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रणजीत सिंह एक विजेता,राजनीतिज्ञ, साम्राज्य निर्माता एवं प्रशासक के रूप में

रणजीत सिंह

रणजीत सिंह का इतिहास (ranajeet sinh ka itihaas)

रणजीत सिंह का प्रारंभिक जीवन – रणजीत सिंह का जन्म 13 नवम्बर, 1780 ई. को हुआ। उनके पिता महासिंह सिक्खों की सुकरचकिया मिसल के नेता थे। इकलौती संतान और लाङ-प्यार में पलने के कारण रणजीत सिंह की शिक्षा की ओर ध्यान नहीं दिया गया, लेकिन घुङ-सवारी, युद्ध कला और हथियार चलाने में वह प्रवीण हो गया।

रणजीत सिंह

जब रणजीत सिंह केवल 12 वर्ष का था, तो उसके पिता का देहान्त हो गया। उसकी माता ने रणजीत सिंह को गद्दी पर बैठा दिया और संरक्षिका के रूप में स्वयं ने शासन की बागडोर अपने हातों में ले ली। 16 वर्ष की आयु में उसका विवाह मेहताबकौर नामक कन्या से हुआ। 17 वर्ष की आयु में उसने स्वतंत्रतापूर्वक शासन करना शुरू कर दिया।

रणजीत सिंह एवं पंजाब

रणजीत सिंह एक विजेता के रूप में

रणजीत सिंह एक बहुत महत्वाकांक्षी शासक था। वह विजयें प्राप्त करके अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए बहुत इच्छुक था। उसकी सैनिक शक्ति बहुत सीमित थी और उसके छोटे से राज्य के साधन भी बहुत कम थे, किन्तु इन सब कमियों की चिन्ता न करते हुए उसने साहस, पराक्रम और कूटनीतिज्ञता के बल पर लगभग 19 वर्ष की आयु में अपना विजय अभियान प्रारंभ कर दिया।

लाहौर की विजय

अहमदशाह के पोते जमानशाह ने लाहौर सहित पंजाब के एक बङे भाग पर अधिकार जमा लिया था। जब वह अपना अंतिम आक्रमण करके वापिस लौट रहा था, तब उसकी बहुत सी तोपें दलदल में फँस गयी। काबुल में विद्रोह हो जाने के कारण उसे बिना तोपों के वहाँ से लौट जाना पङा। रणजीत सिंह ने वे तोपें निकालकर काबुल भिजवा दी। जमानशाह ने प्रसन्न होकर रणजीतसिंह को लाहौर का शासक नियुक्त कर दिया और उसे राजा की उपाधि प्रदान की। रणजीत सिंह ने लाहौर पर आक्रमण किया और 7 जुलाई, 1799 को लाहौर पर अधिकार कर लिया।

सिख मिसलों पर विजय

अब रणजीतसिंह ने छोटी-छोटी सिख मिसलों की ओर ध्यान दिया। वह मेरोबल और नरबल को अधिकार में करते हुए जम्मू जा पहुँचा, जिसके शासक ने रणजीत सिंह की अधीनता स्वीकार कर ली। इसके बाद रणजीत सिंह ने अकलगढ, कसूर, गुजरात, झंग, मुल्तान आदि पर भी अधिकार कर लिया। 1805 में उसने पवित्र नगर अमृतसर को जीत लिया।

सतलज पार के प्रदेशों पर अधिकार

इन सभी विजयों से उत्साहित होकर रणजीत सिंह ने सतलज नदी के पार के प्रदेशों की ओर ध्यान दिया। जब नाभा के राजा का पटियाला के राजा से झगङा हो गया, तो नाभा के राजा की सहायतार्थ रणजीत सिंह पटियाला एक सेना पहुँच गया। पटियाला के राजा ने पराजित होकर रणजीत सिंह के निर्णय को स्वीकार कर लिया। नाभा आदि सिक्ख रियासतों ने भी रणजीत सिंह की अधीनता स्वीकार कर ली।

1807 में रणजीत सिंह ने अम्बाला, थानेश्वर, नारायणगढ, फिरोजपुर आदि पर विजय प्राप्त की। इस समय ईस्ट इंडिया कंपनी ने देशी राज्यों के मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति अपनायी हुई थी। अतः रणजीत सिंह ने इस अवसर का पूरा लाभ उठाया।

अंग्रेजों के साथ अमृतसर की संधि (1809ई.)

रणजीतसिंह का बढता हुआ प्रभाव और साम्राज्य विस्तार, विशेषतया सतलज के पार देखकर अंग्रेज बहुत चिन्तित हुए। उन्होंने अनुभव किया, यदि इस महत्वाकांक्षी और साहसी राजा को नियंत्रित नहीं किया गया तो उनके भारतीय साम्राज्य को बङा आघात लग सकता है। कंपनी ने रणजीत सिंह से युद्ध करने के बजाय वार्ताओं का मार्ग चुना।

कंपनी की ओर से सर चार्ल्स मेटकाफ को रणजीत सिंह से वार्ता के लिये भेजा गया तथा साथ ही सतलज नदी के पास एक शक्तिशाली सेना का जमाव भी कर दिया, जिससे रणजीत सिंह पर दबाव पङे।रणजीत सिंह ने अंग्रेजों जैसी संगठित शक्ति से टक्कर लेना उचित नहीं समझा। अतः 25 अप्रैल, 1809 को दोनों पक्षों में संधि हो गयी, जो अमृतसर की संधि के नाम से विख्यात है।

अमृतसर की संधि की शर्तें

  • सतलज नदी रणजीत सिंह के राज्य की दक्षिण सीमा मान ली गयी।
  • रणजीत सिंह ने सतलज नदी के पूर्व में स्थित राज्यों में हस्तक्षेप न करने का वचन दिया।
  • सतलज के दक्षिण-पूर्व की ओर के सिक्ख राज्य अंग्रेजों के संरक्षण व प्रभाव में माने गये।
  • अंग्रेजों ने सतलज के उत्तर की ओर हस्तक्षेप न करने का वचन दिया।
  • लुधियाना में अंग्रेजी सेनायें रखी गयी।
  • दोनों पक्षों ने एक-दूसरे से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाये रखने का वचन दिया।

अमृतसर की संधि का महत्त्व

अमृतसर की संधि के द्वारा एक ओर तो ब्रिटिश साम्राज्य की सीमा सतलज नदी के पास तक पहुँच गयी और दूसरी ओर समस्त सिक्ख राज्यों को अपने अधीन संगठित करने की रणजीत सिंह की इच्छा समाप्त हो गयी। वास्तव में अमृतसर की संधि, एक प्रकार से रणजीतसिंह की पराजय थी, पर उसके लिए इसे स्वीकार करने के अलावा अन्य कोई रास्ता नहीं था।

यदि रणजीत सिंह यह संधि नहीं करता तो उसे अपने से कहीं अधिक शक्तिशाली अंग्रेजों से टक्कर लेनी पङती। रणजीत सिंह ने देख लिया था कि उससे कई गुना शक्तिशाली मैसूर, निजाम और विभिन्न मराठा सरदारों को अंग्रेज हरा चुके थे। यदि वह अंग्रेजों से भिङ पङता तो संभवतः उसे भी अपने राज्य से हाथ धोना पङता।

अतः उसने अंग्रेजों से मित्रता रखना ही उचित समझा। लेकिन रणजीत सिंह ने न तो सहायक संधि को स्वीकार किया और न ही अंग्रेजों के संरक्षण में गया।

अन्य विजयें

जब पूर्व की ओर रणजीत सिंह के साम्राज्य-विस्तार पर अमृतसर की संधि ने रोक लगा दी, तो उसने उत्तर-पश्चिम की ओर बढने का निश्चय किया, क्योंकि इस देशा में अंग्रेजों से उसका टकराव होने की कोी संभावना नहीं थी। मुल्तान पर पाँच बार आक्रमण करने के बाद उसने उसे 1818 में जीत लिया। मुल्तान की विजय से रणजीत सिंह की शक्ति, आय और प्रतिष्ठा बहुत बढ गयी।

1809 में रणजीत सिंह ने कांगङा के राजा संसार चंद्र को पराजित कर कांगडा पर अधिकार कर लिया। 1813 में रणजीत सिंह ने कूटनीति से काम लेते हुए अटक पर भी अधिकार कर लिया। 1819 में रणजीत सिंह की सेना ने कश्मीर पर आक्रमण किया। यद्यपि कश्मीर के अफगान शासक ने सिक्खों का वीरतापूर्वक मुकाबला किया परंतु उसे पराजित होना पङा और कश्मीर पर भी रणजीतसिंह का अधिकार हो गया। 1820-21 में रणजीतसिंह की सेना ने डेरा इस्माइल खां तथा डेरा गाजी खां पर भी अधिकार कर लिया।

1823 में रणजीत सिंह की सेना ने पेशावर पर आक्रमण किया। यद्यपि अफगानों ने रणजीतसिंह की सेना का कङा मुकाबला किया, परंतु उन्हें पराजय का मुंह देखना पङा। 1834 में पेशावर को सिक्ख-साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया। 1836 में सिक्ख सेना ने लद्दाख पर आक्रमण किया और लद्दाखी सेना को पराजित कर लद्दाख पर अधिकार कर लिया।

रणजीत सिंह की मृत्यु

सन 1839 में 59 वर्ष की आयु में रणजीत सिंह की मृत्यु हो गयी। विरासत में वह एक विशाल और संगठित साम्राज्य अपने उत्तराधिकारी के लिए छोङ गया। यह साम्राज्य सतलज नदी से खैबर के दर्रे तथा सिन्धु नदी से आगे तक फैला हुआ था। उसके साम्राज्य में कश्मीर भी शामिल था।

रणजीत सिंह एक प्रशासक के रूप में

रणजीत सिंह एक महान विजेता ही नहीं था वरन वह उच्च कोटि का एक कुशल प्रशासक भी था। अनेक युद्धों में व्यस्त रहते हुए भी उसने अपने शासन प्रबंध की ओर समुचित ध्यान दिया। रणजीत सिंह के शासन प्रबंध को हम निम्नलिखित बिन्दुओं से समझ सकते हैं-

केन्द्रीय शासन – 1.) राजा – रणजीत सिंह अन्य तत्कालीन शासकों की भाँति एक निरंकुश शासक था, जिसकी शक्तियों पर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं था। रणजीत सिंह के उत्कर्ष से पहले सिक्खों की विभिन्न मिसलें थी, जो लगभग पूर्ण रूप से स्वतंत्र थी और प्रायः आपस में लङा सकती थी। रणजीत सिंह ने इन मिसलों को अपनी अधीनता में संगठित किया और इन्हें इतना शक्तिहीन बना दिया कि वे उसको चुनौती देने का साहस कभी नहीं कर सकी। वह अपने राज्य का सर्वोच्च सेनापति और प्रधान न्यायाधीश था।

रणजीत सिंह निरंकुश शासक तो अवश्य था, किन्तु उसने अपनी प्रजा पर कभी अत्याचार नहीं किया और सदैव उसकी भलाई का ध्यान रखा। असीमित और अनियंत्रित शक्तियों का स्वामी होते हुए भी उसने उसका कभी दुरुपयोग नहीं किया। उसने सदैव अपने को जनता का सेवक समझा था।

2.) मंत्री – रणजीत सिंह का शासन मुगल शासन पद्धति पर आधारित था। उसने राज-कार्य में सहायता देने के लिए अनेक मंत्री नियुक्त कर रखे थे। लेकिन वह इन मंत्रियों का परामर्श मानने के लिए बाध्य नहीं था, यद्यपि वह प्रायः उनकी उपेक्षा भी नहीं करता था। उसके बुद्धिमान और चतुर मंत्रियों में दीवान ध्यानसिंह (प्रधान मंत्री), फकीर अजीजुद्दीन (विदेश मंत्री), और भवानीदास (वित्त मंत्री) थे। रणजीत सिंह ने अपने शासन को 12 विभागों में बाँट रखा था, जो साम्राज्य के विविध कार्यों की देखरेख करते थे।

प्रांतीय एवं स्थानीय शासन

रणजीत सिंह का साम्राज्य चार प्रांतों में विभाजित था – लाहौर, मुल्तान, पेशावर और कश्मीर। इन प्रांतों के शासक नाजिम कहलाते थे, जो राजा के विश्वासपात्र व्यक्ति होते थे। प्रांत कई जिलों या परगनों में विभाजित होते थे, जिनके प्रशासक कारदार कहलाते थे। परगने तालुकों (तहसील) में और तालुके मौजों, कस्बों या हल्कों में विभाजित थे। एक मौजे में अनेक ग्राम होते थे। गाँव प्रशासन की सबसे अधिक छोटी इकाई थी।

कारदार, नाजिम की सहायता करते थे तथा किसानों से लगान व माल-गुजारी वसूल करते थे। किसानों से उनकी पैदावार का 1/3 से 1/2 भाग तक कृषि भूमि की उर्वरता के आधार पर वसूल किया जाता था। कारदारों की सहायता के लिए मुकद्दम, कानूनगो और पटवारी होते थे, जिन्हें वेतन के अलावा लगान का पाँच प्रतिशत कमीशन के रूप में भी मिलता था, जिससे उनमें भ्रष्टाचार नहीं पनपे। अन्य करों से भी पर्याप्त राजकीय आय होती थी।

गाँवों में पंचायतें थी। गाँव के साधारण मामलों में सरकारी हस्तक्षेप नहीं होता था और स्थानीय पदाधिकारी अपने कार्यों को स्वयं अपनी योग्यतानुसार करने के लिए स्वतंत्र थे। आवागमन के साधन विकसित न होने के कारण केन्द्रीय नियंत्रण अत्यंत सीमित था, किन्तु शांति, सुरक्षा और व्यवस्था का पूर्णतः ध्यान रखा जाता था।

राजस्व प्रबंध

रणजीत सिंह की आय का सबसे मुख्य साधन भूमिकर था। भूमिकर वर्ष में दो बार रबी और खरीफ फसलों के अवसर पर लिया जाता था। किसानों से उनकी उपज का 1/3 से 1/2 भाग तक कृषि भूमि की उर्वरता के आधार पर वसूल किया जाता था। कारदार, मुकद्दम, चौधरी आदि भूमिकर इकट्ठा करने वाले कर्मचारी होते थे। संकट के समय किसानों को आर्थिक सहायता दी जाती थी। रणजीत सिंह ने काश्मीर में अकाल-पीङितों के लिए अनाज भिजवाया था। भूमिकर के अलावा चुँगी कर, नमक-कर, उपहार, न्ययालय शुल्क, जुर्माने, व्यवसाय कर आदि भी प्रमुख कर थे।

न्याय व्यवस्था

शासन का निरंकुश स्वरूप होने के साथ-साथ न्याय व्यवस्था भी निरंकुश थी। न्याय के लिए कोई लिखित कानून और दंड व्यवस्था नहीं थी। जनता के विभिन्न वर्गों में प्रचलित रीति-रिवाजों का न्याय करते समय बहुत ध्यान रखा जाता था, जिससे प्रजा संतुष्ट रहती थी। प्रांतों के न्यायालयों में नाजिम और जिलों में कारदार न्यायाधीश होते थे। राज्यों के सर्वोच्च न्यायालय का नाम अदालत आला था, जो लाहौर में स्थित थी और जिसका सर्वोच्च न्यायाधीश स्वयं राजा था। कारदारों व नाजिमों के फैसलों के विरुद्ध अदालत आला में ही अपीलें सुनी जाती थी।

दंड विधान – अन्य भारतीय राज्यों की भाँति रणजीत सिंह का दंड विधान भी कठोर था। जुर्माने प्रायः छोटे अपराधों के लिए भी लिए जाते थे, लेकिन अंग-भंग अन्य अपराधों का दंड था। मृत्यु दंड केवल राजा ही दे सकता था। भ्रष्टाचार के लिए कठोर दंड दिया जाता था। गाँवों के झगङे वहाँ की पंचायतें ही सुलझा लेती थी।
रणजीत सिंह अपने राज्य के उच्च अधिकारियों को राज्य के विभिन्न भागों का दौरा करने के लिए भेजा करता था, जिससे भ्रष्टाचार न पनपे और जनता की शिकायतें दूर कर सकें। शासन और न्याय के मामलों में रणजीत सिंह पक्षपातहीनता का समर्थक था।

सैनिक प्रबंध

रणजीत सिंह स्वयं अत्यंत साहसी, अनुभवी और योग्य सेनानी था। उसकी सैनिक व्यवस्था उच्चकोटि की थी। अपनी सैनिक योग्यता और कुशलता के बल पर ही वह विभिन्न सिक्ख मिसलों का दमन कर विशाल साम्राज्य का निर्माण करने में सफल रहा।

सेना के भाग

रणजीत सिंह की सेना के दो प्रमुख भाग थे – फौज-ए-आम तथा फौज-ए- खास । ये भी तीन भागों में विभक्त थी – पैदल, घुङसवार और तोपखाना। ये तीनों ही भाग यूरोपीय सैनिक विशेषज्ञों द्वारा प्रशिक्षित थे। घुङसवार सेना का सिक्खों में पहले से ही बहुत महत्त्व था, लेकिन रणजीत सिंह ने अंग्रेजों से संघर्ष की संभावना को देखते हुए अपनी पैदल सेना और तोपखाने पर भी विशेष ध्यान दिया। पैदल सेना को यूरोपीय पद्धति पर गठित किया गया।

फ्रांसीसी सेनापति जनरल वेंचुरा ने इसे प्रशिक्षित किया। पैदल सेना में नियमित ड्रिल तथा परेड का प्रचलन किया गया। सैनिकों को नकद वेतन दिया जाता था। जनरल एलार्ड ने घुङसवार सेना को प्रशिक्षित किया। रणजीत सिंह ने एक शक्तिशाली तोपखाने की स्थापना की।

जनरल कोर्ट तथा गार्डनर के नेतृत्व में तोपखाने को यूरोपीय पद्धति पर संगठित किया गया। भारी तोपें बनाने के लिए अमृतसर तथा लाहौर में विशेष कारखाने खोले गए। फौज-ए-खास का संगठन योग्य फ्रांसीसी विशेषज्ञों द्वारा किया गया था, जिससे यह सेना अपनी कुशलता और अनुशासन के कारण अत्यंत उच्चकोटि की हो गयी थी। कनिंघम ने इस सेना को विश्व की योग्यतम सेना बताया था।

सेना के अंदर एक अन्य विभाग भी था जिसे फौज-ए-बेकवाइद कहा जाता था, जिसमें केवल घुङसवार सैनिक थे। ये सेना अपने साहस और पराक्रम के लिए प्रसिद्ध थी। इसमें घुङचढे खास तथा मिसलदार शामिल थे।

सेना का गठन

रणजीत सिंह की सेना में अधिकांश सिक्ख और जाट सैनिक थे। सैनिकों की भर्ती में वह स्वयं बहुत रुचि लेता था और प्रत्येक दृष्टि से योग्य व्यक्तियों की ही भर्ती की जाती थी। यह सेना यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षित थी, इसीलिए यह भारतीय शक्तियों से सफलतापूर्वक टक्कर ले सकी और अंग्रेज भी इसकी शक्ति से परिचित थे। सेना को नियमित रूप से नकद वेतन मिलता था। सेना के पास विभिन्न प्रकार की तोपें थी।
रणजीत सिंह का सैन्य संगठन अत्यंत कुशल और उच्च कोटि का होते हुए थी दोषरहित नहीं था, सैनिकों और अधिकारियों की पदोन्नति के कोई निश्चित नियम नहीं थे। लेकिन यह निर्विवाद है कि उसकी सुदृढ सैन्य शक्ति के कारण ही जब तक वह जीवित रहा, अंग्रेजों को उससे टक्कर लेने का साहस नहीं हुआ।

रणजीत सिंह का मूल्यांकन

महाराजा रणजीत सिंह को एक साम्राज्य निर्माता, एक कुशल प्रशासक, एक कुशल राजनीतिज्ञ तथा चरित्रवान व्यक्ति के रूप में जाना जाता है। इनके कार्यों व व्यक्तित्व का मूल्यांकन निम्नलिखित बिन्दुओं में करेंगे-

व्यक्तित्व एवं चरित्र

रणजीत सिंह का शारीरिक रूप असुन्दर था। उसकी एक आँख बचपन में ही खराब हो चुकी थी और उसका चेहरा भी आकर्षक नहीं था। वह सुरा, सुन्दरी और शिकार का व्यसनी था। रणजीतसिंह का चरित्र शिवाजी की भाँति उच्च नहीं था। चारित्रिक दुर्बलता ने अनेक बार उसे साहसिक कदम उठाने से रोक दिया।

अनेक रानियों और रखैलों के कारण उसका अन्तःपुर षङयंत्रों और कलह का केन्द्र बन गया। अपने दुर्व्यसनों के कारण रणजीत सिंह अपने जीवन के अंतिम वर्षों में अनेक रोगों का शिकार हो गया, जिससे शासन शिथिल पङ गया और सिख सरदारों को धीरे-धीरे केन्द्र से विमुख होने का अवसर मिल गया।
लेकिन इन सभी बातों के उत्तर में कहा जाता है कि रणजीतसिंह का चरित्र उस समय के अन्य भारतीय शासकों की तरह था और यह कोई नवीन या विचित्र बात नहीं थी। दूसरे, अपने दुर्व्यसनों के कारण रणजीतसिंह ने शासन और साम्राज्य विस्तार की कभी उपेक्षा नहीं की।

महान साम्राज्य निर्माता

रणजीत सिंह ने अपने साहस और पराक्रम से भू-भाग को बिना किसी विशेष रक्तपात और क्रूरता के और अत्यंत अल्पावधि में एक विशाल साम्राज्य में परिणित कर दिया। उसने पराजित शत्रुओं के साथ उदारता का व्यवहार किया। उसने शासन प्रबंध और प्रजा की भलाई की ओर पूरा ध्यान दिया। उसके साम्राज्य में सभी धर्म के मानने वालों के साथ समानता का व्यवहार होता था। कट्टर सिख होते हुए भी वह अन्य धर्मों के मानने वालों के साथ कोई भेद-भाव नहीं करता था।

अनपढ होते हुए भी वह विद्वानों का बहुत आदर करता था। उसके साम्राज्य के दूरवर्ती भागों में भी प्रायः शांति बनी रहती थी।
कुछ विद्वानों का मत है कि रणजीत सिंह का शासन दोषपूर्ण था, क्योंकि वह केवल उसी पर निर्भर करता था। शिवाजी की अष्ट प्रधान सभा की भाँति रणजीत सिंह को सलाह देने वाली सभा राज्य में कोई नहीं थी।

कुछ इतिहासकारों का यह भी मत है कि उसने सिखों के बजाय डोगरा, राजपूत और अन्य जातियों के व्यक्तियों को राज्य के शासन में बहुत महत्त्व दिया, जो उसकी मृत्यु के बाद राज्य के प्रति वफादार नहीं रहे। अपने व्यक्तिगत स्वार्थ में लिप्त होकर उन्होंने सिख राज्य का शीघ्र विनाश करवा दिया। इसके विपरीत, शिवाजी के मराठा राज्य को मुगलों की संपूर्ण शक्ति भी नष्ट नहीं कर सकी।

महान सेनापति

रणजीत सिंह एक अत्यंत प्रतिभा संपन्न सेनापति और संगठनकर्त्ता था। युद्ध और योद्धा उसे प्रिय थे। उसके सैनिक उस पर अपनी जान देने को तैयार रहते थे। उसकी सैनिक क्षमता से अंग्रेज भी चौकन्ने हो गये थे। उसकी विजयों में पठानों पर उसकी विजय बहुत महत्त्वपूर्ण थी। अब पठान भी समझ गए कि पंजाब पर वे मनमाने आक्रमण नहीं कर सकते, क्योंकि वहाँ एक सुदृढ एवं शक्तिशाली शासन स्थापित हो चुका है।

उसने अपनी सैनिक योग्यता तथा पराक्रम के बल पर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की जो सतलज नदी से लेकर उत्तर में कश्मीर तक और पश्चिम में सुलेमान पर्वत तक फैला हुआ था। उसने एक विशाल साम्राज्य ही स्थापित नहीं किया, अपितु उसे सुशासन भी प्रदान किया।

रणजीत सिंह पहला भारतीय शासक था, जिसने भारतीय सेनाओं की रण पद्धति के दोषों को समझा और उन्हें दूर किया। उसने अपनी सेना को यूरोपीय पद्धति पर प्रशिक्षित करवाया, जिसके लिए उसने नेपोलियन के युद्धों के अनुभवी फ्रांसीसी सेनापति की सेवायें प्राप्त की। रणजीत सिंह की सेना की गिनती एशिया की श्रेष्ठ सेनाओं में की जाती है।

योग्य शासक

रणजीत सिंह एक योग्य शासक था। उसने सैनिक तथा नागरिक दोनों क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण सुधार किये। उसने न्याय-व्यवस्था, राज प्रबंध तथा सैनिक व्यवस्था का पुनर्गठन किया। उसने अपनी सेना को यूरोपियन पद्धति पर संगठित कर एक शक्तिशाली तथा अनुशासित सेना का गठन किया। वह निरंकुश शासक होते हुए भी एक प्रजावत्सल सम्राट था तथा अपनी प्रजा की भलाई के लिए सदैव प्रय्तनशील रहता था।

धर्म सहिष्णु

रणजीत सिंह सिख धर्म का कट्टर अनुयायी था, परंतु वह एक धर्म सहिष्णु व्यक्ति था। वह सभी धर्मों का सम्मान आदर करता था। उसकी सेनाओं में सभी जातियों के लोग भर्ती थे तथा उनके राजकीय पदों के द्वार सभी संप्रदायों के लोगों के लिए खुले हुए थे। फकीर अजीजुद्दीन उसका विदेश मंत्री था तथा उसका बङा विश्वासपात्र व्यक्ति था।

महान कूटनीतिज्ञ

एक योग्य शासक और सेनानायक होने के साथ-साथ रणजीत सिंह एक चतुर और महान कूटनीतिज्ञ भी था। वह कोरे भावावेश में या प्रतिष्ठा के आधार पर कोई कदम नहीं उठाता था। उसने समझ लिया था कि अंग्रेजों की शक्ति बहुत बढ चुकी है तथा समुद्रों पर उनका प्रभुत्व है। अतः उनसे टक्कर लेना खतरनाक है।

उसने कभी कोई ऐसा अवसर उत्पन्न नहीं किया कि उसका अंग्रेजों से टकराव अवश्यंभावी हो जाता। यद्यपि अंग्रेजों के कारण वह सतलज के पूर्व में तथा सिन्ध की ओर नहीं बढ सका, किन्तु साथ ही उसने कश्मीर, पंजाब और उत्तरी-पश्चिमी भारत में अंग्रेजों का हस्तक्षेप सहन नहीं किया।

जब अंग्रेजों ने फौजें अफगानिस्तान की ओर भेजने के लिए पंजाब में से गुजरने की आज्ञा माँगी, तो उसने इनकार कर दिया और अंग्रेजों को सिन्ध की ओर से जाना पङा। जब होल्कर ने रणजीतसिंह से अंग्रेजों के विरुद्ध सहायता माँगी, तो उसने इनकार कर दिया, इस प्रकार वह अपनी कूटनीति के द्वारा अपने साम्राज्य की सुरक्षा का ध्यान रखता रहा।

आलोचना

कुछ इतिहासकारों के अनुसार रणजीतसिंह की नीति दुर्बलता और अदूरदर्शिता की थी। एन.के.सिन्हा के अनुसार – जैसा कि बिस्मार्क ने कहा था, प्रत्येक स्थिति से राजनीतिक संधि में एक घोङा और घुङसवार होता है। अंग्रेजों और सिखों की इस संधि में रणजीत सिंह घोङा और अंग्रेज घुङसवार थे। अंग्रेजों के साथ अपने संबंधों में रणजीतसिंह ने अत्यधिक दुर्बलता दिखाई। उसने कभी भी साहस से काम नहीं लिया। वह सर्वदा अनिश्चित और हिचकिचाहटपूर्ण रहा।

इस पक्ष के इतिहासकारों का मत है कि रणजीतसिंह को यह सोचना चाहिए था और उसे यह ज्ञान भी होगा कि अंग्रेज किसी न किसी अवसर पर पंजाब को जीतने का प्रयास करेंगे। ऐसी स्थिति में उसे नेपाल, मराठा या अन्य भारतीय राजाओं से संधि करके अंग्रेजों को भारत से निकालने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिये था।

इस नीति का परिणाम कुछ भी होता परंतु अपने सर्वनाश की चुपचाप प्रतीक्षा करने के बजाय साहसिक नीति अपनाता तो निःसंदेह लाभप्रद होता। आर.सी.मजूमदार के अनुसार रणजीत सिंह इस बात को भूल गया कि राजनीति में भी युद्ध की भाँति, समय रक्षात्मक उपाय करने वाले के साथ नहीं होता।

निष्कर्ष

इस प्रकार एक महान साम्राज्य निर्माता, कुशल प्रशासक तथा चतुर कूटनीतिज्ञ होते हुए भी रणजीत सिंह दोषरहित नहीं था। वह अंग्रेजों के सामने सदैव झुकता रहा और उसकी मृत्यु के बाद कुछ ही वर्षों में अंग्रेजों ने उसके साम्राज्य का अंत कर दिया, किन्तु अपनी सीमाओं तथा दुर्बलता के होते हुए भी वह अनेक प्रकार से एक महान पुरुष था। वह जन्म से मनुष्यों का नेता और शासक था।

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