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आर्थिक महासंकट(1929-30) के परिणाम

आर्थिक महासंकट के परिणाम

1929-34 की अवधि का यह आर्थिक महासंकट विश्व इतिहास की एक अभूतपूर्व घटना थी। इसके परिणाम भी उतने ही महत्त्वपूर्ण एवं दूरगामी सिद्ध हुए। संक्षेप में आर्थिक मंदी के परिणाम इस प्रकार रहे-

आर्थिक राष्ट्रवाद

आर्थिक महासंकट

अंतर्राष्ट्रीय सहयोग का विकास करने की दृष्टि से राष्ट्रसंघ की स्थापना की गयी थी। आर्थिक महासंकट ने इस अन्तर्राष्ट्रीयतावाद की भावना को बहुत अधिक क्षति पहुँचाई। विभिन्न देशों ने आर्थिक संकट से निपटने के लिये आर्थिक राष्ट्रवाद का सहारा लिया और उन्होंने अनेक प्रकार के कानून एवं व्यवस्थाएँ बनाई। देशी उद्योग-धंधों का संरक्षण प्रदान किया गया, उन्हें हर प्रकार की सहायता दी गयी, विदेशी आयात की सीमा निर्धारित कर दी गयी और सीमा शुल्कों में वृद्धि कर दी गयी। इन नाना उपायों की सहायता से वे कुछ समय के लिये अपने-अपने देश की आर्थिक व्यवस्था को बनाए रखने में सफल तो रहे, परंतु इससे उन्हें कोई विशेष लाभ भी नहीं मिला, क्योंकि इस प्रकार की बाधाओं ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को ठप्प कर दिया और स्वदेशी बाजार स्वदेशी वस्तुओं से भर गए। उनकी माँग भी कम होती गयी। इस प्रकार के आर्थिक राष्ट्रवाद ने उस अन्तर्राष्ट्रीय सौहार्द्र की भावना का गला घोंट दिया जो विश्वशांति को बनाए रखने के लिये बहुत आवश्यक थी। राजनीतिक दृष्टिकोण से आर्थिक संकट का यह सबसे बुरा परिणाम था जिसने अन्तर्राष्ट्रीय अविश्वास को बढाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

राष्ट्रसंघ को आघात

राष्ट्रसंघ की सफलता अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग एवं सद्भावना पर निर्भर थी। आर्थिक संकट ने अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की उपेक्षा करके राष्ट्रसंघ को पंगु बना दिया। आर्थिक संकट ने राष्ट्रसंघ की प्रमुख शक्तियों को इतना अधिक निर्बल बना दिया कि जब सामूहिक सुरक्षा के लिये आक्रामक देशों के विरुद्ध कठोर कदम उठाने का समय आया तो वे ऐसा करने का साहस नहीं जुटा पाए। दूसरी तरफ इस संकट ने अमेरिका को पृथकतावादी नीति अपनाने के लिये विवश कर दिया और धीरे-धीरे वह यूरोपीय राजनीति से दूर हटता चला गया। फ्रांस में राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो गयी और कोई भी मंत्रिमंडल अधिक समय के लिये सत्ता में नहीं रह पाया। इन सबका परिणाम यह हुआ कि यूरोप की प्रमुख शक्तियाँ जिन पर राष्ट्रसंघ की सफलता निर्भर करती थी, सामूहिक सुरक्षा की खातिर सुदृढ कदम न उठा पाई जिससे राष्ट्रसंघ का पतन हो गया।

लोकतंत्रीय शासन व्यवस्था को आघात

आर्थिक संकट का सबसे प्रबल आघात लोकतंत्रीय शासन व्यवस्था को सहन करना पङा। आर्थिक मंदी के कारण जनता के सभी वर्गों को बेकारी, भुखमरी तथा अन्य कठिनाइयों का सामना करना पङा जिससे उनमें निराशा, अस्थिरता, असुरक्षा की वृद्धि हुई। कई देशों की लोकतांत्रिक सरकारें मंदी से उत्पन्न कठिनाइयों का ठीक से समाधान नहीं कर पाई जिससे जनता का लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था से ही विश्वास जाता रहा। जिन देशों में जनता को मत देने का अधिकार प्राप्त था, वहां उन्होंने नए निर्वाचनों में आर्थिक मंदी के दौरान सत्तारूढ राजनीतिक दलों तथा उनके नेताओं के विरुद्ध मतदान करके उन्हें सत्ताच्युत करके अपने आक्रोश का प्रदर्शन किया। श्रमिक, निर्धन किसान तथा मध्यम वर्ग तो लोकतांत्रिक व्यवस्था से इतना अधिक असंतुष्ट हो गया कि उसका झुकाव साम्यवाद अथवा अधिनायकवाद की ओर तेजी से बढने लगा। जनता के इस परिवर्तित रुझान ने कई राज्यों में लोकतंत्रीय शासन व्यवस्था को खोखला बना लिया।

अधिनायकवाद का उदय

लोकतंत्रीय शासन व्यवस्था के प्रति जनता में व्याप्त असंतोष ने यूरोप के कुछ राज्यों में अधिनायकों के उत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त कर दिया। 1920-24 की प्रथम मंदी ने इटली में मुसोलिनी को अपना फासिस्ट शासन स्थापित करने में सहयोग दिया। 1929-31 के आर्थिक मंदी संकट ने विश्व के अनेक देशों में राजनीतिक उथल-पुथल मचा दी। आर्थिक संकट से निपटने के लिये प्रत्येक देश की सरकार के लिये समस्त आर्थिक जीवन को सीधे अपने नियंत्रण में लेने तथा अनेक अप्रिय कदम उठाने के लिये विवश कर दिया। इस प्रकार, अपने आप कई देशों में अधिनायकवादी शासन से मिलती-जुलती शासन व्यवस्थाएँ अस्तित्व में आ गई। इन उपायों के बाद भी जब जनता को कष्टों से मुक्ति न मिली तो उसमें यह आशा उत्पन्न हुई कि शायद सरकार को बदल देने से कुछ राहत मिल जाएगी। जिन देशों में प्रजातंत्र अपनी जङे सुदृढ नहीं कर पाया था, वहाँ बहुत आसानी के साथ अधिनायकों ने शासन कर अधिकार कर लिया। जर्मनी, आस्ट्रिया, पोलैण्ड, यूगोस्लाविया, रूमानिया, बल्गेरिया, यूनान, पुर्तगाल आदि देशों में आर्थिक मंदी के बाद लोकतंत्रीय शासन जनता का विश्वास घोता गया और उप्रयुक्त देशों में अधिनायकवादी शासन के प्रति विश्वास सुदृढ होता गया।

राजकीय नियंत्रण में वृद्धि

आर्थिक मंदी का एक अशुभ परिणाम आर्थिक जीवन में राजकीय नियंत्रण की वृद्धि के रूप में सामने आया। इसके पूरा्व अमेरिका तथा यूरोप के कई राज्य आर्थिक मामलों में कम से कम हस्तक्षेप के समर्थक थे। लोगों को औद्योगिक क्षेत्र तथा व्यापार-वाणिज्य में काफी स्वतंत्रता प्राप्त थी। परंतु आर्थिक मंदी के परिणामस्वरूप जब बेरोजगारी बढने लगी और कीमतें गिरने लगी तथा उद्योग धंधे चौपट होने लगे तो लोगों की दयनीय स्थिति में सुधार लाने और अपने देश की अर्थव्यवस्था को छिन्न-भिन्न होने से बचाने के लिये सरकारों को आर्थिक जीवन में हस्तक्षेप करने के लिये विवश हो जाना पङा। जनता भी इस बात की माँग कर रही थी कि देश की आर्थिक स्थिति को सुधारने की दिशा में सरकार को कठोर कदम उठाने चाहिये। अतः सरकारों ने अपने कानूनों के द्वारा आर्थिक जीवन का नियंत्रण करना शुरू किया। इंग्लैण्ड ने भी उन्मुक्त व्यापार की नीति का परित्याग करके संरक्षण की नीति को अपनाया। अमेरिका जैसा धनी देश जो अपनी उदारता के लिये विख्यात था, को रूजवेल्ट की नयी व्यवस्था (न्यू डील) की नीति अपनानी पङी। इससे राष्ट्रपति को अमेरिका के आर्थिक जीवन में हस्तक्षेप करने के असाधारण अधिकार मिल गये। राजकीय नियंत्रण में अत्यधिक वृद्धि प्रजातांत्रिक आदर्शों के विपरीत तानाशाही प्रवृत्ति पर जनमत का नियंत्रण तो समाप्त हो ही जाता है, परंतु अन्तर्राष्ट्रीय सौहार्द्र का स्रोत भी सूख जाता है। उससे अन्तर्राष्ट्रीय तनाव की वृद्धि होती है जो युद्ध की ओर धकेलने में सहयोग देती है।

युद्ध सामग्री के उत्पादन में वृद्धि

आर्थिक मंदी ने अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की भावना को नष्ट कर दिया जिससे कई देशों को अपनी सुरक्षा की चिन्ता लग गई। इससे मुक्ति पाने के लिये उन्होंने अपनी सैनिक शक्ति को बढाने का निश्चय किया। इसके लिये निःशस्रीकरण की भावना को त्याग कर युद्ध सामग्री का अधिकाधिक उत्पादन किया जाने लगा। युद्ध सामग्री के उत्पादन में वृद्धि के साथ पूँजीवाद के निहित स्वार्थ भी जुङे हुए थे। दूसरे देशों को आस्र-शस्र बेचकर वे भारी मुनाफा कमाने की ताक में थे। सरकारों द्वारा युद्ध सामग्री के उत्पादन में रुचि लेने का एक कारण बेरोजगारों को काम देना था। जो भी कारण रहे हों, युद्ध सामग्री के अत्यधिक उत्पादन ने शस्रीकरण की दौङ को बढावा दिया जिसने अंत में समूचे विश्व को युद्ध की ज्वाला में झोंक दिया।

साम्यवाद का प्रसार

आर्थिक मंदी ने लोगों को अत्यधिक निर्धन बना दिया। उनकी क्रयशक्ति निम्नतम बिन्दु तक जा पहुँची जिससे उनकी स्थिति दयनीय हो गयी। भुखमरी ने उनको साम्यवाद की ओर अग्रसार किया। क्योंकि उनका विश्वास था कि साम्यवादी शासन के अन्तर्गत पूंजीवादी व्यवस्था का लोप हो जाएगा और रूसी मजदूरों तथा किसानों की भाँति उनकी दयनीय स्थिति का भी अंत हो जाएगा।साम्यवादी कॉमिणर्टन ने भी स्थिति का लाभ उठाते हुए अपनी प्रचारात्मक गतिविधियों को तेज कर दिया। परिणाम यह निकला कि फ्रांस तथा पूर्वी यूरोपीय देशों में साम्यवादी की तरफ विशेष रूप से आकर्षित हुए। यह भी एक संयोग की बात थी कि आर्थिक मंदी के दौरान जहाँ यूरोप के प्रजातांत्रिक पूँजीवादी देशों की अर्थव्यवस्था विनाश की ओर अग्रसर हुई, वहीं साम्यवादी रूस पर इसका कोई प्रभाव नहीं पङा और वह उत्तरोत्तर औद्योगिक प्रगति की राह पर आगे ही बढता रहा। सोवियत रूस की इस प्रगति ने भी साम्यवाद के प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

तुष्टिकरण की नीति

साम्यवाद के बढते हुए प्रभाव एवं प्रसार से यूरोप की पूँजीवादी सरकारें आतंकित हो उठी और उन्हें अपना अस्तित्व खतरे में पङता हुआ दिखाई दिया। परिणामस्वरूप उन्होंने सामूहिक सहयोग एवं सुरक्षा की नीति को त्यागकर तुष्टिकरण की नीति को अपनाया। इस नीति का मुख्य ध्येय नवोदित फासिस्ट शक्तियों को साम्यवाद से लङाकर दोनों को कमजोर बनाना था। परंतु इस नीति के कारण उन्हें राष्ट्रसंघ के सिद्धांतों तथा वर्साय संधि की भी उपेक्षा करनी पङी। फासिस्ट शक्तियों ने पूँजीवादी लोकतंत्रों की इस कमजोरी का भरपूर फायदा उठाया।

जापान : सैनिक विजय की नीति

आर्थिक मंदी ने जापान की अर्थव्यवस्था को भी भारी नुकसान पहुँचाया। उदारवादी सरकार आर्थिक समस्या का समुचित समाधान न कर सकी। पूँजीवादी तत्त्वों ने सैन्य अधिकारियों के साथ मिलकर उदारवादी सरकार को नीति परिवर्तन के लिये विवश कर दिया। अब व्यापारिक विस्तार तथा उससे लाभ कमाने के स्थान पर शक्ति द्वारा लूट की नीति अपनाई गयी। प्रो. टायनबी ने लिखा है, दीर्घकालीन विश्वव्यापी मंदी से पीङित जापानी जनता ने अंत में व्यापारिक विस्तार की नीति छोङकर सैनिक विजय की नीति के पोषक सैनिक नेतृत्व को स्वीकार किया। 1931 में जापान ने मंचूरिया पर आक्रमण करके अपनी सैनिक विजय की नीति का परिचय दे ही दिया। उसी सफलता ने इटली और जर्मनी के अधिनायकों को भी विस्तारवादी नीति अपनाने के लिये प्रोत्साहित किया।

इटली का अबीसीनिया पर आक्रमण

सैनिक विजय के माध्यम से आर्थिक संकट को दूर करने की दोहरी सफलता से इटली के अधिनायक मुसोलिनी ने भी इसी मार्ग को अपनाने का निश्चय किया। क्योंकि इससे विजित देश के आर्थिक स्रोतों का शोषण करके अपने देश की आर्थिक स्थिति को तो सुधारा ही जा सकता था, साथ ही साम्राज्य विस्तार का भी अच्छा प्रलोभन था। इसके अलावा किसी अन्य देश पर आक्रमण कर जनता का ध्यान आर्थिक समस्याओं से हटाने का भी एक अच्छा तरीका था। परिणामस्वरूप इटली ने अबीसीनिया (इथोपिया) पर आक्रमण तक उसे जीत लिया।

जर्मनी में हिटलर का उत्कर्ष

जर्मनी में हिटलर के उत्कर्ष के लिये कारण उत्तरदायी थे, परंतु आर्थिक संकट ने उसके उदय का मार्ग जल्दी प्रशस्त कर दिया। जर्मनी में आर्थिक संकट अन्य देशों की तुलना में कहीं अधिक गंभीर था और जर्मन जनता को जितनी बर्बादी सहन करनी पङी उतनी शायद ही किसी अन्य देश की जनता से सही छथी। गैथोर्न हार्डी तो आर्थिक संकट से उत्पन्न निराशा को हिटलर के उत्कर्ष का एक प्रमुख कारण मानते हैं। मई, 1928 में हिटलर ने नात्सीदल को रीष्टाग के चुनावों में केवल 12 स्थान प्राप्त हुए थे। सितंबर, 1930 के चुनावों में उसे 107 स्थान मिले और जुलाई 1932 के चुनावों में 230 स्थान मिले और इसके कुछ महीने के बाद ही शासन सत्ता हिटलर के हाथ में आ गई। हिटलर की नीतियों ने द्वितीय महायुद्ध को आहूत किया। इस दृष्टि से बहुत से इतिहासकार आर्थिक मंदी को दूसरे विश्व युद्ध के लिये एक सीमा तक उत्तरदायी मानते हैं।

निष्कर्ष

ऊपर किये गये विवरण से एक बात स्पष्ट होती है, कि आर्थिक संकट ने आने वाले कसमय में सभी देशों की प्रशासन व्यवस्था तथा वैदेशिक नीतियों को काफी सीमा तक प्रभावित किया और इस प्रभाव का परिणाम अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग और सामूहिक सुरक्षा के अवसान के रूप में सामने आया। आर्थिक संकट के दूरगामी परिणामों की चर्चा करते हुये बेन्स ने लिखा है कि, इससे उत्पन्न राजनीतिक उथल-पुथल का विस्तार सरकार को नियंत्रित करने वाले दलों में परिवर्तन मात्र से लेकर ऐसा यथार्थ क्रांति तक था जैसी कि जर्मनी में तब हुई जबकि नाजी लोगों ने सत्ता हथिया ली। इसके अलावा अपनी आंतरिक कठिनाइयों के समाधान में व्यस्त होने के कारण, प्रजातंत्रीय राज्यों के नेता, आक्रामक राज्यों की आक्रामक कार्यवाही, जो वास्तव में द्वितीय महायुद्ध की प्रस्तावनाएँ ही थी, को प्रारंभिक अवस्था में रोकने के लिये कोई प्रभावशाली कदम उठाने में झिझकते रहे। प्रजातंत्रीय राज्यों की निष्क्रियता तथा दब्बू नीति के कारण सामूहिक सुरक्षा की व्यवस्था का लोप हो गया और राष्ट्रसंघ की निर्बलता एवं निर्थकता भी स्पष्ट हो गयी।

गैर्थोन हाडी ने आर्थिक संकट के परिणामों की समीक्षा के संबंध में लिखा है, अंत में, हमें आर्थिक-राजनैतिक घटनाओं के परस्पर से जिनत कठिनाइयों को समझना होगा। राजनैतिक भय उस आर्थिक सहयोग में रुकावट डालते हैं, जो पुनरुद्धार के लिये आवश्यकत है, और उस विश्वास की पुनः स्थापना में रुकावट डालते हैं, जिसके बिना आर्थिक सहयोग नहीं हो सकता। पुनः शस्रीकरण के कारण उत्पन्न समृद्धि ने आधारभूत मंदी की मौजूदगी पर पर्दा डाल दिया। दूसरी ओर, आर्थिक कठिनाइयों में अति व्यवस्तता के कारण राजनीतिज्ञों के मस्तिष्क उन राजनैतिक खतरों से दूर रहते रहे, जो उस समय मौजूद थे। परिणामतः राष्ट्र-राष्ट्र के बीच ऐसी दीवारें खङी हो गई जिनके फलस्वरूप ऐसा कोई संयुक्त प्रयास असंभव हो गया जो संसार को सुरक्षा प्रदान कर सकता था।

इस प्रकार यह बात स्पष्ट हो जाती है कि दो विश्वयुद्धों के मध्य आर्थिक मंदी न केवल यूरोप के इतिहास में अपितु विश्व इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी जिसने प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से समूचे विश्व को अस्त-व्यस्त कर दिया।

महत्त्वपूर्ण प्रश्न एवं उत्तर

प्रश्न : 1929-30 की विश्व व्यापी आर्थिक मंदी का दौर किस देश से शुरू हुआ था

उत्तर : संयुक्त राज्य अमेरिका।

प्रश्न : आर्थिक मंदी के कई कारण थे। परंतु तात्कालिक कारण था

उत्तर : कृषि एवं उद्योगों का यंत्रीकरण

प्रश्न : आर्थिक संकट से निपटने के लिये किस देश में राष्ट्रीय सरकार का गठन हुआ था

उत्तर : संयुक्त राज्य अमेरिका

प्रश्न : आर्थिक संकट के परिणामस्वरूप पूर्वी यूरोप में कौन सा वाद अपनी जङें जमाने में सफल रहा

उत्तर : समाजवाद

प्रश्न : जापान ने आर्थिक संकट से निपटने के लिये विस्तारवादी नीति का सहारा लिया। इस नीति का पहला शिकार बना
उत्तर : मंचूरिया।

1. पुस्तक- आधुनिक विश्व का इतिहास (1500-1945ई.), लेखक - कालूराम शर्मा

Online References
wikipedia : आर्थिक मंदी के परिणाम

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