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समुद्रगुप्त का राज्यारोहण तथा समुद्रगुप्त की विजय

प्रयाग प्रशस्ति के प्रारंभ में 8 श्लोक प्राप्त होते हैं, जिनमें से कुछ खंडित अवस्था में हैं। चतुर्थ श्लोक में चंद्रगुप्त प्रथम द्वारा समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारी चुने जाने का विवरण प्राप्त होता है। इस विवरण से पता चलता है, कि चंद्रगुप्त ने अपना उत्तराधिकारी चुनने के लिये अपने सभासदों की एक सभा बुलाई।

प्रयाग प्रशस्ति का लेखक कौन था ?

समुद्रगुप्त भारत का नेपोलियन।

चंद्रगुप्त प्रथम समुद्रगुप्त के गुणों पर इतना अधिक मुग्ध था, कि भरी सभा में उसने गले से लगाते हुए यह घोषणा की आर्य तुम योग्य हो, पृथ्वी का पालन करो।

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प्रशस्तिकार ने आगे लिखा है, कि जहाँ इस घोषणा से चंद्रगुप्त के दरबारी प्रसन्न हुए वहीं अन्य राजकुमार दुःखी हो गये।

इस विवरण से यह स्पष्ट होता है, कि समुद्रगुप्त को अपने अन्य भाईयों से उत्तराधिकारी का युद्ध लङना पङा था।इस विद्रोह का नेतृत्व काच नामक उसके भाई ने किया था। काच नामधारी कुछ सिक्के प्राप्त होते हैं। इनके मुख भाग पर राजा की आकृति तथा मुद्रालेख तथा पृष्ठ भाग पर सर्वराजोच्छेता (समस्त राजाओं का उन्मूलन करने वाला) विरुद अंकित है। इस काच नामक राजा के बारे में पूरी तरह से जानकारी प्राप्त नहीं होती है, सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है।

समुद्रगुप्त द्वारा किये गये युद्ध एवं विजयें निम्नलिखित हैं-

आर्यावर्त्त का प्रथम युद्ध

दक्षिणापथ का युद्ध

आर्यावर्त्त का द्वितीय युद्ध

आटविक राज्यों की विजय

प्रत्यंत (सीमावर्ती) राज्यों की विजय

विदेशी शक्तियों से समुद्रगुप्त के संबंध-

प्रशस्ति की तेईसवीं-चौबीसवीं पंक्तियों में कुछ विदेशी शक्तियों के नाम दिये गये हैं। जिनके विषय में यह बताया गया है,कि वे शक्तियाँ स्वयं को सम्राट की सेवा में उपस्थित होना, कन्याओं के उपहार एवं अपने-2 राज्यों में शासन करने के निमित्त गरुङ के चित्र से चित्रित मुद्रा, राजाज्ञा के लिये प्रार्थना करना, आदि विविध उपायों द्वारा समुद्रगुप्त की सेवा किया करती थी।

ये विदेशी शक्तियाँ निम्नलिखित थी-

दैवपुत्रषाहिषाहानुषाहि

इससे तात्पर्य कुषाणों से है। कुषाण गुप्तों के समय पश्चिमी पंजाब में निवास करते थे तथा उनका शासक देवपुत्र, षाहि एवं षाहानुषाहि की उपाधियाँ ग्रहण करता था। समुद्रगुप्त का समकालीन कुषाण नरेश किदार कुषाण था, जो पेशावर क्षेत्र का राजा था।

किन्तु जैसा कि डी.आर.भंडारकर ने बताया है, मूल शब्द देवपुत्र न होकर दैवपुत्र है। इससे तात्पर्य कुषाण शासकों की प्रसिद्ध राजकीय उपाधि देवपुत्रमहाराजाधिराज प्रतीत होता है।

आर.सी.मजूमदार के अनुसार उत्तर-पश्चिमी भारत में गङहरनरेश समुद्रगुप्त की अधीनता मानता था। उसकी एक मुद्रा पर समुद्र उत्कीर्ण है।

शक

शक लोग गुप्तों के समय में पश्चिमी मालवा, गुजरात तथा काठियावाङ के शासक थे। समुद्रगुप्त का समकालीन शासक रुद्रसिंह तृतीय (348-378ईस्वी) था।

मरुण्ड

स्टेनकोनों के मतानुसार मुरुण्ड शब्द चीनी वंग का पर्यायवाची है, जिसका अर्थ स्वामी होता है। इस प्रकार शकमुरुण्ड का तात्पर्य शक-शासक से है। परंतु यह मत असंगत है, क्योंकि गुप्तों के पूर्व मुरुण्ड जाति का स्वतंत्र अस्तित्व था।

सिंहल

सिंहल से तात्पर्य लंकाद्वीप से है। समुद्रगुप्त का समकालीन लंका नरेश मेघवर्ण था। चीनी स्रोतों से पता चलता है,कि उसने समुद्रगुप्त के पास उपहारों सहित एक दूत-मंडल भेजा था। गुप्तनरेश की आज्ञा से उसने बोधिवृक्ष के उत्तर में लंका के बौद्ध भिक्षुओं के लिये एख भव्य विहार बनवाया था।

सिंहल के अतिरिक्त कुछ और भी द्वीपों ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली थी, क्योंकि प्रशस्ति में सिंहल के बाद आदि सर्वद्वीपवासिभइः उल्लिखित मिलता है। इसका संकेत दक्षिण-पूर्वी एशिया के द्वीपों से है। यहाँ से हिन्दू उपनिवेशों के शासक इस समय अपनी मातृभूमि से संबंध बनाये हुये थे।

शकों एवं कुषाणों ने समुद्रगुप्त की अधीनता मानी थी। कुछ कुषाण मुद्राओं पर समुद्र तथा चंद्र नाम अंकित है। तथा शकों के कुछ सिक्के भी गुप्त प्रकार के हैं।

अश्वमेघ यज्ञ-

अपनी विजयों से निवृत्त होने के बाद समुद्रगुप्त ने अश्वमेघ यज्ञ किया। लगता है,कि इस यज्ञ का अनुष्ठान प्रशस्ति लिखे जाने के बाद हुआ और इसी कारण उसमें इसका उल्लेख नहीं मिलता।

स्कंदगुप्त के भितरी लेख में समुद्रगुप्त को चिर काल से छोङे गये अश्वमेघ यज्ञ को करने वाला कहा गया है।

गुप्तों के पूर्व पुष्यमित्र शुंग ने दो अश्वमेघ यज्ञ किये थे। समुद्रगुप्त के अश्वमेघ प्रकार के सिक्के उसके द्वारा अश्वमेघ यज्ञ किये जाने के प्रमाण हैं। इनके मुख भाग पर यज्ञ-यूप में बंधे हुये अश्व की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर मुद्रालेख अश्वमेघ-पराक्रमः (अश्वमेघ ही जिसका पराक्रम है) उत्कीर्ण मिलता है।

प्रभावती गुप्ता के पूना ताम्रलेख में समुद्रगुप्त को अनेक अश्वमेघ यज्ञों को करने वाला कहा गया है।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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