इतिहासराजस्थान का इतिहास

ब्रिटिश आधिपत्य में न्याय व्यवस्था कैसी थी

ब्रिटिश आधिपत्य में न्याय व्यवस्था – राजस्थानी राज्यों की परंपरागत न्याय व्यवस्था में न्याय और शासन और शासन विभाग एक ही थे। न्यायालयों में, मुकदमों का लिखित रिकार्ड नहीं रखा जाता था तथा गवाही देने के नियम भी सरल थे। गवाही देने के लिए पृथक से गवाही अधिनियम नहीं था। इस संदर्भ में डॉ. जैन लिखते हैं कि, अपराध को व्यक्ति के विरुद्ध अपराध माना जाता था, समाज के विरुद्ध नहीं। कानून के समक्ष बराबर नहीं थे। एक ही अपराध के लिये दंड देते समय दोनों अपराधी और जिसके विरुद्ध अपराध किया गया था, की सामाजिक स्थिति देखकर ही दंड दिया जाता था। डॉ. जैन का यह भी कहना है कि अँग्रेज अधिकारियों ने राजस्थानी राज्यों की न्याय व्यवस्था का जो चित्र प्रस्तुत किया है वह दुराग्रह से ग्रसित है अन्यथा स्वयं अँग्रेज अधिकारियों ने यह स्वीकार किया था कि राजस्थानी राज्यों की परंपरागत न्याय व्यवस्था से लोगों में किसी प्रकार का असंतोष नहीं था। राजस्थानी राज्यों पर ब्रिटिश आधिपत्य स्थापित होने से पूर्व मराठा और पिण्डारियों की धमा-चौकङी के कारण परंपरागत न्याय व्यवस्था पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हो चुकी थी। अतः राजस्थानी राज्यों के साथ संधियाँ (1817-18 ई.) संपन्न करने के बाद अँग्रेजों ने सर्वप्रथम न्याय व्यवस्था में सुधारों की तरफ ध्यान दिया।

1839 ई. से पूर्व जयपुर में न्याय और शासन विभाग एक ही थे। किन्तु 1839 ई. में जब जयपुर की राजमाता को अभिभावक पद से हटाकर ब्रिटिश पोलीटिकल एजेण्ट के नियंत्रण में शासन परिषद का गठन किया गया तथा पोलीटिकल एजेण्ट थर्सबी ने न्याय विभाग को पृथक कर, ब्रिटिश प्रान्तों में प्रचलित अदालतों के अनुरूप राज्य में दीवानी और फौजदारी अदालतें स्थापित कर दी, जो ब्रिटिश प्रान्तों में प्रचलित न्यायिक नियमों के अनुसार कार्य करने लगी। तहसीलदार का न्यायालय, न्याय प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी। इस अदालत के ऊपर नाजिम अदालतें तथा राजस्थानी में मुंसिफ अदालतें थी। इन अदालतों के निर्णय के विरुद्ध अपील सुनने के लिये एक अपील न्यायालय था, जिसमें चार जज होते थे, इनमें से दो जज दीवानी अपीलें सुनते थे और दो जज फौजदारी अपीलें सुनते थे। राज्य में गठित शासन परिषद न्याय की अंतिम अपील अदालत थी, जिसमें दीवानी, फौजदारी और राजस्व संबंधी मामलों की अपीलें सुनी जाती थी। जब स्वयं राज्य का शासक इस परिषद की अध्यक्षता करता था, तब यह अपराधी को मृत्यु दंड भी दे सकती थी। आगे चलकर इस परिषद को दो भागों में बाँट दिया गया, प्रथम भाग को इजलास और दूसरे को महकमा खास कहा जाता था। महकमा खास राज्य की सर्वोच्च अदालत थी। 1924 ई. में राज्य में दीवानी और फौजदारी दंड संहिता तैयार की गयी और ब्रिटिश प्रान्तों में प्रचलित अनेक अधिनियम लागू किये गये।

इसी प्रकार 1839 ई. में ही जोधपुर के महाराजा मानसिंह के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही की गई और मानसिंह के साथ एक नई संधि की गयी, तब इस संधि के अनुसार जोधपुर में भी पोलीटिकल एजेण्ट की अध्यक्षता में शासन समिति गठित की गयी। इस शासन समिति ने राज्य में दीवानी और फौजदारी अदालतें स्थापित की। जिले की दीवानी अदालतों को हाकिम अदालतें और फौजदारी अदालतों को सदर अदालतें कहा जाता था। यहाँ भी महकमा खास न्याय की अंतिम इकाई थी। 1885-87 ई. में जोधपुर में भी दीवानी व फौजदारी दंड संहिता तैयार की गई और ब्रिटिश प्रान्तों के अनुरूप अनेक अधिनियम लागू किये गये।

1869 ई. का वर्ष मेवाङ के न्याय प्रशासन के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण मोङ बिन्दु माना जाता है। 23 दिसंबर, 1869 ई. को महाराणा शंभूसिंह ने महकमा खास के गठन की घोषणा की तथा अर्जुनसिंह के नेतृत्व में दीवानी अदालतें और सामिन अलीखाँ के नेतृत्व में फौजदारी अदालतों का गठन किया गया। ए.जी.जी. कर्नल कीटिंग द्वारा संगृहीत राज्य के लिये नई कानून संहिता प्रसारित की गयी। तत्पश्चात न्याय प्रशासन का नियमन ब्रिटिश भारत के कानून, हिन्दू कानून और स्थानीय रीति-रिवाजों के आधार पर किया जाने लगा। अगस्त, 1773 ई. में न्यायालय शुल्क (स्टाम्प विनिमय) संबंधी नियम घोषित किये गये। मार्च, 1877 ई. में महाराणा सज्जनसिंह ने एक नई कौंसिल इजलास खास का गठन कर दीवानी और फौजदारी न्याय-प्रशासन की कार्य प्रणाली में सुधार किया गया। अगस्त, 1880 ई. में इजलास खास को समाप्त करके उसके स्थान पर राजश्री महान्द्राज सभा का गठन किया गया। तत्पश्चात् महाराणा द्वारा घोषित एक नये अधिनियम द्वारा महान्द्राज सभा के कार्यों को दो भागों में बाँटा गया – इजलास खास और इजलास मामूली। इजलास खास में सामंतों, राज्य के पदाधिकारियों और महाराणा के निजी सेवकों के दीवानी व फौजदारी मुकदमे सुने जाते थे, जबकि इजलास मामूली में साधारण प्रजा के दीवानी व फौजदारी मुकदमों की सुनवाई होती थी। परगनों के हाकिम के निर्णय के विरुद्ध अपील राजधानी उदयपुर में स्थित दीवानी और फौजदारी अदालतों में की जाती थी। राजधानी के न्यायालयों के निर्णय के विरुद्ध अपील राज्य के सर्वोच्च न्यायालय महान्द्राज सभा में की जा सकती थी। 1938 ई. में महान्द्राज सभा के स्थान पर मुख्य न्यायालय की स्थापना की गयी। इस न्यायालय को दीवानी और फौजदारी मामलों के मूल वाद तथा अपील सुनने का अधिकार दिया गया। 1940 ई. में मुख्य न्यायालय को उच्च न्यायालय का नाम दे दिया गया। 1947 ई. में न्याय-प्रशासन की सर्वोच्च इकाी महाराणा का अंतिम अपील न्यायालय था। इसके नीचे उच्च न्यायालय था, जिसका मुख्यालय उदयपुर में था। उच्च न्यायालय के नीचे राज्य में तीन जिला एवं सत्र न्यायालय थे। इन न्यायालयों के नीचे दस मुंसिफ अदालतें थी। जिले के कलेक्टर को भी प्रथम श्रेणी के जिला मजिस्ट्रेट के अधिकार प्राप्त थे। प्रथम श्रेणी के सामंतों को अपनी – अपनी जागीरों में दीवानी एवं फौजदारी शक्तियों का प्रयोग करने का अधिकार था और इसके लिए जागर कोर्ट कार्यरत थे।

बीकानेर राज्य में भी न्याय-प्रशासन में कुछ परिवर्तन करने का प्रयास किया गया, लेकिन राज्य के शक्तिशाली सामंतों के हस्तक्षेप के कारण 1884-85 ई. तक वहाँ कोई अच्छी व्यवस्था नहीं हो सकी। महाराजा डूँगरसिंह (1872-1887 ई.) के समय ब्रिटिश प्रान्तों के अनुरूप यहाँ न्याय व्यवस्था स्थापित की गयी। तत्पश्चात् महाराणा गंगासिंह ने 1910 ई. में ऐसी न्याय व्यवस्था स्थापित की, जो उस समय राजस्थान के किसी राज्य में स्थापित नहीं हुई थी। शक्ति-पृथक्करण का सिद्धांत, जो उस इंग्लैण्ड में प्रचलित था, प्रथम बार बीकानेर में लागू किया गया। 1922 ई. में वहाँ आधुनिक उच्च न्यायालय के अनुरूप उच्च न्यायालय स्थापित कर दिया गया। वस्तुतः महाराजा गंगासिंह ने तो बीकानेर की न्याय व्यवस्था को पूर्णतः आधुनिक बना दिया था। कोटा राज्य में न्याय व्यवस्था में परिवर्तन करने में कुछ समय लगा। 1874 ई. तक राज्य के न्यायालय भ्रष्टाचार और अत्याचार के केन्द्र बने हुए थे। प्रत्येक व्यक्ति, जिसकी दरबार तक पहुँच होती थी, वह अपने आपको कानून की सीमा से बाहर समझता था। 1874 ई. में कोटा के शासक ने अँग्रेजों को राज्य का प्रशासन संभालने और उसमें सुधार करने का आग्रह किया। तदनुसार कोटा के सभी पुराने न्यायालय बंद कर दिये गये तथा प्रत्येक निजामत को राजस्व व फौजदारी अदालतों में बाँट दिया। इन अदालतों के निर्णय के विरुद्ध अपीलें सुनने के लिये एक पुराने अँग्रेजों के कर्मचारी पं. रामदयाल को और बाद में एक अन्य अधिकारी सैयद जफर हुसैन को नियुक्त किया गया। राज परिवार को न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप करने सो रोक दिया गया। इन न्यायिक परिवर्तनों के फलस्वरूप कोटा की न्याय प्रक्रिया में कुछ सुधार संभव हो सका। इसी प्रकार 1838 ई. में अलवर के शासक बन्नेसिंह ने दिल्ली स्थित ब्रिटिश रेजीडेण्ट के सरिश्तेदार अम्मूजान को अपना दीवान बनाया, जिसने 1840 ई. में राज्य में दीवानी व फौजदारी अदालतें स्थापित की। 1853 – 69 ई. के मध्य भरतपुर राज्य में दो अदालतें स्थापित की गयी – एक भरतपुर में और दूसरी डीग में। इन अदालतों के निर्णय के विरुद्ध अपील शासन संरक्षक समिति को की जा सकती थी। इन विवरणों से स्पष्ट है कि 1839-40 ई. से राजस्थान के लगभग सभी राज्यों में न्याय व्यवस्था में परिवर्तन की प्रक्रिया आरंभ हो गयी तथा 20 वीं शताब्दी के तीसरे दशक तक इस दिशा में उल्लेखनीय प्रगति हो चुकी थी।

इस नयी व्यवस्था के बाद ब्रिटिश प्रान्तों में प्रचलित अँग्रेजी कानूनों को राजस्थानी राज्यों में लागू किया गया। नये कानूनों के अन्तर्गत, कानून की दृष्टि में व्यक्ति की समानता स्वीकार की गयी और धीरे-धीरे जाति, धर्म, वंश, पद और प्रतिष्ठा के आधार पर उपलब्ध सुविधाएँ समाप्त कर दी गयी। उदाहरणार्थ, राजस्थान के राज्यों में राजपूत सामंतों को अपने गढ अथवा हवेली में शरण देने का अधिकार था। इसके कारण हत्यारे खून करके भी किसी सामंत के गढ या हवेली में शरण लेकर बच जाते थे। किन्तु सामंतों का यह विशेषाधिकार समाप्त कर दिया गया। सामंतों के न्यायिक अधिकार भी काफी बढे-चढे थे, लेकिन उन न्यायिक अधिकारों को भी समाप्त कर दिया गया अथवा उन्हें सीमित कर दिया गया। राजस्थान के अधिकांश राज्यों में शासक की पूर्व अनुमति के बिना स्थानीय सामान्य न्यायलयों में सामंतों के विरुद्ध अभियोग नहीं चलाया जा सकता था, लेकिन अब ऐसी परंपराएँ समाप्त कर दी गयी। नये नियमों के लागू होने के पूर्व, मुकदमे की सुनवाई और कार्यवाही जबानी होती थी, केवल एक बही में वादी और प्रतिवादी का हाल लिख दिया जाता था और रोजनामचे में फैसला दर्ज कर लिया जाता था। किन्तु अब बाकायदा गवाहियाँ आदि का विवरण रखा जाने लगा और फैसले भी लिखे जाने लगे।

नये प्रशासनिक एवं न्यायिक नियमों के अन्तर्गत चोरी-डकैती की तरफ विशेष ध्यान दिया गया तथा इसके लिए पुलिस विभाग का पुनर्गठन किया गया। जयपुर राज्य ने तो अपने पुलिस विभाग का पुनर्गठन करने के लिये 1917 ई. में ब्रिटिश सी.आई.डी. के निरीक्षक मगनराज व्यास की सेवाएँ, प्रतिनियुक्ति पर प्राप्त की। इसी प्रकार जोधपुर और बीकानेर राज्यों ने भी ब्रिटिश सेवा के पुलिस अधिकारियों की सेवाएँ प्राप्त की। गाँवों में चौकीदारों की नियुक्ति का अधिकार पुलिस विभाग को सौंप दिया। व्यापारियों को अपने साथ गारद (सुरक्षा दल) रखने की हिदायत दी गयी। सामंतों को विशेष रूप से हिदायत दी गयी कि वे अपनी-अपनी जागीरों में व्यापारियों को सुरक्षा प्रदान करें और उनसे किसी प्रकार का राहदारी शुल्क न लें। इस प्रकार राजस्थानी राज्यों पर ब्रिटिश आधिपत्य स्थापित होने के बाद पुलिस विभाग में निरंतर सुधार किये गये तथा वर्तमान सदी के दूसरे दशक तक राजस्थान के अधिकांश राज्यों में पुलिस विभागों में सुधार की प्रक्रिया लगभग पूर्ण हो गयी। वैसे न्याय एवं प्रशासन में सुधारों की प्रक्रिया स्वाधीनता के बाद पुनः गतिशील हुई, जो आज भी चल रही है।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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