण से उद्भूत प्रमाणित करने के लिये निर्मित कथाओं का उद्देश्य उस वंश को सामाजिक गौरव प्रदान करना तो था ही, साथ ही उनमें भारतीय संस्कृति की रक्षा की भी उपेक्षा होती थी। कुछ पुराकथाओं (मिथकों) में तो यह तत्व विशेष रूप से स्पष्ट है।

हिंदी के प्रसिद्ध कवि चंदबरदाई सहित अनेक अन्य कवियों तथा लेखकों ने अग्निकुल का मिथक प्रस्तुत किया है। इस पुराकथा के अनुसार आबू पर्वत पर विश्वामित्र, गौतम तथा अगस्त्य आदि के यज्ञों की दैत्यों से सुरक्षा के लिये वशिष्ठ मुनि ने प्रतिहार, चालुक्य, परमार तथा अंत में चौहान (चाहमान) को अग्निकुंड से उत्पन्न किया। टाड, स्मिथ, भंडारकर आदि इतिहासकारों ने इस मिथकीय धारणा को विदेशी शासक वर्ग को राजपूत जाति में परिवर्तित करने की प्रक्रिया का अंग माना है। इस मिथक में इतनी सत्यता अवश्य है कि यज्ञ या धर्म की रक्षा क्षत्रिय या राजपूत शासकों द्वारा ही संभव मानी गई है। यह भी सच है कि इन चार वंशों को ही वैदिक समाज, विशेषकर ब्राह्मण वर्ग ने विधिवत क्षत्रिय शासक स्वीकार किया है। इस मिथक से इनकी मूल उत्पत्ति का ज्ञान ही नहीं होता, वरन इन वंशों का वैदिक मूल के क्षत्रिय होना असंदिग्ध प्रतीत होता है हालाँकि प्रशस्तिकारों तथा तत्कालीन इतिहासकारों ने इस दिशा में भी उल्लेखनीय प्रयास किए हैं। रत्नपाल के सेवाङी ताम्रपत्र में चौहानों की उत्पत्ति इंद्र से बताई गई है। चौहान गोत्राचार में उन्हें सोमवंशी (चंद्रवंशी) और पृथ्वीराज विजय, हम्मीर रासो तथा पृथ्वीराज तृतीय के बेदल अभिलेख में चौहानों को सूर्यवंशी क्षत्रिय घोषित किया गया है। इस विवेचन से स्पष्ट है कि ये विभिन्न मत एक दूसरे की प्रामाणिकता पर प्रश्नचिह्न लगा देते हैं। डॉ. शर्मा का यह तर्क काफी हद तक विश्वसनीय है कि चौहानों को हिंदू धर्म के लिए संघर्ष करने के कारण क्षत्रिय माना गया है।

यहाँ अग्निकुल मिथक के संदर्भ में रामायण तथा महाभारत में प्राप्त इसी से मिलती-जुलती कथा का उल्लेख करना उचित प्रतीत होता है। इस कथा के अनुसार क्षत्रिय शक्ति के प्रतीक विश्वामित्र द्वारा वशिष्ठ की गाय नंदिनी के बलात हरण का प्रतिरोध करने के लिये नंदिनी के विभिन्न अंगों से पल्लव (पह्लव), द्रविङ, शक, यवन, शबर, सिंहल, रक्स, पुलिंद , चीन, हूण आदि भारतीय तथा विदेशी जाति के सैनिक उत्पन्न हुए। इस मिथक में ब्राह्मण क्षत्रिय मानने के बजाय उन्हें क्षत्रिय शक्ति के विरुद्ध प्रस्तुत किया गया है। मनु ने शक, यवन, लिच्छवि, मल्ल, द्रविङ चीन आदि अनेक जातियों को मूल रूप से क्षत्रिय, किंतु शूद्र स्तर का माना है। इस शास्त्रीय व्यवस्था तथा परंपरा को हम अग्निकुल मिथक पर आरोपित न भी करें, तो भी यह ऐतिहासिक तथ्य स्पष्ट है कि विदेशी या भारतीय मूल के लोगों का विशिष्ट सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक स्तर पर जात्युपकर्ष (ऊँची जाति में प्रविष्ट होना) तथा जात्यपकर्ष (निम्न जाति में समाहित होना) के अनेक उदाहरण मिलते हैं। वैदिक परंपरा के प्रसिद्ध क्षत्रियों में अठारह राज्यों को विनष्ट करने वाले महापद्ममानंद निम्न जाति के सम्राट थे। बौद्ध परंपरा में क्षत्रिय होने पर भी (ब्राह्मण ग्रंथों में) मौर्यों को वैदिक क्षत्रिय नहीं माना गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि परवर्ती कालों में भारी संघर्ष के बाद शुंग, कण्व, सातवाहन, कदंब आदि ब्राह्मण जातियों ने शासन स्थापित किया था। कदंब वंशीय मयूर शर्मन की संतान दो सौ तेरह पीढियों के बाद वर्मन नाम धारण करके जात्यापकर्ष का स्पष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती है। इन सभी शासक वंशों के अतिरिक्त वाकाटक, गुप्त तथा हर्ष प्राचीन वैदिक मूल के क्षत्रिय शासन की परंपरा बिल्कुल ही भंग कर चुके थे, हालाँकि इस मूल के क्षत्रिय सामान्य या विशिष्ट रूप से समाज में अवश्य विद्यमान थे।

इस काल के प्रमुख राजवंशों की उत्पत्ति से संबंधित अनेक ऐतिहासिक साक्ष्यों को प्रस्तुत किया जा सकता है।

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