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बौद्ध धर्म का उत्थान एवं पतन

बौद्ध धर्म का उत्थान एवं पतन

महात्मा गौतमबुद्ध ने जिस धर्म का प्रवर्तन किया वह उनके जीवन काल में ही उत्तरी भारत का एक लोकप्रिय धर्म बन गया।

बौद्ध धर्म की सफलता के लिये निम्नलिखित कारण मुख्य रूप से उत्तरदायी थे –

बौद्धधर्म के प्रसार के लिये स्वयं महात्मा बुद्ध का आकर्षक एवं प्रभावपूर्ण व्यक्तित्व बहुत कुछ अंशों में उत्तरदायी रहा। ज्ञान प्राप्त करने के बाद उन्होंने अपने मत का प्रचार करने के लिये व्यापक रूप से परिभ्रमण किया। दूर-दूर स्थानों में जाकर सामान्य जनता के बीच उन्होंने अपने उपदेश दिये।

ये अत्यन्त सरल एवं सुग्राह्य होते थे। उनकी दृष्टि में अमीर-गरीब का कोई भेदभाव नहीं था तथा सभी वर्गों के लोग, चाहे वे ब्राह्मण हो या शूद्र, इन्हें श्रवण कर सकते और अपना सकते थे। बुद्ध मानव मात्र की समानता में विश्वास रखते थे। उनके ओजपूर्ण तर्कों को सुनकर लोग प्रभावित हो जाते तथा उनकी शिष्यता ग्रहण कर लेते थे।

बौद्धधर्म का दार्शनिक एवं क्रिया पक्ष अत्यन्त सरल था। ब्राह्मण धर्म की कर्मकाण्डीय व्यवस्था से लोग ऊब गये थे। ऐसे समय में बौद्धधर्म ने जनता के समक्ष एक सरल एवं आडम्बरहित धर्म का विधान प्रस्तुत किया। इसके पालनार्थ किसी पंडित-पुरोहित की आवश्यकता नहीं थी और न ही जाति एवं सामाजिक स्तर का कोई भेद-भाव था। अतः समाज के उपेक्षित वर्गों ने उत्सुकतापूर्वक इस धर्म को ग्रहण कर लिया।

महात्मा बुद्ध के समय में पाली सामान्य जनता की भाषा थी। उन्होंने अपने उपदेश पाली में दिये जिससे सामान्य जन इसे आसानी से समझ सके। इसके विपरीत ब्राह्मण धर्म साहित्य क्लिष्ट संस्कृत में होने के कारण सभी के द्वारा बोधगम्य नहीं था।भाषा की सुगमता तथा बोधगम्यता ने भी बौद्धधर्म को लोक धर्म बनाने में योगदान दिया।

ब्राह्मण धर्म के कर्मकांडों एवं उसकी क्रियाओं के अनुष्ठान में बहुत अधिक धन की आवश्यकता होती थी। जिससे केवल कुलीन वर्ग के लोग ही इन्हें सम्पादित कर सकते थे। इसके विपरीत बौद्धधर्म के अनुपालन में किसी व्यय की आवश्यकता नहीं थी। इससे केवल नैतिकता तथा सच्चरित्रता पर बल दिया गया था। अतः अधिकाधिक लोग इस मत की ओर आकर्षित हुए।

महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन काल में ही संघ की स्थापना की थी। बाद में इन्हीं संघों द्वारा बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार हुआ। इनमें बहुसंख्यक भिक्षु निवास करते थे। वे स्थान-स्थान पर जाकर अपने मत का प्रचार-प्रसार करते थे। बौद्ध संघ देश के विभिन्न भागों में फैले हुए थे।

बौद्ध धर्म के प्रसार में राजकीय संरक्षण का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। स्वयं बुद्ध के समय में तथा उनके बाद भी भारत के अनेक महान राजाओं ने इस धर्म को ग्रहण किया तथा इसके प्रचार-प्रसार में अपने राज्य के साधनों को लगा दिया। ऐसे राजाओं में बिम्बिसार, अजातशत्रु, कनिष्क, हर्षवर्धन आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। अशोक ने तो इस धर्म को स्थानीय स्तर पर ऊपर उठाकर अपने प्रयासों द्वारा अन्तरर्राष्ट्रीय स्तर पर पहुँचा दिया। मध्य एशिया, चीन, कोरिया, जापान, लंका, दक्षिणी-पूर्वी एशिया आदि के विभिन्न भागों में इस धर्म का प्रचार हुआ। अशोक ने यूनानी राज्यों में भी इसका प्रचार करवाया था।

बौद्धधर्म को तत्कालीन भारत के सुप्रसिद्ध व्यापारियों एवं साहूकारों ने भी उदारतापूर्वक धन दान दिये, क्योंकि इसके सिद्धांत उनकी कुछ मान्यताओं के अनुकूल थे। बुद्ध ने सूदखोरी को सम्मानिक व्यवसाय मानते हुये उसको मान्यता प्रदान की जबकि ब्राह्मण ग्रंथ इसे निन्दनीय मानते थे। इस कारण उस युग के श्रेष्ठि बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित हो गये। इनकी सहायता से इसके समक्ष कोई आर्थिक संकट उपस्थित नहीं हुआ।

बौद्ध धर्म का पतन

सातवीं शताब्दी तक भारत में बौद्ध धर्म की निरंतर प्रगति होती रही। उसके बाद उसक क्रमिक पतन प्रारंभ हुआ तथा अंत में बारहवीं शताब्दी तक यह धर्म अपनी मूलभूमि से विलुप्त हो गया। बौद्धधर्म के अवनति काल में बिहार तथा बंगाल के पाल राजाओं ने उसे संरक्षण प्रदान किया, किन्तु उनके बाद इसे कोई नहीं मिला। बौद्धधर्म के पतन के लिये विभिन्न कारणों को उत्तरदायी माना गया है।

इसमें मुख्य कारण बौद्धसंघ में विभेद तथा उसके अनुयायियों का विभिन्न संप्रदायों में विभाजित होना है। कनिष्क के समय यह धर्म स्पष्टतः हीनयान तथा महायान नामक दो सम्प्रदायों में विभाजित हो गया। महायानियों ने हिन्दू धर्म की पूजा – पद्धति एवं संस्कारों को अपना लिया तथा बुद्ध को देवता मान कर उनकी पूजा प्रारंभ कर दी गयी। साथ ही साथ अनेक बोधिसत्वों की पूजा का विधान प्रस्तुत किया।

बुद्ध तथा बोधिसत्वों की उपासना के लिये मंदिरों का भी निर्माण हुआ। बुद्ध तथा बोद्धिसत्वों के अलावा अन्य कई देवी-देवताओं का भी इस मत में आविष्कार हो गया, जिन्हें बुद्ध के विविध प्रतीकों से संबंधित करके पूजा जाने लगा। इस प्रकार बौद्धधर्म हिन्दू धर्म के अत्यन्त निकट आ गया। बौद्ध विहार तथा मंदिरों में महिलाओं का प्रवेश हो जाने से भ्रष्टाचार बढ गये तथा भिक्षुओं का चारित्रिक पतन हो गया। बौद्धधर्म में नैतिकता का स्थान तंत्र-मंत्र ने ग्रहण कर लिया तथा भिक्षु अनेक गूढ तथा तांत्रिक साधनाओं द्वारा लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने लगे।

तांत्रिक भिक्षुओं का सम्प्रदाय वज्रयान कहा गया।वे अपनी साधना में सुरा-सुन्दरी को प्राथमिकता देने लगे। उनकी संख्या बढती गयी, जिससे बौद्धधर्म का मूल स्वरूप ही नष्ट हो गया। नवीं शती तक आते-आते वज्रयान का भारत में खूब प्रचार हो गया। अब नालंदा उनके प्रचार का प्रमुख केन्द्र बन गया। बारहवीं शती तक बौद्धधर्म पूर्ण रूप से तंत्रयान (वज्रयान)के प्रभाव में आ गया। तांत्रिक भिक्षु तारादेवी की उपासना करते थे।

बौद्धधर्म में किसी ऐसे महापुरुष का जन्म नहीं हुआ, जो उसमें व्याप्त कुरीतियों को समाप्त कर उसे सही दिशा दे सकता। इधर हिन्दू धर्म में शंकर, कुमारिल, रामानुज जैसे महान आचार्यों का आविर्भाव हुआ। उन्होंने हिन्दू धर्म की व्याख्या नये सिरे से की जिससे अधिकाधिक लोग इस धर्म की ओर आकर्षित हो गय्। बुद्ध को भगवान विष्णु का एक अवतार मानकर हिन्दू धर्म में ग्रहण कर लिया गया। इसके फलस्वरूप बहुसंख्यक बौद्धों ने हिन्दू धर्म को ग्रहण कर लिया।

जिस समय उत्तरी भारत में बौद्धधर्म वज्रयानियों द्वारा नैतिकताविहीन तथा जर्जर किया जा रहा था, उसी समय वहाँ तुर्कों का आक्रमण हुआ। इस आक्रमण ने पतनोन्मुख बौद्धधर्म को घातक चोट पहुँचायी जिससे वह कभी उबर न सका। नालंदा तथा अन्य स्थानों के प्रसिद्ध बौद्धमठ तथा स्मारक ध्वस्त कर दिये गये तथा बहुसंख्यक भिक्षुओं की हत्या कर दी गयी। इस आक्रमण ने तंत्रयानियों की सिद्धि-शक्ति एवं तंत्र-मंत्र के प्रभाव को मिथ्या सिद्ध कर दिया।

फलस्वरूप भारतीय जनता का विश्वास उनसे उठ गया तथा किसी ने उन्हें शरण अथवा सहायता देकर उनके ध्वस्त स्मारकों के जीर्णोद्धार कराने के प्रयास नहीं किये। अधिकांश बौद्ध भिक्षु तिब्बत भाग गये तथा बचे हुये में से कई ने हिन्दू तथा इस्लाम आदि धर्मों को ग्रहण कर लिया। इस प्रकार बौद्ध धर्म अपनी जन्मभूमि से विलुप्त हो गया।

जी.सी.पाण्डे यह स्वीकार नहीं करते कि बौद्ध धर्म के पतन में तंत्रयानियों के आचार अथवा कुमारिल और शंकर जैसे हिन्दू दार्शनिकों के वाद-कौशल का हाथ रहा है। उनके अनुसार शैव तथा शाक्त धर्म में भी तांत्रिक आचार तथा उनसे संबद्ध कुछ विकृतियाँ विद्यमान थी, किन्तु इनका विलोप नहीं हुआ और न तार्किक खंडन से किसी धर्म का लोप माना जा सकता है। वस्तुतः बौद्धधर्म मुख्य रूप से भिक्षुओं का धर्म था, जिनका जीवन विहारों में केन्द्रित था।

उपासकों के लिये यह अपना पृथक और पर्याप्त नैतिक-सामाजिक आचार एवं संस्थायें विहित नहीं कर पाया था। बौद्ध विहार प्रायः राजकीय अनुदान पर निर्भर करते थे। अतः विहारों के लोप के साथ-साथ उपासकों की क्षीण बौद्धिकता का विलोप अनिवार्य था।

भारत में महाबोधि सभा, जिसकी स्थापना सिंहल के स्वर्गीय देवमित्र धर्मपाल ने की थी, बौद्धधर्म को पुनरुज्जीवित करने का श्लाध्य प्रयास कर रही है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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