इतिहासप्राचीन भारत

सामंती व्यवस्था का उल्लेख करने वाले स्रोत

5वी. शता. के अंत में सामंत शब्द का प्रयोग हमें दक्षिण भारत में अधीनस्थ के लिये (सामंतचुदामन्याह) शांतिवर्मण (455-470 ई.) के काल के पल्लव अभिलेख में मिलता है।

सामंती व्यवस्था का अर्थ क्या था, तथा भारत में सामंतवाद का उदय कब हुआ?

5वी.शता. के अंतिम दशकों में यह शब्द दक्षिण तथा पश्चिम के कुछ दानों में अधीनस्थ के लिये प्रयोग किया गया है। उत्तर भारत में इसका प्राचीनतम प्रयोग बंगाल अभिलेख तथा मुखारी प्रमुख अनंतवर्मण (प्रारंभिक छठी शता.) की बराबर पर्वत गुफा अभिलेख में मिलता है, जिसमें उनके पिता को गुप्तों का सामंतचुदामणि बताया गया है। अगला महत्त्वपूर्ण उल्लेख यशोधरमण (525-535 ईस्वी) के मंदसौर स्तंभ को वश में कर लेने की बात कही है। जैसा बताया गया है,6 वी.शता. तथा 7 वी. शता.में वल्लभी के शासक ने महासामंत या सामंत महाराजा की पदवी को धारण किया था। धीरे-2 इसका प्रयोग पराजित राजाओं से शाही अधिकारियों के लिये होने लगा। उदाहरण के लिये कलचूरी के स्थान पर सामंत तथा राजा का प्रयोग होने लगा। बाद में, हर्ष के भूमि दानों में सामंतमहाराज तथा महासामंत पद का प्रयोग राज्य अधिकारियों के लिये होने लगा था।

साहित्यिक स्रोत

बाण अपने हर्षचरित में अनेक प्रकार के सामंतों का उल्लेख करते हैं। इनमें से, सामंत सबसे छोटा साधारण अधीनस्थ होता था। महासामंत स्वाभाविक रूप से सामंत से एक पद ऊपर होता था। शत्रुमहासामंत एक पराजित शत्रु राजा होता था। स्वेच्छा से अधीनस्थ बनने वाले अप्तसामंत कहलाते थे। प्रधानसामंत राजा के सबसे विश्वासवासी होते थे, तथा वह उनकी सलाह जरूर मानता था। प्रतिसामंत शायद राजा का विरोध करने वाला सामंत होता था, पर यह बात विश्वास के साथ नहीं कही जा सकती है। अनुरक्त महासामंत, जिसका उल्लेख बाण मात्र एक बार करते हैं, विशेष रूप से संबंधित सामंत होते थे।

सामंतों के कार्य –

व्यवस्था का काम करने का तरीका

सामंत के अपने स्वामी के प्रति दायित्व का बाण सर्वप्रथम उल्लेख करते हैं। उनके हर्षचरित से यह स्पष्ट होता है, कि उसका पहला काम वार्षिक नजराना देना होता था। हमें बताया गया है, कि हर्ष ने अपने महासामंतों को कराद बनाया था। सामंतों द्वारा प्रकाशित क्षेत्र से राजा वार्षिक कर प्रजा के स्थान पर सामंतों से वलूलते थे। यद्यपि यह स्पष्ट नहीं है, कि ये सामंत करों की संख्या या स्वरूप को परिवर्तित कर सकते थे या नहीं, वे अपने क्षेत्र में राजसी करों के संग्रह के लेए उत्तरदायी थे।

बाण के अनुसार सामंतों का दूसरा काम राजा के सामने व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होकर सम्मान देना था। वे बताते हैं, कि पराजित महासामंत विजेता सम्राट के सामने सम्मान प्रदर्शित करने के लिये अपना मुकुट तथा पगङी (शेखर या मौली) हटाते थे। ऐसा प्रतीत होता है, कि हर्ष के दरबार में इन्हें अनेक तरह के अपमान का सामना करना पङता था। कुछ पंखा झलते थे, कुछ गर्दन पर तलवार रख अपने प्राण की भीख मांगते रहते थे, तथा कुछ हमेशा राजा को सलाम करने के लिये तैयार रहते थे। बाण अपनी कादंबरी में पराजित राजाओं द्वारा सलाम करने के चार तरीकों (प्रणाम-अगमन) का वर्णन करते हैं। इनमें सिर झुकाकर सलाम करना, सिर झुकाकर राजा के पैरों को छूना, सिर झुकाकर राजा की चरण धूलि लेना तथा अंततः राजा के पैरों पर अपना सिर रख देना था। पुनः इसी पुस्तक में बाण पराजित राजाओं द्वारा की जाने वाली तीन प्रकार की सेवा (परिचारिकी-करण) का उल्लेख करते हैं। वे हर्ष के दरबार में चौरी पकङकर रहते थे, दरबार के द्वारपाल का काम करते थे तथा जयघोषणा करने वाले व्यक्ति का काम करते थे।

बाण के अनुसार पराजित सामंत का तीसरा काम अवयस्क राजकुमार या पुत्र को राजा के समक्ष प्रस्तुत करना था। उन्हें राजसी परंपरा का प्रशिक्षण दिया जाता था, ताकि वे आगे चलकर वफादार बनें। परंतु आणतौर पर बाण पराजित शत्रु-महासामंत के द्वारा किये जाने वाले कार्य का उल्लेख करते हैं, जिन्हें अपने स्वामी के लिये अनेक तरह का कार्य करना पङता था।

आमतौर पर सामंतों का एक महत्त्वपूर्ण कार्य अपने स्वामी को सैन्य सहायता देना था। हर्षचरित में बाण हमें बताते हैं, कि हर्ष की सेना राजाओं तथा सामंतों द्वारा प्रदत्त सैनिकों से मिलकर बनी थी तथा उनकी संख्या इतनी ज्यादा थी, कि हर्ष भी उसे देखकर अचंभित हो गया। संभवतः उनकी सेना सामंती व्यवस्था पर आधारित थी,जो जरूरत पङने पर ही एकत्र की जाती थी। इस मत का समर्थन पुलकेशिन के आइहोले अभिलेख से होता है, जो हर्ष को अपने सामंतों की सेना से सज्जित बताता है।

ऐसा प्रतीत होता है, कि अपने स्वामी के दरबार में रहने वाले सामंतों को कई सामाजिक कार्य भी करने होते थे। कादंबरी के अनुसार उन्हें, जुआ, बांसुरी वादन, राजा का चित्र बनाना, गुत्थियां सुलझाना तथा अन्य कार्य करने होते थे। हर्षचरित में कहा गया है, कि सामंतों की पत्नियों को उत्सवों में दरबार में जाना पङता था। अतः सामंत अपने स्वामी से आर्थिक तथा सैन्य मामलों के अलावा प्रशासनिक तथा सामाजिक रूप से भी जुङा हुआ था।

References :
1. पुस्तक- भारत का इतिहास, लेखक- के.कृष्ण रेड्डी

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