इतिहासप्राचीन भारत

प्राचीन भारतीय शिक्षा के पाठ्यक्रम

ऋग्वैदिक अथवा पूर्व-वैदिक काल में शिक्षा का मुख्य पाठ्यक्रम वैदिक साहित्य का अध्ययन ही था। पवित्र वैदिक ऋचाओं के अलावा इतिहास,पुराण तथा नाराशंसी गाथायें एवं खगोल-विद्या, ज्यामिति,छंदशास्त्र आदि भी अध्ययन के विषय थे।

वैदिक साहित्य का अध्ययन नौ या दस वर्ष की अवस्था में प्रारंभ होता था। यही उपनयन का भी समय था। उत्तर वैदिक साहित्य के अध्ययन को सरल बनाने के निमित्त छः वेदांगों की रचना हुई- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष

6 वेदांग तथा इनका संक्षिप्त परिचय

सूत्र युग के अंत तक आते-आते वैदिक साहित्य का अध्ययन कम हो गया तथा उसके स्थान पर अन्यान्य विषयों का समावेश पाठ्यक्रम में कर लिया गया। दर्शन, धर्मशास्त्र, महाकाव्य (रामायण और महाभारत), व्याकरण, खगोलविद्या, मूर्तिकला, वैद्यक, पोतनिर्माण कला के क्षेत्र में प्रगति हुई। विभिन्न व्यवसायों तथा शिल्पों की भी शिक्षा का प्रबंध किया गया। धार्मिक तथा लौकिक विषयों की शिक्षा में समन्वय स्थापित किया गया। इस युग के स्नातक वेदों तथा 18 शिल्पों में निपुण होते थे। अट्ठारह शिल्प निम्नलिखित थे-

  1. गायन
  2. वादन
  3. चित्रकला
  4. गणित
  5. नृत्य
  6. गणना
  7. यंत्र
  8. मूर्तिकला
  9. कृषि
  10. पशुपालन
  11. वाणिज्य
  12. चिकित्सा
  13. विधि
  14. प्रशासनकि प्रशिक्षण
  15. धनुर्विद्या
  16. जादूगरी
  17. सर्पविद्या तथा विष से दूर करने की विधि
  18. छिपे हुये धन के पता लगाने की विधि

वात्स्यायन के कामसूत्र से 64 कलाओं का उल्लेख मिलता है, जिनका अध्ययन सुसंस्कृत महिला के लिये अनिवार्य बताया गया है। ये पाकविद्या, शारीरिक प्रसाधन, संगीत, नृत्य, चित्रकला, सफाई, सिलाई-कढाई, व्यायाम, मनोरंजन आदि से संबंधित हैं। कामसूत्र के अलावा कादंबरी, शुक्रनीतिसार, ललितविस्तार आदि में भी 64 कलाओं का उल्लेख मिलता है।

कादंबरी की रचना किसने की?

प्रचीन भारतीय साहित्य तथा विदेशी यात्रियों के विवरण से पता चलता है, कि यहाँ शिक्षा के पाठ्यक्रम में चार वेद, छः वेदांग, 14 विधायें, 18 शिल्प, 64 कलायें सम्मिलित थे। 14 विधाओं से तात्पर्य चार वेद, 6 वेदांग, धर्मशास्त्र, पुराण, मीमांसा तथा तर्क से है।

ह्वेनसांग तथा अलबरूनी के विवरण से पता चलता है, कि व्याकरण तथा ज्योतिष की शिक्षा का भारत में बहुत अधिक प्रचलन था। इन विषयों से संबंधित विद्वानों का समाज में बङा सम्मान था। राजदरबार में भी कई ज्योतिषी निवास करते थे। शिक्षा केन्द्रों में धार्मिक विषयों के साथ ही साथ लौकिक विषयों की भी पढाई सुचारु रूप से होती थी। तक्षशिला में वैदिक साहित्य के साथ-साथ 18 शिल्पों की भी शिक्षा दी जाती थी। इस प्रकार विद्यार्थी साहित्य का अध्ययन करके स्वतंत्र रूप से जीविका कमाने योग्य बन जाते थे।

ह्वेनसांग की भारत यात्रा का वर्णन

अलबरूनी कौन था?

वैदिक युग में प्रारंभ में शिक्षा मौखिक होती थी तथा पवित्र मंत्रों को कंठस्थ करने पर बल दिया जाता था। पुरोहित वर्ग के लोग विशेष रूप से मंत्रों को याद कर लिया करते थे। सामान्य जन केवल कुछ प्रसिद्ध मंत्रों को ही याद किया करता था। कालांतर में मंत्रों को याद करने के साथ ही साथ उनकी व्याख्या के ज्ञान पर भी बल दिया गया। निरुक्त में ऐसे व्यक्ति की निन्दा की गयी है, जो मंत्रों की व्याख्या जाने बिना ही उन्हें याद करते हैं। शास्त्रार्थ के निमित्त गोष्ठियों का आयोजन किया जान लगा, जिसमें विद्यार्थी बहुधा भाग लेते थे। उपनिषद् तथा सूत्रों के समय में वेदों को अपौरुषेय माना गया तता वैदिक मंत्रों के शुद्ध-शुद्ध उच्चारण किेय जाने पर बल दिया गया। साहित्य की व्यापकता के कारण कुछ विद्यार्थी केवल वेदों को याद करते थे तथा कुछ उनकी टीका से संबंधित ग्रंथों का अध्ययन करते थे। प्राचीन समय में कागज तथा छपाई के साधनों के अभाव में पुस्तकें अत्यन्त महँगी थी, जिससे साधारण विद्यार्थी उन्हें प्राप्त नहीं कर सकते थे। पुस्तकालयों का भी अभाव था। ऐसी स्थिति में मौखिक शिक्षा ही सबसे सरल तथा सही माध्यम थी। इस विधि से विद्यार्थी पाणिनीय व्याकरण, अमरकोश, मनुस्मृति, काव्य प्रकाश जैसे ग्रंथों को कंठस्थ कर लेते थे। विद्वान वही माना जाता था, जिसकी जिह्वा पर समस्त विद्यायें रटी हुई हों। प्राचीन काल के लेखक भी यही अभिलाषा रखते थे, कि उनकी रचनायें विद्वानों का कण्ठाभूषण बनें।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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