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नालंदा विश्वविद्यालय प्राचीनतम विश्वविद्यालय

प्राचीन भारत के शिक्षा केन्द्रों में नालंदा विश्वविद्यालय का नाम सर्वाधिक उल्लेखनीय है। बिहार प्रांत की राजधानी पटना के दक्षिण में 40 मील की दूरी पर आधुनिक बङगाँव नामक ग्राम के समीप यह स्थित है। राजगृह से नालंदा 8 मील की दूरी पर है।

नालंदा विश्वविद्यालय एक बौद्ध विहार के रूप में

सर्वप्रथम यहाँ एक बौद्ध – विहार की स्थापना गुप्त काल में करवाई गयी। चीनी यात्री ह्वेनसांग लिखता है, कि इसका संस्थापक शक्रादित्य था, जिसने बौद्ध धर्म के त्रिरत्नों के प्रति महती श्रद्धा के कारण इसकी स्थापना करवायी थी। शक्रादित्य की पहचान कुमारगुप्त प्रथम (415-455ई.) से की जाती है, जिसकी सुप्रसिद्ध उपाधि महेन्द्रादित्य की थी। महेन्द्र तथा शक्र एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। कुमारगुप्त के पुत्र तथा उत्तराधिकारी बुद्धगुप्त (बुधगुप्त) ने अपने पिता के कार्य को जारी रखते हुये इसके दक्षिण में दूसरा विहार बनवाया। उसके बाद उसके पुत्र वज्र ने इस विहार के पश्चिम की ओर एक विहार बनवा दिया। इसके बाद तथागतगुप्त ने पूरब में एक विहार बनवाया तथा फिर बालादित्य ने पूर्वोत्तर दिशा की ओर एक अन्य विहार बनवाया।इसके बाद मध्यभारत के एक शासक ने यहां एक विहार बनवाया तथा सभी विहारों को चारों ओर से घेरते हुये एक चहारदीवारी बनवा दी। चीनी यात्री द्वारा उल्लेखित उपर्युक्त राजाओं में प्रथम पाँच गुप्त वंश से संबंधित हैं, यद्यपि उनकी पहचान तथा क्रम सुनिश्चित नहीं है।मध्य भारत के शासक की पहचान सम्राट हर्ष से की जाती है, जिसने नालंदा में एक ताम्रविहार बनवाया था। ग्यारहवीं शती के अंत तक हिन्दू तथा बौद्ध दाताओं द्वारा नालंदा में मठ तथा विहार बनवाये जाने का क्रम चलता रहा। हर्षकाल तक आते-आते नालंदा महाविहार एक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के विश्वविद्यालय के रूप में विकसित हो गया।

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नालंदा विश्वविद्यालय एक विश्वविद्यालय के रूप में

नालंदा की खुदाई से पता चलता है, कि यहां का विश्वविद्यालय लगभग एक मील लंबे तथा आधा मील चौङे क्षेत्र में स्थित था। भवन, स्तूप एवं विहार वैज्ञानिक योजना के आधार पर बनाये गये थे। विश्वविद्यालय में आठ बङे कमरे तथा व्याख्यान के लिये तीन सौ छोटे कमरे बने हुये थे। तीन भवनों में स्थित धर्मगञ्ज नामक विशाल पुस्तकालय था। नालंदा के भवन भव्य, उत्तुंग तथा बहुमंजिले थे।

ह्वेनसांग का जीवनचरितकार ह्वी-ली यहां के भवनों का अत्यन्त रोचक विवरण प्रस्तुत करता है, जो इस प्रकार है – संपूर्ण संस्थान ईंटों की दीवार से घिरा हुआ है,जो कि पूरे मठ को बाहर से घेरती है। एक द्वार विद्यापीठ की ओर है, जिससे आठ अन्य हाल जो (संघाराम के)बीच में स्थित हैं, अलग किये गये हैं। प्रचुर रूप से अलंकृत मीनारें तथा परियों के समान गुम्बज, पर्वत की नुकीली चोटियों की तरह परस्पर हिले-मिले से खङे हैं। मान मंदिर (प्रातः कालीन) ध्रूम्र में विलीन हुये से लगते हैं तथा ऊपरी कमरे बादलों के ऊपर विराजमान हैं। खिङकियों से कोई देख सकता है, कि किस प्रकार हवा तथा बादल नया-नया रूप धारण करते हैं, और उत्तुंग ओलतियों के ऊपर सूर्य एवं चंद्रमा की कान्ति देखी जा सकती है। गरे तथा पारभासी तालाबों के ऊपर नील कमल खिले हुए हैं, जो गहरे लाल रंग के कनक पुष्पों से मिले हैं तथा बीच-बीच में आम्रकुन्ज चारों ओर अपनी छाया बिखेरते हैं। बाहर की सभी कक्षायें जिनमें श्रमण आवास हैं चार-चार मंजिली हैं। उनके मकारकृत बार्जे, रंगीन ओलतियाँ, सुसज्जित एवं चित्रित मोती के समान लाल स्तंभ, सुअलंकृत लघु स्तंभ तथा खपङों से ढकी हुयी छतें जो सूर्य का प्रकाश सहस्त्रों रूप में आठवीं शती के कन्नौज नरेश यशोवर्मन् के नालंदा से प्राप्त प्रस्तर अभिलेख से हो जाती है, जिसके अनुसार नालंदा की गगनचुम्बी पर्वत शिखर के समान विहारावलियाँ पृथ्वी के ऊपर ब्रह्मा द्वारा विरचित सुन्दर माला के समान शोभायमान हो रही थी। नालंदा में विहारों के अलावा अनेक स्तूप भी थे, जिनमें बुद्ध एवं बौद्धिसत्वों की मूर्तियाँ रखी गयी थी। इस प्रकार इन सभी भवनों के बीच नालंदा विश्वविद्यालय एक विस्तृत क्षेत्र में स्थित था।

ऐसा लगता है, कि शिक्षा केन्द्र के रूप में नालंदा की ख्याति पांचवी शताब्दी से बढी तथा छठी शताब्दी तक आते-आते यह न केवल भारत अपितु अन्तर्राष्ट्रीय जगत में भी प्रतिष्ठित हो गया। चीनी यात्री फाहियान जो चौथी शताब्दी में भारत की यात्रा पर आया, नालंदा का कोई उल्लेख नहीं करता, जबकि उसके दो शताब्दियों बाद आने वाले चीनी यात्री ह्वेनसांग इसकी उच्चशब्दों में प्रशंसा करता है। स्पष्ट है, कि हर्षकाल में नालंदा को पूर्ण राजकीय संरक्षण मिला, जिसके परिणामस्वरूप यह जगत्प्रसिद्ध विश्वविद्यालय बन गया। हर्ष ने एक सौ गाँवों की आय इसके निर्वाह के लिये दिये। चीनी विवरण से पता चलता है, कि इन गांवों के दो सौ गृहस्थ प्रतिदिन कई सो पिकल (एक पिकल = 133⅛ पौण्ड) साधारण चावल तथा कई सौ कट्टी (एक कट्टी =160 पौण्ड) घी और मक्खन नालंदा विश्वविद्यालय को दान में दिया करते थे। इस प्रकार यहाँ के विद्यार्थियों को जीवनोपयोगी वस्तुयें इतनी अधिक मात्रा में सुलभ थी, कि उन्हें मांगने के लिये अन्यत्र नहीं जाना पङता था, तथा वे अपना सारा समय विद्याध्ययन में ही लगाते थे।

नालंदा विश्वविद्यालय में न केवल भारत के कोने-कोने से अपितु चीन, मंगोलिया, तिब्बत, कोरिया, मध्यएशिया आदि देशों से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। ह्वी-ली यहाँ के विद्यार्थियों की संख्या दस हजार बताता है। पता चलता है, कि यहाँ अध्ययन-अध्यापन का स्तर अत्यन्त उच्च कोटि का था। प्रवेश के लिये एक कठिन परीक्षा ली जाती थी, जिसमें दस में दो या तीन विद्यार्थी ही मुश्किल से सफल हो पाते थे। यहाँ के स्नातकों का बङा सम्मान था तथा देश में कोई भी उनकी समानता नहीं कर सकता था।इसी कारण यहां प्रवेश लेने के लिये विद्यार्थियों की अपार भीङ लही रहती थी।

यद्यपि नालंदा महायान बौद्ध धर्म की शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था तथापि यहां अनेक विषयों की शिक्षा भी समुचित रूप से प्रदान की जाती थी। पाठ्यक्रम में महायान तथा बौद्धधर्म के अठारह समंप्रदायों के ग्रंथों के आलावा वेद, हेतुविद्या, शब्दविद्या, योगशास्त्र चिकित्सा, तंत्रविद्या, सांख्य दर्शन के ग्रंथों आदि की शिक्षा व्याख्यानों के माध्यम से दी जाती थी। विभिन्न विषयों के प्रकाण्ड विद्वान प्रतिदिन सैकङों व्याख्यान देते थे, जिसमें प्रत्येक विद्यार्थी को उपस्थित होना आवश्यक था।

ह्वेनसांग द्वारा विवरण

ह्वेनसांग जिसने स्वयं यहाँ 18 महीने तक रहकर अध्ययन किया लिखता है, कि यहाँ सैकङों की संख्या में अत्यन्त उच्चकोटि के विद्वान निवास करते हैं। एक हजार व्यक्ति ऐसे ते, जो सूत्रो और शास्त्रों के बीस संग्रहों का अर्थ समझा सकते थे, 500 संग्रहों की व्याख्या कर सकते थे। इन सभी में शीलभद्र अकेले ऐसे थे, जो सभी संग्रहों के ज्ञाता थे। इस प्रकार विभिन्न विद्याओं, विचारों एवं विश्वासों में सामंजस्य स्थापित करना विश्वविद्यालय की प्रमुख विशेषता थी। यहाँ विचारों एवं विश्वासों की स्वतंत्रता तथा सहिष्णुता की भावना विद्यमान थी। ह्वेनसांग के समय शीलभद्र ही विश्वविद्यालय के कुलपति थे। चीनी यात्री उनके चरित्र तथा विद्वता की काफी प्रशंसा करता है। वे सभी विषयों के प्रकाण्ड विद्वान थे। उसने स्वयं शीलभद्र के चरणों में बैठकर अध्ययन किया था। वह उन्हें सत्य एवं धर्म का भंडार कहता है। यहां के अन्य विद्वानों में धर्मपाल ( जो शीलभद्र के गुरु तथा उनके पूर्वगामी कुलपति थे ), चंद्रपाल, गुणमति, स्थिरमति, प्रभामित्र, जिनमित्र, ज्ञानचंद्र आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इन सभी की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुयी थी। ये सभी विद्वान मात्र अच्छे शिक्षक ही नहीं, थे अपितु विभिन्न ग्रंथों के रचयिता भी थे। इनकी रचनाओं का समकालीन विश्व में बङा सम्मान था। इन प्रसिद्ध आचार्यों के अलावा नालंदा में अन्य अनेक विद्वान भी थे, जिन्होंने विद्या के प्रकाश से पूरे देश को आलोकित किया।

नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्कतालय में ग्रंथों का विशाल संग्रह तथा प्राचीन पाण्डुलिपियां सुरक्षित थी। चीनी यात्रियों के इसके प्रति आकर्षण का एक कारण यह था, कि उन्हें यहां बौद्ध ग्रंथों की पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध हो जाती थी।

इत्सिंग ने यहाँ रहकर 400 संस्कृत ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ तैयार की थी। यहाँ का धर्मगंज नामक पुस्तकालय तीन भव्य भवनों – रत्नसागर, रत्नोदधि तथा रत्नरंजक में स्थित था।

विश्वविद्यालय का प्रशासन चलाने के लिये दो परिषदें थी – बौद्धिक तथा प्रशासनिक । इन दोनों के ऊपर कुलपति होता था। विश्वविद्यालय का खर्च शासकों तथा अन्य दाताओं द्वारा प्रदान किये गये ग्रामों के राजस्व से चलता था। इत्सिंग के समय इसके अधिकार में दो सौ गाँवों का राजस्व था। खुदाई में कुछ गाँवों की मुहरें तथा पत्र मिले हैं,जो विश्वविद्यालय को संबोधित करके लिखे गये हैं।

इस प्रकार नालंदा अपने ढंग का अद्भुत एवं निराला विश्वविद्यालय था। हर्ष के बाद लगभग बारहवीं शती तक इसकी ख्याति बनी रही। मंदसोर प्रस्तर लेख (8वीं शती.) से पता चलता है, कि सभी नगरों में नालंदा अपने विद्वानों के कारण, जो विभिन्न धर्मग्रंथों तथा दर्शन के क्षेत्र में निष्णात थे, सबसे अधिक ख्याति प्राप्त किये हुये था। नवीं शती में भी यह अन्तर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि प्राप्त किये हुये था। पता चलता है, कि इसकी ख्याति से आकर्षित होकर जावा एवं सुमात्रा के शासक बालपुत्रदेव ने नालंदा में एक मठ बनवाया तथा उसके निर्वाह के लिये अपने मित्र बंगाल के पाल नरेश देवपाल से पांच गांव दान में दिलवाये। ग्यारहवीं शती के पाल शासकों ने नालंदा के स्थान पर विक्रमशिला को राजकीय संरक्षण देना प्रारंभ कर दिया, जिससे नालंदा का महत्त्व घटने लगा। तिब्बती स्त्रोतों से पता चलता है, कि इस समय से नालंदा पर तंत्रयान का प्रभाव बढने लगा। इस कारण भी नालंदा की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँची। अन्ततः बारहवीं शती के अंत में मुस्लिम आक्रान्ता बख्तियार खिलजी ने इस विश्वविद्यालय को ध्वस्त कर दिया।यहां के भिक्षुओं की हत्याकर दी गयी तथा बहुमूल्य पुस्तकालय को जला दिया गया। इस प्रकार एक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के शिक्षा केन्द्र का अंत दुखद हुया।

नालंदा विश्वविद्यालय के विद्वानों की सबसे बङी उपलब्धि यह है, कि उन्होंने तिब्बत में बौद्धधर्म एवं भारतीय संस्कृति का प्रचार किया। आठवीं शती से नालंदा के विद्वान तिब्बत में बैद्ध धर्म के प्रचारार्थ जाने लगे। नालंदा में तिब्बती भाषा का अध्ययन भी प्रारंभ हो गया।

तिब्बत में बौद्ध धर्म के प्रचारकों में सर्वप्रथम चंद्रगोमिन का नाम उल्लेखनीय है। उनके ग्रंथों का तिब्बती भाषा में अनुवाद किया गया। नालंदा के दूसरे बौद्ध विद्वान शांतरक्षित आठवीं शती के मध्य तिब्बत नरेश के निमंत्रण पर वहां गये तथा बौद्धधर्म का उपदेश दिया। उन्हीं के निर्देशन में प्रथम तिब्बती बौद्धमठ निर्मित कराया गया। इस मठ में अध्यक्ष के रूप में जीवनपर्यंत रहते हुये शांतिरक्षित ने तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रचार -प्रसार किया। उनके इस कार्य में नालंदा से ही शिक्षित कश्मीरी भिक्षु पद्मसंभव ने भरपूर सहायता प्रदान की।

इस प्रकार नालंदा प्राचीन शिक्षा का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण केन्द्र था, जिसकी ख्याति न केवल भारत अपितु विदेशों में भी फैली हुयी थी। वस्तुतः यह एक विश्वभारतीय था, जहाँ से संपूर्ण देश में संस्कृति का प्रसार होता था। यहाँ के विद्वानों की महानता, उदारता एवं पाण्डित्य के परिणामस्वरूप नालंदा का नाम ही तत्कालीन विश्व में विद्या के सर्वोच्च एवं सर्वोत्तम गुणों का पर्याय बन गया था।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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