चालुक्य शासकों के काल में साहित्य, धर्म, कला के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई। ह्वेनसांग चालुक्य राज्य के लोगों को विद्या का व्यसनी बताता है। चालुक्य लेखों में संस्कृत भाषा का प्रयोग मिलता है और यह चालुक्यकाल के अत्यधिक विकसित रूप को प्रकट करता है। महाकूट तथा ऐहोल के लेख क्रमशः अलंकृत गद्य एवं पद्य के विकसित होने के प्रमाण हैं। महाकूट लेख के गद्य की तुलना बाणभट्ट के गद्य से की जा सकती है। इसी प्रकार ऐहोल का प्रशस्तिकार कालिदास तथा भारवि की बराबरी करने का दावा करता है। पुलकेशिन द्वितीय के सामंत गंगराज दुर्वीनीत ने शब्दावतार नामक व्याकरण ग्रंथ की रचना की तथा किरातार्जुनीय के 15वें सर्ग पर टीका लिखी। उसने गुणाढ्य की बृहत्कथा का संस्कृत में अनुवाद भी प्रस्तुत किया था। इस काल के अन्य विद्वानों में पंडित उदयदेव तथा सोमदेवसूरि थे।उदयदेव जैन मतानुयायी तथा प्रसिद्ध व्याकरणाचार्य थे।उनका ग्रंथ जैनेन्द्र-व्याकरण कहा जाता है। सोमदेवसूरि ने यशस्तिलकचंपू तथा नीतिवाक्यामृत नामक प्रसिद्ध ग्रंथों का प्रणयन किया था।सोमदेवसूरि की इन रचनाओं में प्रथम जैन धर्म से संबंधित रचना है। तथा दूसरे का संबंध राजनीति से है। चीनी यात्री ह्वेनसांग भी महाराष्ट्र के लोगों के विद्या-प्रेम की प्रशंसा करता है। विजयादित्य के एक अभिलेख से पता चलता है, कि चालुक्यों की राजधानी बादामी में चौदह विद्याओं में पारंगत हजारों ब्राह्मण निवास करते थे।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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