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प्राचीन इतिहास तथा संस्कृति के प्रमुख स्थल कौशाम्बी

इलाहाबाद के दक्षिण-पश्चिमी में लगभग 33 मील की दूरी पर स्थित कोसम नामक स्थान ही प्राचीन काल का कौशाम्बी था। यह नगर यमुना नदी के तट पर बसा हुआ था। पुराणों के अनुसार हस्तिनापुर के राजा निचक्षु ने हस्तिनापुर के गंगा के प्रवाह में बह जाने के बाद इस नगर की स्थापना करवाई थी। ऐतिहासिक युग के आरम्भ में कौशाम्बी वत्स राज्य की राजधानी थी जहाँ का राजा उदयन था।

इस नगर में जाकर बुद्ध ने कई बार धर्मोपदेश किया तथा लोगों को अपना शिष्य बनाया था। यहाँ अनेक विहार थे जिनमें सर्वप्रमुख घोषिताराम था। इसका निर्माण श्रेष्ठि घोषित ने करवाया था। इस विहार के निकट ही अशोक का स्तूप था। बौद्ध धर्म का केन्द्र होने के साथ-2 कौशाम्बी एक प्रसिद्ध व्यापारिक नगर भी था। जहाँ अनेक धनी व्यापारी निवास करते थे।

मौर्य शासक अशोक ने यहाँ अपने स्तम्भलेख उत्कीर्ण करवाये थे। मौर्यकाल में पाटलिपुत्र का महत्व बढ़ने से कौशाम्बी का गौरव घट गया। गुप्त युग तक इस नगर का अस्तित्व सुरक्षित रहा।

सातवीं शती में जब हुएनसांग ने भारत की यात्रा की तब उसने इस नगर को उजड़ा हुआ पाया था। सर्वप्रथम 1861 ई. में कनिंघम महोदय ने इस स्थान की यात्रा कर इसके पुरातात्विक महत्व की ओर विद्ववानों का ध्यान आकर्षित किया था। तत्पश्चात् 1936 -37 में एन. जी. मजूमदार ने यहाँ उत्खनन कार्य करवाया, किन्तु दुर्भाग्यवश एक दुर्घटना में वे मारे गये जिसके फलस्वरूप कुछ समय तक कौशाम्बी का उत्खनन कार्य रूका रहा। 1949 से लेकर 1965-66 ई. तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के जी. आर. शर्मा के नेतृत्व में यहाँ व्यापक स्तर पर खुदाईयाँ करवायी गयीं जिसके परिणामस्वरूप पुरातात्विक महत्व की अनेक वस्तुयें यहाँ से प्रकाश में आयीं।

कौशाम्बी में उत्खनित क्षेत्र मुख्यतः चार हैं

  1. अशोक स्तम्भ का समीपवर्ती क्षेत्र
  2. घोषिताराम विहार क्षेत्र
  3. पूर्वी भाग में मुख्य प्रवेशद्वार का समीपवर्ती क्षेत्र
  4. राजप्रसाद क्षेत्र

अशोक स्तम्भ वाले क्षेत्र की खुदाई में मुख्यतः तीन प्रकार की मिट्टी के बर्तन मिलते है जिन्हें चित्रित – घूसरभाण्ड (Painted Gray Ware), उत्तरी काले चमकीले भाण्ड (Northern Black Polished Ware) उत्तर एन. बी. पी. भाण्ड आदि नाम दिए जाते है।
चित्रित धूसर संस्कृति के अवशेष अपेक्षाकृत सीमित है। इसके प्रमुख पात्र कटोरे तथा तश्तरियाँ है। इनकी गढ़न अच्छी है। उत्तरी काली चमकीली संस्कृति से सम्बन्धित निर्माण के आठ स्तर प्राप्त हुए है जिनमें प्रथम पाँच मिट्टी तथा ईंटों से और ऊपर के तीन पकी ईंटों से बने है। इनके अतिरिक्त यहाँ से मित्रवंशी राजाओं के सिक्के, मिट्टी की मूर्तियाँ, कुषाण राजाओं के सिक्के आदि भी प्राप्त हुए है। घोषताराम की खुदाई से एक विहार मिला है जिसके चारों ओर से ईंटों की दिवारे बनी हुई हैं। विभिन्न स्तरों से सूचित होता है कि इस विहार का निर्माण कई बार किया गया। विहार के प्रांगण से एख बड़े तथा तीन छोटे स्तूपों के अवशेष मिले है।

इस विहार का निर्माण संभवतः ई.. पू. 5वीं शता. में हुआ था। विहार से पाषाण तथा मिट्टी की मूर्तियाँ, सिक्के तथा कुछ लेख भी मिलते है। इसी क्षेत्र से हूणनरेश तोरमाण की मुहर मिली है। इससे सूचित होता है कि हूणों का कौशाम्बी के ऊपर आक्रमण हुआ तथा उन्होंने यहाँ बड़े पैमाने पर आगजनी और लूटपाट की। यहाँ से मिली पत्थर की मूर्तियों पर बुद्ध का अंकन प्रतीकों में किया गया है। बड़ी संख्या में मिट्टी की बनी हुई मानव तथा पशु मूर्तियाँ मिलती है। कुछ देवी-देवताओं से भी सम्बद्ध है। इनका समय मौर्यकाल से गुप्त काल तक निर्धारित किया गया है।

पाषाण मूर्तियाँ ई. पू. 200 से 500-600 ई. तक की है। इनसे सूचित होता है कि भरहुत तथा साँची के समान कौशाम्बी भी कला का एक प्रमुख केन्द्र था। यहाँ की प्रसिद्ध मूर्तियाँ में कुबेर, हारीति तथा गजलक्ष्मी की मूर्तियाँ का उल्लेख किया जा सकता है। मुख्य प्रवेशद्वार वाले क्षेत्र के उत्खनन की महत्वपूर्ण उपलब्धि रक्षा -प्राचीर है। इसके अतिरिक्त चार प्रकार की पात्र परम्परायें – लाल रंग, चित्रित धूसर, उत्तरी काली चमकीली तथा उत्तर एन. बी. पी. भी यहाँ से मिलते है। लेख रहित ढले हुए ताम्र सिक्के तथा लोहे के उपकरण भी यहाँ से प्राप्त होते है।

रक्षा प्राचीर से सूचित होता है कि ईसा पूर्व की 13वी. -13वी. शता. से ही यहाँ भवन निर्माण में पकी ईंटों का प्रयोग किया जाने लगा था। जी. आर. शर्मा यहाँ से मिले हुए सिक्कों को आहत सिक्कों से भी प्राचीन मानते है तथा उनकी तिथि ईसा पूर्व 9वी. शता. निर्धारित करते है। किन्तु कई विद्वान इस निष्कर्ष से सहमत नहीं है।

शर्मा के अनुसार ई. पू. 11वी. -12वी. शता. में यहाँ नगर जीवन का आरम्भ हो चुका था। पूर्वी रक्षा प्राचीर के पास से एक यज्ञ की वेदी मिलती है जिसका आकार उड़ते हुए बाज (श्येन) जैसा है। इसे ‘श्येनचिति’ कहा गया है। बताया गय है कि यहाँ पुरूषमेध किया गया था। यह यज्ञ संभवतः ईसा पूर्व द्वितीय शता. में सम्पन्न हुआ था। इसका सम्बन्ध शुंग शासक पुष्यमित्र से जोड़ा गया है। किन्तु मार्टीमर ह्रीलर, बी. बी. लाल जैसे विद्ववानों श्येनचिति की अवधारणा को स्वीकार नहीं करते है।

राजप्रसाद क्षेत्र के उत्खनन में पाषाणनिर्मित एक लम्बी -चौड़ी चारदीवारी के अवशेष मिलते है। अनुमान किया जाता है कि यह किसी राजपरिवार का आवास रहा होगा। यहाँ से चार सांस्कृतिक पात्र परम्पराओं की जानकारी होती है। यहाँ से मेहराब के भी अवशेष मिलते है जिनसे सिद्ध होता है कि भारत में मेहराब युक्त भवन पहली-दूसरी सदी में ही बनने लगे थे। किन्तु सभी विद्वान इस बात को स्वीकार नहीं करते।


कौशाम्बी के उत्खनन सिद्ध होता है कि ई. पू. बारहवी शता. से लेकर चौथी शता. ईस्वी (गुप्त युग) तक यहाँ लोग निवास करते थे। गुप्तकाल तक यह नगर विरान हो चुका था।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
2. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास, लेखक-  वी.डी.महाजन 

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