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बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार

बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार

बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश सारनाथ में दिया जहाँ पाँच ब्राह्मण उनके प्रथम शिष्य बने। इसके बाद उन्होंने अपने धर्म का प्रचार प्रारंभ किया। वर्षा ऋतु में वे विभि्न नगरों में विश्राम करते तथा शेष ऋतुओं में एक स्थान से दूसरे स्थान में घूम-घूमकर अपने मत का प्रचार करते थे। बौद्ध साहित्य में उनके प्रचार कार्य का बङा ही रोचक विवरण प्राप्त होता है।

सारनाथ से अपने ब्राह्मण अनुयायियों के साथ बुद्ध वाराणसी गये जहाँ यस नामक एक धनी श्रेष्ठिपुत्र को उन्होंने अपना शिष्य बनाया। यहाँ से मगध की राजधानी राजगृह पहुँचे। राजगृह में उन्होंने द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ वर्षाकाल व्यतीत किये। बिम्बिसार, जो इस समय मगध का राजा था, ने उनके निवास के लिये विलुवन नामक विहार बनवाया। मगध में इस समय अनेक प्रसिद्ध ब्राह्मण तथा ब्राह्मणेतर आचार्य एवं संन्यासी निवास करते थे। कई के साथ बुद्ध का शास्त्रार्थ हुआ तथा बुद्ध ने सभी को परास्त किया। फलस्वरूप अनेक विद्वान उनके शिष्य बन गये। इनमें सारिपुत्र, मौद्गल्यायन उपालि, अभय आदि प्रमुख हैं। बुद्ध ने गया, नालंदा, पाटलिपुत्र आदि की भी यात्रा की तथा अनेक लोगों को अपना शिष्य बनाया। लोगों को उन्होंने अपने मत में दीक्षित किया। शाक्यों ने उनसे अपने नवनिर्मित संस्थागार का उद्घाटन करवाया था।

राजगृह से चलकर बुद्ध लिच्छवियों की राजधानी वैशाली पहुँचे। यहाँ उन्होंने पाँचवाँ वर्षा काल बिताया। लिच्छवियों ने उनके निवास के लिये महावन में प्रसिद्ध कूटाग्रशाला का निर्माण करवाया। वैशाली की प्रसिद्ध नगर-वधू आम्रपाली उनकी शिष्या बनी तथा उसने भिक्षु-संघ के निवास के लिये अपनी आम्रवाटिका प्रदान कर दी। इसी स्थान पर बुद्ध ने प्रथम बार महिलाओं को भी अपने संघ में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान की तथा भिक्षुणियों का संघ स्थापित हुआ।

संघ में प्रवेश पाने वाली प्रथम महिला बुद्ध की सौतेली माता प्रजापती गौतमी थी, जो राजा शुद्धोधन की मृत्यु के बाद कपिलवस्तु से चलकर वहाँ पहुँची थी। बताया गया है, कि बुद्ध पहले तो महिलाओं को संघ में लेने के विरोधी थे, किन्तु गौतमी के अनुनयविनय करने तथा अपने प्रिय शिष्य आनंद के आग्रह करने पर उन्होंने इसकी अनुमति प्रदान कर दी।

कपिलवस्तु से राजगृह जाते समय बुद्ध ने अनुपिय नामक स्थान पर कुछ काल तक विश्राम किया। यहीं शाक्य राजा भद्रिक, अनुरुद्ध, उपालि, आनंद, देवदत्त को साथ लेकर बुद्ध से मिला था। बुद्ध ने इन सभी को अपने मत में दीक्षित किया तथा आनंद को अपना व्यक्तिगत सेवक बना लिया।

वैशाली से बुद्ध भग्गों की राजधानी सुमसुमारगिरि गये और वहाँ आठवाँ वर्षाकाल व्यतीत किया। यहाँ बोधिकुमार उनका शिष्य बना। यहाँ से वे वत्सराज उदयन की राजधानी कौशाम्बी गये तथा वहाँ नवाँ विश्राम लिया। उदयन पहले बौद्ध मत में रुचि नहीं रखता था, किन्तु बाद में बौद्ध भिक्षु पिन्डोला भारद्वाज के प्रभाव से बौद्ध बन गया। उसने घोषिताराम विहार भिक्षु – संघ को प्रदान किया। यहाँ से बुद्ध मथुरा के समीप वेरन्जा गये जहाँ उन्होंने बारहवाँ वास किया। अवन्ति के राजा प्रद्योत ने भी उन्हें आमंत्रित किया, किन्तु उन्होंने अपनी वृद्धावस्था के कारण वहाँ जाने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुये अपने शिष्य महाकच्चायन को उसे उपदेश देने के लिये कहा। अवन्ति में भी बुद्ध के कुछ अनुयायी बन गये। बुद्ध ने चंपा तथा कजंगल की भी यात्रा की तथा उन स्थानों में कुछ समय तक रहकर अनेक लोगों को अपने मत में दीक्षित किया।

बौद्धधर्म का सबसे अधिक प्रचार कोशल राज्य में हुआ। यहाँ बुद्ध ने इक्कीस वास किये। यहाँ अनाथपिण्डक नामक एक अत्यन्त धनी व्यापारी ने उनकी शिष्यता ग्रहण की तथा संघ के लिये जेतवन विहार को, अट्ठारह करोङ स्वर्ण मुद्राओं में राजकुमार जेत से खरीद कर प्रदान किया। भरहुत से प्राप्त एक शिल्प के ऊपर इस दान का अंकन मिलता है। इसमें जेतवन अनाथसम्थतेनकेता लेख उत्कीर्ण मिलता है। कोशल नरेश प्रसेनजित ने भी अपने परिवार के साथ बुद्ध की शिष्यता ग्रहण की तथा संघ के लिये पुब्बाराम (पूर्वा-राम) नामक विहार बनवाया। बुद्ध जेतवन तथा पूर्वाराम नामक विहारों में बारी-बारी से विश्राम लेते थे। श्रावस्ती में ही रहते हुये बुद्ध ने अंगुलिमाल नामक कुख्यात डाकू, जो मनुष्यों के अंगुलियों को काटकर उनकी माला पहनता था, को अपने मत में दीक्षित करने में सफलता प्राप्त की। इस प्रकार कोशल राज्य में उनके सबसे अधिक अनुयायी बन गये।

विभिन्न स्थानों का भ्रमण करते हुये तथा लोगों को अपने मत में दीक्षित करते हुये बुद्ध मल्लों की राजधानी पावा पहुँचे। यहाँ चुन्द नामक लुहार की आम्रवाटिका में ढहरे। उसने बुद्ध को भोजन दिया। इसमें उन्हें सूकरमद्दव खाने को दिया गया। कुछ विद्वानों ने इसका अर्थ सूअर का मद्य अथवा मांस बताया है, किन्तु यह तर्कसंगत नहीं है। वस्तुतः यह कोई वनस्पति थी, जो सुअर के मांद के पास उगती थी, जैसे कुकुरमुत्ता आदि। इससे उन्हें रक्तातिसार हो गया और भयानक पीङा उत्पन्न हुई। इस वेदना को सहन करते हुये वे कुशीनारा पहुँचे। यहीं 483 ईसा पूर्व में 80 वर्ष की आयु में उन्होंने शरीर त्याग किया। इसे बौद्ध ग्रंथों में महापरिनिर्वाण कहा गया है। मृत्यु के पूर्व बुद्ध ने भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुये कहा था – सभी सांघातिक वस्तुओं का विनाश होता है। अपनी मुक्ति के लिये उत्साहपूर्वक प्रयास करो।

मल्लों ने अत्यन्त सम्मानपूर्वक उनका अत्येष्टि संस्कार किया। अनुश्रुति के अनुसार उनकी शरीर-धातु के आठ भाग किये गेय तथा प्रत्येक भाग पर स्तूप बनवाये गये। महापरिनिर्वाण सूत्र में बुद्ध की शरीर -धातु के दावेदारों के नाम इस प्रकार मिलते हैं –

  1. पावा तथा कुशीनारा के
  2. मल्लकपिलवस्तु के शाक्य
  3. वैशाली के लिच्छवि
  4. अलकप्प के बुलि
  5. रामगाम के कोलिय
  6. पिप्पलिवन के मोरिय
  7. वेठद्वीप के ब्राह्मण
  8. मगधराज अजातशत्रु

इस प्रकार बुद्ध के जीवन काल में ही उनका धर्म भारत के समस्त मध्यक्षेत्र में फैल गया। बौद्ध साहित्य में बुद्ध के परिभ्रमण स्थानों का जो विवरण प्राप्त होता है, उससे स्पष्ट होता है, कि उनके धर्म का प्रचार पूर्व में चंपा से लेकर पश्चिम में अवन्ति तक तथा उत्तर में हिमालय की तराई से लेकर दक्षिण में मगध तक हो गया था। इसकी सफलता के पीछे महात्मा बुद्ध का आकर्षक एवं महान व्यक्तित्व मुख्य रूप से उत्तरदायी था। ज्ञान-प्राप्ति के बाद उन्होंने अपने धर्म के प्रचारार्थ व्यापक भ्रमण किया। उनके उपदेश अत्यन्त व्यावहारिक एवं सरल हुआ करते थे, तथा कोई भी व्यक्ति, चाहे वह अमीर हो अथवा गरीब, उनका अनुसरण कर सकता था। इसके लिये जाति-पाँति, छूआ-छूत तथा ऊँच-नीच का कोई बंधन नहीं था। उनमें लोगों का प्रभावित करने की अद्भुत क्षमता थी। उन्होंने प्रचार के लिये जनसाधारण की भाषा मागधी को अपनाया जो प्राकृत का ही एक रूप थी। बुद्ध ने कभी भी अपने मत को बलात् थोपने का प्रयास नहीं किया। वे गूढ दर्शन के प्रतिपादक भी नहीं ते। वे कहा करते थे, कि यदि उनकी शिक्षायें अच्छी लगे तभी उन्हें ग्रहण किया जाये।रिजडेविड्स ने सही ही लिखा है, कि यदि बुद्ध मात्र दर्शन का उपदेश करते तो अनुयायियों की संख्या अत्यन्त सीमित रही होती। उनके समकालीन बङे-बङे राजाओं, जैसे – मगधराज बिम्बिसार और अजातशत्रु, कोशलनरेश प्रसेनजित तथा वत्सराज उदयन ने उन्हें राजाश्रय प्रदान किया और उनकी शिष्यता ग्रहण कर ली। इन राज्यों की जनता ने भी खुले ह्रदय से इस धर्म को अपनाया। इस प्रकार बुद्ध के जीवन काल में उनके अनुयायियों की संख्या का संगठन तथा कार्य-पद्धति गणतंत्रों की पद्धति के ही अनुकूल थी। प्रारंभ में केवल कुछ पुरुष ही संघ में भिक्षु हो सकते थे, परंतु बाद में बुद्ध ने संघ का द्वार स्त्रियों के लिये भी खोल दिया। बुद्ध की मृत्यु के बाद इसी बौद्ध संघ द्वारा उनके मत का अधिकाधिक प्रचार हुआ तथा बुद्ध, धम्म और संघ ये तीनों बौद्ध धर्म के त्रिरत्न स्वीकार किये गये। बौद्ध भिक्षु अपनी दैनिक प्रार्थनाओं में इन तीनों को इस प्रकार दुहराते हैं –

बुद्धं शरणं गच्छामि।
धमं शरणं गच्छामि।
संघं शरणं गच्छामि।

यहाँ उल्लेखनीय है, कि तत्कालीन बदली हुयी सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों ने भी बौद्ध धर्म को लोकप्रिय बनाने में योगदान दिया था। आर्थिक दृष्टि से यह काल गंगा-घाटी में नगरीय क्रांति का काल था। उत्तरी पूर्वी भारत में अनेक नगरों जैसे – कौशाम्बी, कुशीनगर, वाराणसी, वैशाली, राजगृह आदि की स्थापना हुई जहाँ बहुसंख्यक व्यापारी एवं शिल्पी बस गये। बुद्धकाल में ही भारतीय अर्थव्यवस्था सर्वप्रथम द्रव्य – युग में अवतीर्ण हुयी। सिक्कों का व्यापक रूप से प्रचलन हुआ। आर्थिक समृद्धि तथा व्यापार – वाणिज्य की प्रगति के कारण लोगों का जावन के प्रति दृष्टिकोण बदल रहा था। ब्राह्मण धर्म एपने ग्रामीण आधार के कारण इस प्रकार के परिवेश के लिये अनुपयुक्त था। अतः लोग बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित हुये जो बदले हुए सामाजिक दृष्टिकोण तथा नवीन आर्थिक परिवेश के पूर्णतया अनुकूल था। यही कारण है, कि बुद्ध तथा उनके धर्म को उस समय के कई धनी व्यापारियों तथा साहूकारों ने संरक्षण एवं सहायता प्रदान की थी। कौशाम्बी के घोषित, अंग के मंडक, श्रावस्ती के अनाथपिण्डक आदि इस काल के समृद्ध श्रेष्ठि थे। इनके माध्यम से कोई आर्थिक कठिनाई उनके समक्ष उपस्थित नहीं हुई तथा उनका धर्म व्यापक आधार प्राप्त कर सका।

प्रो.आर.एस.शर्मा के अनुसार बौद्ध धर्म का उदय, नवविकसित नगरीय परिवेश में अवमानित हुए मूल्यों को समाप्त करने तथा जो अच्छा और प्रगतिशील था उसे समर्थन प्रदान करने के लिये हुआ था। इसके सिद्धांत नई अर्थव्यवस्था तथा अतिरिक्त उत्पादन के आधार पर विकसित हो रहे नगरीय जीवन के अनुकूल थे।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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