गुप्त शासक चंद्रगुप्त प्रथम का इतिहास
महाराज घटोत्कच का पुत्र और उत्तराधिकारी चंद्रगुप्त प्रारंभिक गुप्त शासकों में सर्वाधिक शक्तिशाली था। राज्यारोहण के बाद उसने अपनी महत्ता सूचित करने के लिये अपने पूर्वजों के विपरीत महाराजाधिराज की उपाधि ग्रहण की।
लिच्छवियों के साथ वैवाहिक संबंध-
चंद्रगुप्त के शासन काल की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना गुप्तों तथा लिच्छवियों के बीच वैवाहिक संबंध की स्थापना की है। चंद्रगुप्त एक दूरदर्शी सम्राट था। लिच्छवियों का सहयोग और समर्थन प्राप्त करने के लिये उसने उनकी राजकुमारी कुमारदेवी के साथ अपना विवाह किया।
इस वैवाहिक संबंध की पुष्टि दो प्रमाणों से होती है-
- एक प्रकार के स्वर्ण सिक्के जिन्हें चंद्रगुप्त – कुमारदेवी प्रकार, लिच्छवि प्रकार, राजा-रानी प्रकार, विवाह प्रकार आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है। इस प्रकार के लगभग 25 सिक्के गाजीपुर, टांडा (फैजाबाद), मथुरा, वाराणसी, अयोध्या, सीतापुर तथा बयाना (राजस्थान के भरतपुर जिले में स्थित) से प्राप्त किये गये हैं। उल्लेखनीय है कि हाल ही में इस प्रकार का एक चाँदी का सिक्का भी प्रकाश में आया है। सिक्के की बनावट तथा आकार-प्रकार स्वर्णमुद्रा जैसी ही है। यदि इसे स्वीकार कर लिया जाय तो हमें यह मान लेना पङेगा कि गुप्तवंश में सर्वप्रथम चंद्रगुप्त प्रथम ने ही रजत मुद्राओं का प्रचलन करवाया था, न कि चंद्रगुप्त द्वितीय ने, जैसा कि अभी तक माना जाता रहा है। रजत मुद्रायें भारत में गुप्तों के पूर्व की भी प्राप्त हुई हैं। इन सिक्कों के मुख भाग पर चंद्रगुप्त तथा कुमारदेवी की आकृतियाँ उनके नामों के साथ-2 अंकित हैं और पृष्ठ भाग पर सिंहवाहिनी देवी के साथ-2 मुद्रालेख लिच्छवः उत्कीर्ण है।
- समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख में उसे लिच्छवि दौहित्र (लिच्छवि कन्या से उत्पन्न) बताया गया है।
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चंद्रगुप्त प्रथम की विजय-
चंद्रगुप्त प्रथम की विजयों के विषय में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती। वायुपुराण में किसी गुप्त राजा की साम्राज्य सीमा का वर्णन करते हुए बताया गया है, कि गुप्तवंश के लोग गंगा के किनारे प्रयाग तक तथा साकेत और मगध के प्रदेशों पर शासन करेंगे। जिस साम्राज्य सीमा का उल्लेख यहाँ हुआ है, उसका विस्तार पूर्व में मगध से लेकर पश्चिम में प्रयाग तक था। स्पष्ट है कि यह साम्राज्य सीमा चंद्रगुप्त प्रथम के समय की ही है, क्योंकि उसके पूर्ववर्ती दोनों शासक अत्यंत साधारण स्थिति के थे तथा उसके बाद के शासक समुद्रगुप्त का साम्राज्य इससे कहीं अधिक विस्तृत था।
प्रयाग प्रशस्ति आर्यावर्त तथा दक्षिणापथ में समुद्रगुप्त की विजयों का तो उल्लेख करती हैं, किन्तु पश्चिम की ओर प्रयाग के पूर्व में गंगा नदी तक के भू-भाग की विजयों की चर्चा इसमें नहीं मिलती। इससे स्पष्ट होता है, कि यह भाग चंद्रगुप्त के अधिकार में था। कौशांबी तथा कोशल के मघ राजाओं को चंद्रगुप्त ने जीतकर उनके राज्यों पर अपना अधिकार कर लिया था।
गुप्त संवत् का प्रवर्त्तन
चंद्रगुप्त प्रथम को इतिहास में एक नये संवत् के प्रवर्त्तन का श्रेय भी दिया जाता है। जिसे बाद के लेखों में गुप्त संवत् (गुप्त – प्रकाल) कहा गया है। फ्लीट की गणना के अनुसार इस संवत् का प्रचलन 319-20 में किया गया था। इसके विपरीत शाम शास्त्री जैसे विद्वानों ने इस तिथि को 200 अथवा 272 ईस्वी माना है।
चंद्रगुप्त प्रथम ने लगभग 319 ईस्वी से 350 ईस्वी तक शासन किया । उसने अपने जीवन-काल में ही अपने सुयोग्य पुत्र समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी निर्वाचित कर दिया। निःसंदेह वह अपने वंश का प्रथम महान् शासक था। हम चंद्रगुप्त प्रथम को गुप्त साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक मान सकते हैं।
Reference : https://www.indiaolddays.com/