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प्रयाग प्रशस्ति का लेखक कौन था

चंद्रगुप्त प्रथम के बाद उसका सुयोग्य पुत्र समुद्रगुप्त साम्राज्य की गद्दी पर बैठा। वह लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी से उत्पन्न हुआ था। समुद्रगुप्त न केवल गुप्त वंश के बल्कि संपूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास के महानतम शासकों में गिना जाता है। निःसंदेह उसका काल राजनैतिक तथा सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जा सकता है।

समुद्रगुप्त की जानकारी का प्रमुख साधन-

प्रयाग प्रशस्ति-

समुद्रगुप्त के इतिहास का सर्वप्रमुख स्रोत उसी का अभिलेख है, जिसे इलाहाबाद स्तंभलेख अथवा प्रयाग प्रशस्ति कहा जाता है। इसकी रचना उसके संधिविग्रहिक सचिव हरिषेण ने की थी। कनिंघम के मतानुसार यह लेख मूलतः कौशांबी में खुदवाया गया था। इस मत के समर्थन में दो प्रमाण प्रस्तुत किये जा रहे हैं-

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  1. अभिलेख के ऊपरी भाग में मौर्य शासक अशोक का एक लेख अंकित है, जिसे उसने कौशांबी में खुदवाया था।
  2. चीनी यात्री हुएनसांग अपने प्रयाग विवरण में इसका उल्लेख नहीं करता।

प्रयाग प्रशस्ति में कोशल के शासक के रूप में महेन्द्र की चर्चा है। कोशल का अभिप्राय दक्षिण कोशल से है, जिसमें आधुनिक मध्य प्रदेश के विलासपुर, रायपुर और सम्बलपुर शामिल थे। इसकी राजधानी सिरपुर थी। दक्षिण कोशल को समुद्रगुप्त ने जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था। समुद्रगुप्त का कार्यकाल (335—375 ई.) तक था। इसे भारत का नेपोलियान कहा गया है।

मध्यकाल में मुगल शासक अकबर ने इसे कौशांबी से मंगाकर इलाहाबाद के किले में सुरक्षित करा दिया । प्रयाग स्तंभ पर समुद्रगुप्त के लेख के अलावा अशोक के छः मुख्य लेखों का एक संस्करण, रानी का अभिलेख, कौशांबी के महापात्रों को संघ भेद रोकने संबंधी आदेश, जहांगीर का एक लेख तथा परवर्ती काल का एक देवनागरी लेख भी उत्कीर्ण मिलता है।

मौर्य शासक अशोक और उसका बौद्ध धर्म।

प्रयाग प्रशस्ति के प्रारंभ में अशोक का लेख मिलता है। इसमें बौद्ध संघ के विभेद को रोकने के लिये कौशांबी के महामात्रों को दिया गया आदेश है। उसके बाद समुद्रगुप्त का लेख अंकित है। यह ब्राह्मी लिपि में तथा विशुद्ध संस्कृत भाषा में लिखा हुआ है।

प्रशस्ति की प्रारंभिक पंक्तियाँ पद्यापत्मक तथा बाद की गद्यात्मक है। इस प्रकार यह संस्कृत की चंपू शैली का एक सुंदर उदाहरण है। इसे काव्य कहा गया है। प्रशस्ति की भाषा प्राज्जल एवं शैली मनोरम है। न केवल इतिहास अपितु साहित्य की दृष्टि से भी यह अभिलेख अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

प्रयाग प्रशस्ति में किया गया वर्णन निम्नलिखित है-

  • इस लेख में समुद्रगुप्त की मृत्यु की तिथि नहीं दी गयी है।
  • इसमें अश्वमेघ यज्ञ का उल्लेख नहीं मिलता जबकि समुद्रगुप्त के सिक्कों में पता चलता है, कि उसने अश्वमेघ यज्ञ किया था।
  • अभिलेख के अंत में यह उल्लिखित मिलता है, कि इस काव्य की रचना उस व्यक्ति ने की है, जो परमभट्टारक के चरणों का दास था। तथा जिसकी बुद्धि स्वामी के समीप कार्यरत रहने के कारण खुल गयी थी।
  • इस प्रशस्ति की रचना समुद्रगुप्त के जीवनकाल में ही की गयी थी।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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