गुप्त काल में साहित्य तथा विज्ञान का विकास
गुप्तयुग में साहित्य और विज्ञान के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई। गुप्त साम्राज्य की स्थापना के साथ ही संस्कृत भाषा की उन्नति को बल मिला तथा यह राजभाषा के पद पर आसीन हुई। गुप्त शासक स्वयं संस्कृत भाषा और साहित्य के प्रेमी थे तथा उन्होंने योग्य कवियों, लेखकों एवं साहित्यकारों को राज्याश्रय प्रदान किया।
प्रयाग प्रशस्ति समुद्रगुप्त को कविराज कहती है, जिसकी रचनायें विद्वानों की जीविका की स्रोत थी। परंतु दुर्भाग्यवश हमें उसका किसी भी रचना के विषय में पता नहीं है। चंद्रगुप्त द्वितीय भी बङा विद्वान एवं साहित्यानुरागी था, जिसकी राजसभा नवरत्नों से अलंकृत थी।
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गुप्तयुगीन कवियों में सबसे पहला उल्लेख उनका किया जाता है, जिनकी रचनायें तो हमें प्राप्त नहीं हैं, लेकिन जिनके विषय में मात्र हम उनके द्वारा रचित प्रशस्तियों से ही जानते हैं। ये प्रशस्तियाँ संस्कृत काव्य का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। इस प्रकार के कवियों में तीन नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं-
हरिषेण
हरिषेण समुद्रगुप्त का सेनापति एवं विदेश सचिव था। उसकी सुप्रसिद्ध कृति प्रयाग-प्रशस्ति है, जिसे इसमें काव्य कहा गया है। इस प्रकार साहित्य और इतिहास दोनों ही दृष्टियों से प्रयाग-प्रशस्ति का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है।
वीरसेन ‘शाब’,
वीरसेन चंद्रगुप्त द्वितीय का युद्ध-सचिव था। उसकी रचना उदयगिरि गुहालेख है, जिसमें उसे शब्द, अर्थ, न्याय, व्याकरण, राजनीति आदि का मर्मज्ञ, कवि एवं पाटलिपुत्र का निवासी कहा गया है।
वत्सभट्टि
वत्सभट्टि कुमारगुप्त प्रथम का दरबारी कवि था। वह संस्कृत का प्रकांड विद्वान था, जिसने मंदसोर प्रशस्ति की रचना की थी। इसकी रचना मालव संवत् 529 (472 ईस्वी) में की गयी। इसमें दशपुर में सूर्य मंदिर बनवाये जाने का वर्णन है। प्रशस्ति में कुल 44 श्लोक हैं।
इन लेखकों के अलावा कालिदास को भी गुप्त युग का ही लेखक माना गया है। कालिदास गुप्त शासक चंद्रगुप्त द्वितीय का समकालीन था। कालिदास ने सात ग्रंथों की रचना की थी जो निम्नलिखित हैं-
- रघुवंश,
- कुमारसंभवम्,
- मेघदूत,
- ऋतुसंहार,
- मालविकाग्निमित्रम्,
- विक्रमोवर्शीय,
- अभिज्ञान शाकुन्तलम्।
इनमें प्रथम दो महाकाव्य, दो खंडकाव्य(गीतिकाव्य) तथा तीन नाटक ग्रंथ हैं। कालिदास की उपमायें संस्कृत साहित्य में प्रसिद्ध हैं, जैसा कि कहा भी गया है – उपमा कालिदास्स्य ………। कालिदास को भारत का शेक्सपीयर कहा जाता है।
कालिदास के अलावा गुप्तकाल में कुछ अन्य लेखक भी प्रसिद्ध हुए हैं जो इस प्रकार हैं- भारवि, शूद्रक एवं विशाखादत्त।
भारवि
भारवि ने 18 सर्गों का किरातार्जुनीय महाकाव्य लिखा।
शूद्रक
शूद्रक ने मृच्छकटिकम नाटक लिखा।
विशाखादत
विशाखादत इस काल के प्रसिद्ध नाटककार हुए, जिन्होंने मुद्राराक्षस एवं देवीचंद्रगुप्तम् नामक नाटक ग्रंथों की रचना की। ये दोनों ग्रंथ राजनीतिक घटनाओं से परिपूर्ण हैं।
सुबंधु
सुबंधु ने वासवदत्ता की रचना की।
गुप्तकालमें धार्मिक ग्रंथों में याज्ञवल्क्य, नारद, कात्यायन, बृहस्पति आदि की स्मृतियों का उल्लेख किया जा सकता है।
गुप्तकाल में ही पुराणों के वर्तमान रूप का संकलन हुआ तथा रामायण और महाभारत को भी अंतिम रूप प्रदान किया गया।
बंगाल के विद्वान चंद्रगोमिन ने चांद्रव्याकरण नामक संस्कृत व्याकरण ग्रंथ की रचना की।
अमरसिंह ने अमरकोश लिखा।
विष्णुवर्मा ने पंचतंत्र की रचना की।
कामंदक ने नीतिसार तथा वात्स्यायन ने कामसूत्र की रचना की।
जैन तथा बौद्ध लेखकों ने भी कई रचनायें गुप्तकाल में करी थी।
गुप्त काल में विज्ञान का विकास
गुप्त युग में विज्ञान की विविध शाखाओं – अंकगणित, ज्योतिष, रसायन, धातु-विज्ञान आदि का विकास हुआ। इस समय के प्रसिद्ध गणितज्ञ आर्यभट्ट थे, जिनकी प्रमुख कृति आर्यभट्टीयम है। इन्होंने गणित के विविध नियमों का प्रतिपादन किया तथा सर्वप्रथम यह खोज की कि पृथ्वी अपनी धुरी के चारों ओर परिभ्रमण करती है।
वाराहमिहिर
प्रख्यात् ज्योतिषाचार्य वाराहमिहिर गुप्त युग के अन्यतम विभूति थे।उनकी सर्वप्रमुख रचना बृहज्जातक है। उन्होंने विभिन्न ग्रहों एवं नक्षत्रों की स्थिति पर विचार किया। वाराहमिहिर की अन्य रचनाओं में पंचसिद्धांतिका, बृहस्संहिता, लघुजातक आदि प्रमुख हैं।
पंचसिद्धांतिका में उस समय भारत में प्रचलित ज्योतिष के सिद्धांतों का विवरण मिलता है।
मेहरौली लौह स्तंभलेख
चंद्रगुप्त द्वितीय का मेहरौली लौह स्तंभलेख गुप्तकालीन धातु – विज्ञान के समुन्नत होने का ज्वलंत प्रमाण है। यह लगभग डेढ हजार वर्षों से सर्दी, गर्मी एवं बरसात को झेलता हुआ ज्यों-का-त्यों पङा हुआ है, और इस पर किसी प्रकार की जंग नहीं लगने पाई है। इस स्तंभ-लेख की पॉलिश आज भी धातु वैज्ञानिकों के लिये आश्चर्य की वस्तु बनी हुई है।
Reference : https://www.indiaolddays.com