गंग राजवंश का इतिहास
कदंबों तथा पल्लवों के राज्यों के बीच आधुनिक मैसूर के दक्षिण में गंगों का राज्य स्थित था। इस स्थान को गंगवंश के साथ लंबे समय तक संबद्ध रहने के कारण गंगवाडि कहा गया। गंगवंश का प्रारंभिक इतिहास अंधकारपूर्ण है। अभिलेखों में इस वंश का प्रथम शासक कोंकणिवर्मा बताया गया है। उसे जाह्रवेय कुल (गंगा का वंश) तथा काण्वायन गोत्र कहा गया है। उसने कई युद्धों में ख्याति प्राप्त की तथा अपने लिये एक समृद्धिशाली राज्य का निर्माण कर लिया। वह धर्ममहाराजाधिराज की उपाधि धारण करता था, जो उसकी स्वतंत्र स्थिति का सूचक है। कोंकणिवर्मा का समय 400 ई. के आस-पास माना जा सकता है। गंगों की प्रारंभिक राजधानी कुवलाल (कोलार) थी, जो बाद में तलकाड हो गयी।
कोंकणवर्मा का पुत्र तथा उत्तराधिकारी माधव प्रथम (425 ई.) हुआ। वह एक विद्वान राजा था, जिसे दत्तकसूत्र पर टीका लिखने का श्रेय दिया गया है। वह सभी शास्त्रों का ज्ञाता था। इसके बाद अय्यवर्मा (450ई.) शासक बना। वह योद्धा होने के साथ-साथ शास्त्र, इतिहास एवं पुराणों का भी ज्ञाता था। उसके तथा उसके छोटे भाई कृष्णवर्मा के बीच राजसिंहासन के लिये युद्ध हुआ। अय्यवर्मा को पल्लव नरेश से सहायता मिली। इस संघर्ष के फलस्वरूप गंग राज्य राज्य दोनों भाइयों के बीच आधा-आधा बाँट दिया गया। दोनों ने अपने पुत्र का नाम सिंहवर्मा रखा। उनके काल में भी गंग राज्य का विभाजन कायम रहा। अय्यवर्मा के पुत्र सिंहवर्मा को पल्लव नरेश स्कंदवर्मा ने राजा बनाया था। उसका विवाह कदंब नरेस कृष्णवर्मा प्रथम की बहिन से हुआ। परवर्ती लेखों के अनुसार इस विवाह से अविनीत नामक पुत्र हुआ। वह बचपन में ही राज्य का उत्तराधिकारी बना दिया गया।
गंगनरेश दुर्विनीत (540-600ई.)ने अपने वंश को पल्लवों की अधीनता से मुक्त किया। उसने पुन्नाड (दक्षिणी मैसूर) तथा कोंगूदेश की विजय की उसका चालुक्यों के साथ मैत्री-संबंध था। वह संस्कृत का महान विद्वान था। इसके बाद श्रीपुरुष (728-788ई.) इस वंश का एक महत्त्वपूर्ण शासक हुआ। इसके समय में कोंगूप्रदेश के ऊपर पाण्ड्यों का अधिकार हो गया तथा वह पाण्ड्यों की अधीनता में शासन करने लगा। उसने अपनी राजधानी मान्यपुर में स्थानांतरित कर दी।श्रीपुरुष का शासन समृद्धि का काल था। नोलंबवाडि (चित्तलदुर्ग जिला) के लोग उसकी अधीनता मानते थे।
श्रीपुरुष के बाद गंग राज्य की अवनति प्रारंभ हुयी।उसके उत्तराधिकारी शिवमार द्वितीय को राष्ट्रकूट ध्रुव तथा गोविन्द तृतीय ने पराजित किया और बंदी बनाया। अमोघवर्ष के काल में नीतिमार्ग (837-870ई.) के नेतृत्व में गंगों ने पुनः अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। कृष्ण तृतीय (839-967ई.) ने पुनः गंग-राज्य की विजय की तथा वहाँ अपने साले भुतुग द्वितीय को शासक बना दिया। इसके बाद गंगवंसी शासक पाण्ड्यों तथा चोलों से लङते रहे।
चोल शासक राजराज प्रथम ने 1004 ई. में गंगों को जीता तथा उन्होंने चोलों की अधीनता में रहना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार क्रमशः गंग-राज्य की समाप्ति हो गयी।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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