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समसामयिक विश्व साहित्य

समसामयिक विश्व साहित्य(Contemporary World Literature)

19 वीं व 20 वीं शताब्दी में संपूर्ण विश्व में साहित्य के क्षेत्र में महान प्रगति हुई। साम्राज्य विस्तार और औपनिवेशक निर्माण के कारण यूरोप, एशिया, अफ्रीका व अमरीका संस्कृतियों का आपसी संपर्क बढा, इससे साहित्य सृजन को प्रोत्साहन मिला। परिणामस्वरूप साहित्य व कला के क्षेत्र में वैचारिक और तकनीकी आदान प्रदान हुआ।

समसामयिक विश्व साहित्य

प्रमुख विधाएँ एवं विविधताएँ

19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध एवं 20 वीं शताब्दी के प्रारंभ में प्रचुर मात्रा में साहित्य का सृजन हुआ। पुनर्जागरण कालीन साहित्य और कला का अभी भी प्रभाव था। साहित्य की विभिन्न विधाओं का विकास हुआ।

इस समय की साहित्यिक विशेषताएं निम्नलिखित थी-

प्रमुख विधाएँ एवं विविधताएँ

कविता

उपन्यास

रूप और विषयवस्तु का संयोजन इस समय की उपन्यास विधा की प्रमुख विशेषता थी। उपन्यासों में सामाजिक चित्रण के साथ ही दैनिक जीवन व सामाजिक कमियों की समीक्षा की जाने लगी। सिगमंड फ्रायड, टॉल्सटोय (वार एंड पीस), दोस्तोएवस्की, डी.एच.लॉरेन्स (रेनबो) और ई.एम.फास्टर (ए पेसेज टू इंडिया), टॉमर्स हार्डी आदि प्रमुख साहित्यकार थे, जिन्होंने आधुनिक उपन्यास की प्रमुख विशेषताओं को रेखांकित किया।

नाटक

नाटकों में समकालीन विषयों के यथार्थ चित्रण, तकनीकी संयोजन एवं भाषायी संरचना से समकालीन विषयों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया। हेनरी इब्सन, से आधुनिक विधा की शुरुआत हुई। इनके अलावा नाटक विधा को चेखव, ब्रेख्त, बायोनेस्को, जार्ज बर्नार्ड शॉ और जेनेट जैसे नाटककारों ने आगे बढाया।

आवॉगार्द (हरावल दस्ता)

इस नयी साहित्यिक विधा का उदय फ्रांस में हुआ। इसमें चेतना को विशेष महत्त्व दिया गया।

यथार्थवादी विचारधारा का विकास

20 वीं शताब्दी में विश्व साहित्य में यथार्थवादी विचारधारा की परंपरा जीवित थी। साहित्य में एक नवीन आलोचना की शुरूआत हुई। अमरीकी उपन्यासकार जॉन स्टाइन बेक का उपन्यास क्रोध के अंगूर (1939) यथार्थवाद का उदाहरण है। इसी प्रकार एलनेगिसबर्ग के नेतृत्व में नवीनतावादी काव्य के रूप में बीटिनिक कविता का जन्म हुआ। यथार्थवादी साहित्यकारों में भारत के उपन्यासकार एवं लघु कहानीकार मुंशी प्रेमचंद का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इसी प्रकार अज्ञेय और मुक्तिबोध ने भारत में नई कविता (आधुनिकतावादी) को अपनाया।

राष्ट्रवादी साहित्य

19 वीं एवं 20 वीं शताब्दी में एशिया और अफ्रीका में राष्ट्रवादी साहित्य का प्रचुर सृजन हुआ। घाना के नक्रुमा, केन्या के क्रांतिकारी लेखक थियोंगो एवं भारत के बंकिम चंद्र प्रमुख थे, जिन्होंने साहित्य के माध्यम से राष्ट्रीय जागृति उत्पन्न की। राष्ट्रवादी कवि मैथिलीशरण गुप्त भारत के राष्ट्रकवि के नाम से प्रसिद्ध हैं।

पाइ-पुआ

चीन में हू शिह और चेनतुसिउ ने साहित्य में कृत्रिम भाषा के स्थान पर पाइ-पुआ अर्थात सरल भाषा के प्रयोग पर बल दिया। भाषा का यह आंदोलन काफी लाभदायक सिद्ध हुआ।

बिम्बवाद

आंग्लभाषा में 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बिम्बवाद के नाम से एक आंदोलन चला, जिसमें कविता को स्वच्छदतावाद के स्थान पर उसके मूर्त रूप या संक्षिप्त बिम्ब, प्रतीक तक सीमित रखा गया। लेकिन अंग्रेजी कविता में यह व्यवस्था अधिक समय तक नहीं चल सकी।

छायावाद

हिन्दी कविता में छायावाद की प्रवृत्ति 20 वीं शताब्दी के दूसरे दशक में आरंभ हुई। इसमें मुक्ति की चेतना के साथ स्वच्छन्दता की प्रवृत्ति प्रधान रही। कल्पना के साथ नयी काव्यभाषा और बिम्बो, प्रतीकों आदि का प्रयोग हुआ। जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी, निराला महादेवी वर्मा इस धारा के मुख्य प्रतिनिधि रचनाकार हैं।

समसामयिक विश्व में एशिया का साहित्य एवं साहित्यकार

भारतीय साहित्य

19 वीं एवं 20 वीं शताब्दी में सृजित भारतीय साहित्य का भी विश्व साहित्य में विशिष्ठ स्थान रहा है। वस्तुतः राष्ट्रवादी साहित्य की रचना और साहित्य सृजन में क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग, एशिया के साहित्य आकर्षित किया। राष्ट्रीय जागरण के साथ ही भारतीय लेखन में समाज की बदलती मनोदशाओं का प्रतिबिम्ब भी हमें दिखायी देता है।

उपन्यास व कहानी

भारतीय साहित्यकारों में मनमोहनघोष, अरविन्द घोष और सरोजनी नायडू तीन प्रमुख साहित्यकार थे जो 20 वीं शताब्दी के प्रारंभ में प्रमुख शक्ति के रूप में उभरे। रवीन्द्रनाथ टैगोर (1861-1941) इस समय के सर्वाधिक उल्लेखनीय साहित्यकार थे। वे एशिया के प्रथम लेखक थे, जिन्हें 1913 में गीतांजली नामक काव्यसंग्रह पर साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला। उन्होंने अपनी मातृभाषा बंगला में ही साहित्य की रचना की देशभक्त कवि सुब्रमण्यम भारती (1882-1921) ने तमिल काव्य परंपरा में क्रांतिकारी परिवर्तन किया। वंदेमातरम् के लिये सुविख्यात बंगला उपन्यासकार बंकिमचंद्र चटर्जी (1838-1894) ने आनंद मठ और देवी चौधरानी जैसे उपन्यासों की रचना की और अपनी सांस्कृतिक भावना की अभिव्यक्ति की।

भारतीय साहित्य में यथार्थवादी प्रवृत्ति को स्थापित करने का श्रेय मुंशी प्रेमचंद (1880-1946) को है। उन्होंने अपनी कहानियों और उपन्यासों को सामाजिक परिवर्तन का माध्यम बनाया और ग्रामीण परिवेश का चित्रण किया। उनकी प्रसिद्ध कृतियों में सेवासदन, रंग भूमि व गोदान प्रमुख उपन्यास है। कफन, पूस की रात व शतरंज के खिलाङी उनकी प्रसिद्ध कहानियाँ है।

बाद में ग्रामीण चित्रण परंपरा को आगे बढाने वालों में फणेश्वर नाथ रेणु प्रमुख हैं, जिन्होंने मैला आँचल उपन्यास लिखा। इसी प्रकार प्रतिनिधि उपन्यासों में विभूतिभूषण बंधोपाध्याय का उपन्यास पाथेर पांचाली और भाल चंद नेमाडे का कोसला प्रमुख है। भारतीय साहित्यकारों द्वारा किया गया ग्रामीण चित्रण विश्व में अद्वितीय है। खुशवंत सिंह के उपन्यास ट्रेन टू पाकिस्तान में भारत पाकिस्तान विभाजन की ऐतिहासिक दास्तान का वर्णन है। महाश्वेता देवी ने अपनी कहानियों और उपन्यासों में भारतीय जन जीवन और संस्कृति का वर्णन किया है। के.ए.अब्बास ने अपनी कृति टूमारो इज आवर्स में असली भारतीय जीवन व उसकी आकांक्षाओं का वर्णन किया है।

कविता

20 वीं शताब्दी की भारतीय कविता में लचीलापन और समयानुकूलता की क्षमता विशेष रूप से समाहित है। इसने देशभक्तिपूर्ण राष्ट्रीय भावनाओं और प्रगतिशील बौद्धिकता को प्रभावित किया है।

टैगोर की कविताओं की दो प्रमुख विशेषताएँ हैं – रहस्यवाद और स्वच्छन्द आत्मपरकता। उन्होंने देश की संपूर्ण संस्कृति को प्रस्तुत किया है। गाँधी जी ने सम्मानवश उन्हें गुरुदेव कहा है।

विशुद्ध गीतीकाव्य रचनाकारों में श्री अरविन्द घोष, सरोजनी नायडू, रवीन्द्रनाथ टैगोर और विवेकानंद का नाम विशेष उल्लेखनीय है। भारतीय काव्य परंपरा को आगे बढाने वालों में उल्लेखनीय कवियों में प्रमुख हैं – हिन्दी से जयशंकर प्रसाद, सुमित्रा नंदन पंत, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर, सूर्य कांत त्रिपाठी (निराला) उर्दू में मोहम्मद इकबाल, बंगला में नजरूल इस्लाम, मराठी में केशनसुत्त, मलियालम में जी.शंकर कुरूप, एवं तमिल में राष्ट्रवादी कवि सुब्रमण्यम भारतीय आदि हैं।

विश्व के अन्य भागों की तरह भारत में भी नवीन काव्य आंदोलन के तहत प्रतीक एवं बिम्ब के रूपकों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ। कमलादास, अमृता प्रीतम हरिवंश राय बच्चन (मधुशाला), अज्ञेय, शरत्चंद्र चटोपाध्याय, रमाकांत रथ आदि ने नई कविता के आंदोलन को आगे बढाया।

रंगमंच

19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पश्चिमी नाटकों के आधार पर भारतीय भाषाओं में एक नवीन साहित्यिक परंंपरा का विकास हुआ और इसी से लोक रंगमंच की अनेक विधाओं का भारत में विकास हुआ। यह रंगमंच, मोहक मनोरंजन, वाणिज्यिक उद्योग और प्रचार का माध्यम बना। रंगमंच पर भी राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव पङा।

रंगमंच के लिए पौराणिक और ऐतिहासिक विषयों का चयन होने लगा। रंगमंच के उल्लेखनीय नाटककारों में एस.एन.सेन गुप्त, मनमथ राय, पार्वती प्रसाद बरूआ, लक्षमी नारायण मिश्र आदि प्रमुख थे। रंगमंच की दृष्टि से बंगाल सर्वाधिक समृद्ध रहा। अनेक अंक वाले नाटक प्रदर्शित किए गए। घूमते स्टेज के प्रचलन के कारण फिल्में इस कला पर हावी नहीं हो सकी।

नाट्यकला को व्यवस्थित रूप प्रदान करने के उद्देश्य से जुलाई 1943 में इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन (आई.पी.टी.ए.)की स्थापना की गयी। महाराष्ट्र, कर्नाटक और केरल में भी इस कला का विकास हुआ। अब लघु एवं एकांकी नाटक अधिक लोकप्रिय होने लगे। भारतीय रंगमंच के विकास में विभिन्न भाषाओं के नाटककारों का प्रमुख योगदान रहा है। इन नाटककारों में भीष्म साहनी (हिन्दी), मोहन राकेश (हिन्दी), उपेन्द्रनाथ अश्क (हिन्दी), बादल सरकार (बंगला), गिरीश कर्नाड (कन्नङ), इन्दिरा पार्थ सारथी (तमिल) आदि प्रमुख हैं।

चीनी साहित्य

चीन में साहित्यिक क्रांति लाने का श्रेय आई.क्विंग को है, जिन्होंने 1936 से 1957 तक साहित्य सृजन किया। लू ह्सुन एक अन्य लेखक थे जिन्होंने यथार्थवादी कथा साहित्य की रचना की। 1950 के दशक में चीनी समाज अनेक विचारधाराओं के दौर से गुजरा जिसका साहित्य सृजन पर भी प्रभाव पङा।

जापानी साहित्य

जापानी साहित्यकारों में मोरी ओगई और नाटसुमे सोसेकी प्रमुख हैं, जिन्होंने कहानी लेखन को नया आधार प्रदान किया। मध्यकालीन समाज की विसंगतियों एवं आडंबरों का इन्होंने विशेष रूप से चित्रण किया है। इनके अलावा मासाओका शिकी, काफू नागई और यासुनारी, कवाबाटा जापान के प्रमुख रचनाकार और लेखक थे, जिन्होंने जापानी साहित्य को विकसित किया।

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