प्राचीन काल में रसायन शास्त्र
प्राचीन भारत में रसायन शास्त्र तकनीक का सहायक न होकर औषधि शास्त्र की दासी था, जिस कारण इसका स्वतंत्र विकास नहीं हो सका। प्राचीन रसायन शास्त्र रसविद्या अथवा रसशास्त्र के नाम से जाना जाता है। रसायनज्ञों ने मध्ययुगीन यूरोपीयनों के समान मूल धातु को स्वर्ण में रूपान्तरण करने की तकनीक में दिलचस्पी नहीं ली तथा अपना ध्यान अधिकांशतः औषधियों, आयुर्वधक रसायनों, वाजीकरों, विषों तथा उनके प्रतिकारों आदि के बनाने पर ही केन्द्रित किया। ये रसायनज्ञ विचूर्णन तथा आसवन जैसी सामान्य प्रक्रिया द्वारा विविध प्रकार के अम्ल, क्षार तथा धातु लवण बनाने में सफल भी हो गये। उन्होंने एक प्रकार की बारूद का भी आविष्कार कर लिया था। प्राचीन ग्रंथों में रसविद्या को पराविद्या कहा गया है। जो तीनों लोकों में दुर्लभ तथा भोग और मुक्ति प्रदान करती है।
भारतीय परंपरा में बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन को रसायन का नियामक माना गया है। जो कनिष्क के समकालीन थे। संभव है, इस नाम के कुछ और आचार्य भी बाद में हुए हों। ह्वेनसांग के अनुसार नागार्जुन दक्षिण कोशल में निवास करते थे। वे रसायन शास्त्र में सिद्ध थे तथा उन्होंने अत्यन्त लंबी आयु देने वाली एक सिद्धवटी का आविष्कार किया था। सोने, चाँदी, ताँबे, लोहे आदि के भस्मों द्वारा उन्होंने विविध रोगों की चिकित्सा का विधान भी प्रस्तुत किया था। पारा की खोज उनका सबसे महत्त्वपूर्ण आविष्कार था, जो रसायन के इतिहास में युगांतकारी घटना है। संभव है, नागार्जुन के शिष्यों ने इस विद्या को संरक्षित रखा हो, लेकिन हमें इससे संबंधित कोई ग्रंथ नहीं मिलता। महर्षि कणाद के वैशेषिक दर्शन में भी रसायनिक प्रक्रिया की कल्पना की गयी है।
मेहरौली स्थित लौह स्तंभ इस बात का जीता जागता प्रमाण है, कि प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक धातु विज्ञान में अत्यन्त निष्णाद थे। जिस समय पश्चिमी विश्व में भी लोहा बनाने की विधि का अधूरा ज्ञान था, भारतीय धातु शोधकों ने इस लौह स्तंभ को इतनी निपुणता से बनाया कि पिछले डेढ हजार वर्षों से धूप और वर्षा में खुला खङा होने पर भी इसमें किसी प्रकार की जंग नहीं लगने पाई है। इसकी पॉलिश आज भी धातु वैज्ञानिकों के लिये आश्चर्य की वस्तु है। कई शताब्दियों तक इतने बङे लौह स्तंभ का निर्माण मानव कल्पना से परे था।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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