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सांख्य दर्शन क्या था

सांख्य दर्शन

सांख्य दर्शन का प्रवर्त्तक महर्षि कपिल को माना जाता है। इसका सबसे प्राचीन तथा प्रामाणिक ग्रंथ सांख्यकारिका है, जिसकी रचना ईश्वर कृष्ण ने की थी। सांख्य भारत के प्राचीनतम दार्शिनक संप्रदायों में से है। गोविन्द चंद्र पाण्डे के अनुसार इसकी उत्पत्ति अवैदिक श्रमण विचारधारा से हुई थी।
भारतीय हिन्दू दर्शन कौन – कौन से हैं ?

सांख्य के दो अर्थ हैं – संख्या तथा सम्यक् ज्ञान। गीता और महाभारत में इस शब्द का प्रयोग ज्ञान के अर्थ में ही मिलता है। अतः ऐसा प्रतीत होता है, कि सांख्य दर्शन से तात्पर्य सम्यक् ज्ञान दर्शन से है। यह पूर्णतया बौद्धिक एवं सैद्धान्तिक सम्प्रदाय है। चूँकि इसमें 25 तत्वों का विवरण मिलता है, अतः इसे संख्या का दर्शन भी कहा जा सकता है।

सांख्य दर्शन के प्रमुख सिद्धांत

सत्कार्यवाद

यह सांख्य का मुख्य आधार है। सत्कार्यवाद का अर्थ यह है, कि कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में मविद्यमान (सत्) रहता है। जो सम्प्रदाय इस सिद्धांत को नहीं मानते उन्हें असत्कार्यवादी कहा जाता है। इनमें बौद्ध, न्यायवैशेषिक आदि प्रमुख हैं, जिनकी मान्यता है, कि कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान नहीं होता तथा उसकी उत्पत्ति सर्वथा नयी होती है। किन्तु सांख्य मत इसका खंडन करते हुये सत्कार्यवाद का प्रतिपादन करता है, और इसके समर्थन में कई तर्क प्रस्तुत किये हैं, जो निम्नलिखित हैं –

यदि कार्य उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान न रहे तो किसी भी प्रकार से उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती।जानते हैं, कि बालू से तेल कदापि नहीं निकल सकता। वह केवल तिल से ही निकल सकता है, क्योंकि उसमें तेल पहले से विद्यमान रहता है। इस प्रकार कार्य वस्तुतः कारण की अभिव्यक्ति नात्र है।

प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति प्रत्येक वस्तु से नहीं होती, अपितु वह किसी विशेष वस्तु से ही होती है। जैसे तेल केवल तिल से तथा दही केवल दूध से ही उत्पन्न हो सकता है। इससे सत्कार्यवाद के सिद्धांत की पुष्टि होती है।

केवल योग्य कारण से ही अभीष्ट कार्य उत्पन्न होता है। इससे भी सिद्ध है, कि कार्य का अस्तित्व सूक्ष्म रूप से अपने कारण में बना रहता है। उत्पत्ति कारण का प्रत्यक्षीकरण मात्र है। यदि ऐसा नहीं होता तो पानी से दही तथा बालू से तेल की उत्पत्ति हो सकती है।

कार्य अपने कारण का सार है। कार्य तथा कारण वस्तुतः सामन प्रक्रिया के व्यक्ति एवं अव्यक्त रूप हैं। कपङा धागों में, तेल तिल में, दही दूध में अव्यक्त रूप से वर्तमान रहता है। जब उत्पत्ति के मार्ग की बधाओं को दूर कर दिया जाता है, तो कारण कार्य को प्रकट कर देता है।

इन सभी युक्तियों के आधार पर सांख्य इस निष्कर्ष पर पहुँचता है, कि कारय् मूलतः अपने कारण में विद्यमान रहता है। सत्कार्यवाद के दो विभेद हैं – परिणामवादज तथा विवर्तवाद। परिणामवाद से तात्पर्य यह है, कि कारण वास्तविक रूप में कार्य में बदल जाता है, जैसे तिल तेल में, दूध दही में रूपान्तरित हो जाते हैं। विवर्तवाद के अनुसार परिवर्तन वास्तविक ने होकर आभास मात्र होता है, जैसे रज्जु में सर्प का आभास हो जाता है। सांख्य मत प्रथम अर्थात् परिणामवाद का समर्थक है। विवर्तवाद का समर्थन अद्वैत वेदांती करते हैं।

सांख्य दर्शन अद्वैतवादी है। इसमें प्रकृति तता पुरुष नामक दो स्वतंत्र शक्तियों की सत्ता को स्वीकार किया गया है, जिनके संयोग से सृष्टि की उत्पत्ति होती है।

प्रकृति

यह सृष्टि का आदिकारण है, जिसे प्रधान तथा अव्यक्त की संज्ञा भी दी जाती है। यह नित्य एवं निरपेक्ष है। इसका कोई कारण नहीं होता, क्योंकि यही समस्त कार्यों का मूल स्त्रोत है। प्रकृति में तीन गुण होते हैं – सत्व, रज तथा तम। इन तीनों की साम्यावस्था का नाम ही प्रकृति है। ये गुण प्रकृति के अंगभूत तत्व हैं। इनसे मिलकर बनी होने पर भी प्रकृति इन पर आश्रित नहीं रहती। यहाँ गुम से तात्पर्य साधारण गुण अथवा धर्म से नहीं है। गुण का अर्थ धर्म, सहकारी तथा रस्सी की डोरी होता है। प्रकृति के तीन तत्व रस्सी की तीन डोरियों की भाँति मिलकर पुरुष को बाँधते हैं, अतः इन्हें गुण कहा जाता है। अथवा पुरुष के उद्देश्य साधन में सहायक होने के कारण ये गुण कहे गये हैं। सत्व प्रकाश तथा प्रसन्नता, रज क्रियाशीलता तथा सम स्थिरता, अवरोध तथा मोह का सूचक है।सभी सांसारिक वस्तुओं में ये तीनों गुण दिखाई देते हैं, क्योंकि वे सभी प्रकृति से उत्पन्न हुई हैं। सत्व,रज तथा तम को क्रमशः शुक्ल, रक्त तथा कृष्ण वर्ण का कल्पित किया गया है। तीनों का परस्पर अन्योन्याश्रित संबंध है। ये सदा एक साथ रहते हैं तथा किसी एक के बिना दूसरा नहीं रह सकता और न कोई कार्य ही कर सकता है। तीनों गुणों की तुलना तेल, बत्ती तथा दीपक से की गयी है, जो परस्पर भिन्न होते हुये भी एक साथ मिलकर प्रकाश उत्पन्न करते हैं। तीनों गुणों में जो प्रबल होता है, उसी के अनुसार वस्तु का स्वरूप निर्धारित होता है। शेष उसमें गौण रूप में विद्यमान होते हैं। गुण निरंतर परिवर्तनशील हैं तथा वे एक क्षण भी स्थिर नहीं रह सकते। गुणों का परिवर्तन दो प्रकार का होता है-

सरूप परिणाम-

प्रलय की अवस्था में यह परिवर्तन दिखाई देता है,जबकि तीनों गुण स्वयं अपने आप में परिवर्तित हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में सत्व-सत्व में, रज-रज में तथा तम-तम में परिणत होता है। इस अवस्था में किसी प्रकार की उत्पत्ति नहीं होती है। इस समय गुणों की साम्यवास्था रहती है। इसी को प्रकृति कहते हैं।

विरूप परिणाम-

प्रलय के बाद जब कोई एक गुण शक्तिशाली हो जाता है, तथा अन्य उसके अधीन हो जाते हैं, तब सृष्टि के विकास का क्रम प्रारंभ होता है। इसे विरूप परिणाम अथवा परिवर्तन कहा गया है। इस समय गुणों में क्षोभ उत्पन्न होता है, तथा अमावस्था उद्विग्न हो जाती है। ऐसा तभी होता है, जब प्रकृति, पुरुष के संसर्ग में आती है।

पुरुष

सांख्य दर्शन का दूसरा प्रधान तत्व पुरुष (आत्मा)है। इसका स्वरूप नित्य, सर्वव्यापी एवं शुद्ध चैतन्य है। चैतन्य आत्मा का स्वभाव ही है। यह शरीर, इन्द्रिय, मन अथवा बुद्धि से भिन्न है। आत्मा सदैव ज्ञाता के रूप में रहता है और यह ज्ञान का विषय नहीं हो सकता। इसे निस्त्रैगुण्य, उदासीन, अकर्त्ता, केवल, मध्यस्थ, साक्षी, द्रष्टा, सदाप्रकाशस्वरूप, ज्ञाता आदि कहा गया है। इसमें किसी प्रकार का विकार अथवा परिवर्तन नहीं होता, अपितु विकार या परिवर्तन तो प्रकृति के धर्म हैं।

सांख्य मत में अनेकात्मवाद का समर्थन किया गया है, जिसके अनुसार आत्मा एक न होकर अनेक हैं। प्रत्येक जीव में भिन्न-भिन्न आत्मा रहती है। इस प्रकार जहाँ प्रकृति एक है वहाँ पुरुष (आत्मा) अनेक माने गये हैं। पुरुष नित्य द्रष्टा अथवा ज्ञाता के रूप में विद्यमान होते हैं। वे चैतन्य स्वरूप हैं।

जगत् की उत्पत्ति या विकास

प्रकृति जब पुरुष के संसर्ग में आती है, तो गुणों की साम्यावस्था विकृत हो जाती है, जिससे सृष्टि की उत्पत्ति होती है। सांख्य इसके लिये प्रकृति तथा पुरुष के संसर्ग को अनिवार्य मानता है। इनमें से अकेला कोई भी तत्व सृष्टि रचना में समर्थ नहीं होता। सृष्टि का उद्देश्य पुरुष का हित साधन करना होता है।पुरुष को भोग तथा कौटिल्य दोनों के लिये प्रकृति की आवश्यकता होती है। प्रकृति को ज्ञात होने के निमित्त पुरुष की आवश्यकता पङती है। सृष्टि द्वारा पुरुष के भोग के लिये वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं। तथा जब पुरुष अपने स्वरूप को पहचान कर प्रकृति से अपना विभेद स्थापित कर लेता है तब उसे मुक्ति प्राप्त होती है। जिस प्रकार अंधे तथा लंगङे आपस में मिलकर एक-दूसरे की सहायता से जंगल पार कर लेते हैं, उसी प्रकार जङ, प्रकृति तथा चेतन पुरुष परस्पर भिन्न होते हुए भी एक-दूसरे के सहयोग से सृष्टि की रचना करते हैं।

पुरुष के संपर्क से प्रकृति के गुणों में क्षोभ उत्पन्न होता है। सबसे पहले रज क्रियाशील होता है तथा फिर दूसरे गुणों में उद्वेग पैदा होता है। प्रत्येक एक दूसरे पर अधिकार जमाने की कोशिश करता है,जिससे प्रकृति में एक महान आंदोलन उठ खङा होता है। तीनों गुणों के संयोग की विभिन्न वस्तुएँ पैदा होती हैं।

प्रकृति तथा पुरुष के संयोग से महत् (बुद्धि) तत्व उत्पन्न होता है। गुणों में जब सत्व की प्रधानता होती तब इसका उदय होता है। यह बाह्य जगत् की वस्तुओं का विशाल बीज है, तथा यही सभी जीवधारियों में बुद्धि रूप में विद्यमान है। यही ज्ञाता और ज्ञेय का भेद कराती है तथा इसी के द्वारा हम किसी वस्तु के विषय में निर्णय कर पाते हैं। बुद्धि के स्वाभाविक गुण हैं – धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्य। तमोगुण द्वारा विकृत होने पर इन गुणों का स्थान इनके विरोधी गुम जैसे अधर्म, अज्ञान, आसक्ति तथा अशक्ति ग्रहण कर लेते हैं। बुद्धि की सहायता से ही प्रकृति तथा पुरुष से विभेद स्थापित होता है।

बुद्धि से अहंकार का जन्म होता है। बुद्धि में मैं तथा मेरा भाव ही अहंकार है। इसका कार्य अभियान को उत्पन्न करना है। पुरुष भ्रमवश अपना तादात्म्य इसके साथ स्थापित कर लेता है तथा अपने को कर्त्ता, भोक्ता, कामी तथा स्वामी मानने लगता है। अहंकार के तीन भेद हैं –

सात्विक

इसमें तत्व की प्रधानता होती है, जिससे मन, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख, कान, नाक, जीभ तथा त्वचा) तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ (मुख, हाथ, पैर, मलद्वार तता जननेन्द्रिय) उत्पन्न होती हैं।

तामस

इसमें तम की प्रधानता होती है, जिससे मन, पाँच तंमात्र – शब्द, स्पर्श, रस तथा गंध उत्पन्न होते हैं।

राजस

इसमें रज की प्रधानता होती है। यह सात्विक तथा तामस को गति प्रदान करता है।

पाँच तंमात्रों से पाँच महाभूतों की उत्पत्ति होती है, जो हैं – आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा वायु। इनके गुण क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध हैं।

इस प्रकार सृष्टि का विकास प्रकृति से प्रारंभ होता है तथा महाभूतों तक समाप्त होता है। यह चौबीस तत्वों का खेल मात्र है। पुरुष को मिलाकर सांख्य मत में कुल पच्चीस तत्वों का अस्तित्व किया गया है।पुरुष इस विकास की परिधि से बाहर रहकर इसका द्रष्टामात्र होता है। वह न तो कारण है और न कार्य ही। प्रकृति कारण मात्र है। महत्, अहंकार तथा पाँच तंमात्र कार्य तथा कारण दोनों ही हैं, जबकि पाँच महाभूत तथा मन कार्य मात्र होते हैं।

बंधन तथा मोक्ष (कैवल्य)

सांख्य मत के अनुसार हमारा सांसारिक जीवन नाना दुःखों से परिपूर्ण है। जिन्हें हम सुख समझते हैं, वे भी अन्ततः दुःख ही प्रदान करते हैं। दुःखों के तीन प्रकार बताये गये हैं –

  1. आध्यात्मिक दुःख – इसके अंतर्गत वे दुःख हैं, जो जीवन के अपने मन या शरीर से उत्पन्न होते हैं, जैसे रोग,क्रोध, संताप, क्षुधा आदि। इस प्रकार आध्यात्मिक दुःख से तात्पर्य सभी प्रकार के मानसिक तथा शारीरिक दुःखों से है।
  2. आधिभौतिक दुःख – इसमें बाहरी भौतिक पदार्थों जैसे मनुष्य,पशु,पक्षियों, कांटों आदि के द्वारा उत्पन्न दुःख आते हैं।
  3. आधिदैविक दुःख – इसमें आलौकिक कारणों से उत्पन्न दुःख आते हैं, जैसे भूत-प्रेतों का उपद्रव, ग्रह-पीङा आदि।

मनुष्य के जीवन का उद्देश्य उपर्युक्त तीनों दुःखों से छुटकारा प्राप्त करना है। मोक्ष का अर्थ है, सभी प्रकार के दुःखों से मुक्ति। यही अपवर्ग अथवा पुरुषार्थ है। अविवेक अथवा ज्ञान बंधन का कारण है, जिससे हमें नाना दुःख प्राप्त होते हैं। पुरुष स्वतंत्र तथा शुद्ध चैतन्यस्वरूप होता है। यह देश, काल तथा कारण की सीमाओं से परे हैं तथा निर्गुण और निष्क्रिय है। शारीरिक तथा मानसिक विकार इसे प्रभावित नहीं करते।सुख-दुःख मन के विषय हैं, पुरुष के नहीं। किन्तु अज्ञानवश पुरुष, प्रकृति के विकार, बुद्धि तथा अहंकार से अपना तादात्म्य स्थापित कर बैठता है। यह स्वयं को ही शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि मान लेता है। यह अपने को कर्त्ता और भोक्ता मानने लगता है तथा नाना दुःखों को प्राप्त होता है। इस प्रकार अज्ञान ही दुःखों का कारण तथा विवेक ज्ञान नसे मुक्ति का एकमात्र उपाय है। विवेक ज्ञान का अर्थ है पुरुष का अपने को प्रकृति के विकारों से अलग समझ लेना। विवेक ज्ञान की प्राप्ति निरंतर साधना से होती है। इस साधना का विवरण योगदर्शन के अंतर्गत मिलता है, जो सांख्य का व्यावहारिक पक्ष है।

सांख्य दो प्रकार की मुक्ति मानता है- जीवनमुक्ति तथा विदेहमुक्ति। जीवनमुक्ति ज्ञान के उदय के साथ ही मिल जाती है, तथा भौतिक शरीर के बने रहने पर भी पुरुष (आत्मा) उससे अपने को पृथक एवं अलिप्त मानता है। उसे दैहिक दैविक तथा भौतिक सुख-दुःख बाधित नहीं करते। विदेहमुक्ति भौतिक शरीर के विनाश के बाद मिलती है। जबकि स्थूल तथा सूक्ष्म दोनों शरीरों से छुटकारा मिल जाता है। सांख्य के मोक्ष का अर्थ तीनों प्रकार के दुःखों का पूर्ण विनाश है, जिसमें पुरुष अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूप को प्राप्त कर लेता है। यह अवस्था आनंदमय नहीं है, क्योंकि जहाँ कोई दुःख नहीं है, वहाँ कोई सुख भी नहीं हो सकता। सुख या आनंद सतोगुण की देन है तथा मोक्ष त्रिगुण निरपेक्ष होता है। सांख्य के अनुसार पुरुष का बंधन में पङना केवल भ्रममात्र है। यह वस्तुतः बंधन तथा मोक्ष की सीमाओं से परे है। केवल प्रकृति ही बंधनग्रस्त तथा मुक्त होती है।

ईश्वर की सत्ता के विषय में सांख्य मतानुयायियों में मतभेद है। प्रारंभ में यह मत ईश्वर की सत्ता को नहीं मानता था। उसके अनुसार यह संसार कार्यकारण श्रृंखला का परिणाम है, जिसके विकास के लिये प्रकृति तथा पुरुष ही समर्थ है। इसमें ईश्वर के लिये कोई स्थान नहीं हो सकता,क्योंकि वह तो नित्य एवं निर्विकार होता है। किन्तु बाद में विज्ञानभिक्षु आदि सांख्य दार्शनिकों ने वेदान्त तथा योग के प्रभाव से ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किाय तथा यह मत दिया कि ईश्वर के सान्निध्य से ही प्रकृति का विकास होता है। जिस प्रकार चंबक के सान्निध्य से लोहे में गति आती है, उसी प्रकार ईश्वर के सान्निध्य से प्रकृति में क्रियाशीलता उत्पन्न होती है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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