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जैन धर्म महत्त्वपूर्ण तथ्य

जैन धर्म महत्त्वपूर्ण तथ्य

जैन धर्म के संस्थापक ऋषभदेव थे। ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर भी थे। जैन साधुओं को तीर्थंकर कहा गया है। महावीर स्वामी से पहले जैन धर्म में 23 तीर्थंकर हुये हैं। 23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ थे। तथा 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी थे। जैन धर्म के 23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ काशी के इक्ष्वाकु वंश के राजा अश्वसेन के पुत्र थे तथा महावीर स्वामी से 250 वर्ष पहले हुये थे।

जैन तीर्थंकर ऋषभदेव तथा अरिष्टनेमी का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। विष्णु पुराण तथा भागवत पुराण में ऋषभदेव का उल्लेख नारायण अवतार के रूप में मिलता है। महावीर स्वामी ने जैन धर्म में आवश्यक सुधार करके व्यापक स्तर पर प्रचार कर जैन धर्म को शिखर तक पहुँचाया।

जैन धर्म के तीर्थंकर

महावीर स्वामी का जीवन परिचय

महावीर स्वामी का जन्म वैशाली के पास कुण्डग्राम(आधुनिक नाम बसुकुण्ड – वज्जि संघ का गणतंत्र) में 540 ई.पू. में हुआ था। महावीर के पिता का नाम सिद्धार्थ तथा माता का नाम त्रिशला था। त्रिशला लिच्छवि के राजा चेटक की बहन थी।

महावीर स्वामी का विवाह यशोदा नामक राजकुमारी से हुआ था, जो राजा समरवीर की पुत्री थी।

महावीर स्वामी सत्य की खोज में 30 वर्ष की आयु में गृह-त्याग कर सन्यासी हो गये थे। 12 वर्ष की कठोर तपस्या के बाद जम्भिग्राम के निकट ऋजुपालिका नदी के तट पर एक वृक्ष के नीचे सर्वोच्च ज्ञान (कैवल्य) की प्राप्ति हुई। कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति के बाद महावीर स्वामी को कई नामों से जाना जाने लगा जैसे – कैवलीन, जिन (विजेता),निर्ग्रन्थ (बंधन रहित), महावीर, अर्हत (योग्य)।

कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति के बाद महावीर ने कौशल, मगध, मिथिला, चंपा आदि राज्यों में भ्रमण कर अपने धर्म का 30 वर्ष तक प्रचार किया। 72 वर्ष की आयु में 468 ई.पू. में महावीर स्वामी को राजगृह के समीप पावापुरी में निर्वाण (मृत्यु) प्राप्त हुआ।

महावीर स्वामी के 11 शिष्य थे, जिन्हें गणधर कहा जाता था।

महावीर स्वामी के दामाद का नाम जामालि था, जो बाद में महावीर के शिष्य बन गये। प्रथम जैन भिक्षुणी नरेश दधिवाहन की पुत्री चम्पा थी।

महावीर स्वामी के पंचमहाव्रत

  • अहिंसा,
  • सत्य,
  • अस्तेय,
  • अपरिग्रह,
  • ब्रह्मचर्य।

त्रिरत्न

सम्यक् दर्शन – यथार्थ ज्ञान के प्रति श्रद्धा ही सम्यक दर्शन है।

सम्यक ज्ञान – सत्य व असत्य का अंतर ही सम्यक ज्ञान है।

सम्यक चरित्र – अहितकर कार्यों का निषेध तथा हितकारी कार्यों का आचरण ही सम्यक चरित्र है।

पंच अणुव्रत

जैन गृहस्थों के लिये भी पाँच व्रत प्रतिपादित किये गये, जिन्हें अणुव्रत की संज्ञा दी गयी है-

  1. अहिंसाणुव्रत
  2. सत्याणुव्रत
  3. अस्तेयाणुव्रत
  4. ब्रह्मचर्याणुव्रत
  5. अपरिग्रहणुव्रत।

सात शील व्रत

  1. दिग्व्रत
  2. देशव्रत
  3. अनर्थ दंडव्रत
  4. सामरिक व्रत
  5. प्रोषधोपवास
  6. उपभोग-प्रतिभोग
  7. अतिथि-संविभाग

जैन सभाएँ

पहली जैन सभा – प्रथम जैन सभा 300 ई.पू. में पाटलिपुत्र में स्थूलभद्र एवं संभूति विजय के नेतृत्व में हुई थी। इसी जैन सभा के बाद जैन धर्म दो भागों में विभाजित हो गया, जो श्वेताम्बर (सफेद कपङे पहनते हैं) एवं दिगंबर (जो एकदम नग्नावस्था में रहते हैं) के नाम से जाने गये।

चौथी शताब्दी के अंत में दक्षिण बिहार में भयंकर अकाल पङा तब जैनों का एक भाग भद्रबाहु के नेतृत्व में मैसूर चला गया तथा दूसरा भाग स्थूलबाहु के नेतृत्व में पाटलिपुत्र में रह गया। भद्रबाहु के अनुयायी श्वेताम्बर कहलाए तथा स्थूलबाहु के अनुयायी दिगम्बर कहलाए।राजाओं में उदायिन, बिन्दुसार और खारवेल जैन धर्म के समर्थक कहे जाते हैं। मथुरा और उज्जैन जैन धर्म के प्रधान केन्द्र थे।

दूसरी जैन सभा – द्वितीय जैन संगीति का आयोजन 513 ई.पू. वल्लभी (गुजरात) नामक स्थान पर देवर्धि क्षमा श्रवण की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई।

जैन धर्म में ईश्वर की मान्यता नहीं है। जैन धर्म ने अपने आध्यात्मिक विचारों को सांख्य दर्शन से ग्रहण किया।

मौर्योत्तर युग में मथुरा जैन धर्म का प्रसिद्ध केन्द्र था। जैन तीर्थंकरों की जीवनी भद्रबाहु द्वारा रचित कल्पसूत्र में है। इस धर्म का प्रमुख लक्ष्य निर्वाण है। निर्वाण की प्राप्ति कर्म और सन्मार्ग से ही प्राप्त होता है।

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