इतिहासदक्षिण भारतदक्षिणापथ के लघु राजवंशप्राचीन भारत

कदंब राजवंश का इतिहास

कदंब राजवंश का उत्कर्ष चोथी शता.ईस्वी के मध्य से दक्षिणापथ के दक्षिण-पश्चिम में हुआ। इस समय समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ-अभियान के परिणामस्वरूप कांची के पल्लवों की शक्ति कमजोर हो चुकी थी।कदंब लोग मानव्यगोत्रीय ब्राह्मण थे, जो अपने को हारीति-पुत्र कहते थे। उनका मुख्य कार्य वेदों का अध्ययन तथा वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान करना था। पहले वे पल्लवों की अधीनता स्वीकार करते थे। इस वंश के मयूरशर्मन ने पल्लवों के विरुद्ध विद्रोह किया तथा अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। वह कदंब वंश का संस्थापक था।

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मयूरशर्मन ने पल्लवों के सीमांत अधिकारियों को परास्त कर श्रीपर्वत के आस-पास के घने वनों पर अधिकार कर लिया। कालांतर में पल्लव राजाओं ने उससे मैत्री – संबंध स्थापित किया तथा उसे स्वतंत्र शासक स्वीकार कर लिया तथा पश्चिमी समुद्र एवं प्रेहरा (तुंगभद्रा अथवा मलप्रभ नदी) के बीच के भूभाग पर उसका प्रभुत्व मान लिया। बाद की कथाओं में मयूरशर्मन को अठारह अश्वमेघ यज्ञों का अनुष्ठान करने वाला कहा गया है। बनवासी (वैजयंती) उसकी मुख्य राजधानी तथा पालासिका उप राजधानी थी। मयूरशर्मन ने लगभग 345 ई. से 360 ई. तक शासन किया।

कदंबवंशी शासकों की वंशावली हमें एकमात्र तालगुंड स्तंभलेख से पता चलती है। मयूरशर्मन के बाद काकुत्सवर्मन इस कुल का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा हुआ। उसके पूर्व तीन राजाओं के नाम हमें पता चलते हैं – कंगवर्मन, भगीरथ तथा रघु। उन्होंने 425 ई. तक शासन किया। परंतु उनके शासनकाल की प्रमुख घटनाओं के विषय में हमें बहुत कम जानकारी मिलती है।

कंगवर्मन के विषय में यह बताया गया है, किउसने बासीम शाखा के वाकाटक नरेश विन्ध्यसेन के कुंतल राज्य पर आक्रमण का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया था। भगीरथ (385-410ई.) के काल में ही गुप्तशासक चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने कालिदास के नेतृत्व में अपना दूत मंडल कुंतल नरेश के दरबार में भेजा था। भगीरथ के बङे पुत्र रघु को अनेक शत्रुओं का विजेता कहा गया है। उसके शासन के अंत में उसका छोटा भाई काकुत्सवर्मन 425 ई. में राजा बना। तालगुण्ड प्रशस्ति में काकुत्सवर्मन की शक्ति की बङी प्रशंसा की गयी है। उसका शासन काल अत्यन्त समृद्धिशाली था तथा उसने अपनी कन्याओं का विवाह वाकाटक तथा गुप्त राजवंशों में किया था। उसने तालगुण्ड में एक विशाल तालाब खुदवाया था। काकुत्सवर्मन ने 450 ई. तक शासन किया था।

काकुत्सवर्मन का उत्तराधिकारी उसका पुत्र शांतिवर्मन (450-475ई.) उसे अत्यन्त यशस्वी शासक बताया गया है, जो तीन ताज (पट्टत्रय)धारण करता था। उसके पुत्र मृगेश के एक लेख से पता चलता है, कि उसने अपने शत्रुओं की लक्ष्मी को उनके महलों से बलपूर्वक खींच निकाला था। शांतिवर्मन के काल में कदंब राज्य को पल्लवों से खतरा बना हुआ था। अतःल उसने अपने राज्य के दक्षिणी भाग को अपने छोटे भाई कृष्णवर्मन की अधीनता में कर दिया। यह स्पष्टतः राज्य का विभाजन था। कृष्णवर्मन ने अश्वमेघ यज्ञ किया। वह पल्लवों के साथ युद्ध में मार डाला गया। उसका पुत्र विष्णुवर्मा पल्लवों द्वारा अभिषिक्त किया गया।

शांतिवर्मन के बाद उसका पुत्र मृगेशवर्मन (470-488ई.) शासक बना। उसका बनवासी तथा पलाशिका दोनों पर अधिकार था। गंग तथा पल्लव शासकों के विरुद्ध उसे सफलता प्राप्त हुयी। वह अपनी विद्वता तथा बुद्धिमानी के लिये प्रसिद्ध था। वह एक कुशल सैनक भी था, जिसे घोङे तथा हाथियों की सवारी का बङा शौक था। उसने अपने पिता की स्मृति में पलाशिका में एक जैन मंदिर का निर्माण करवाया था तथा उसे उदारतापूर्वक दान दिया था। मृगेश के बाद रविवर्मा (500-538ई.) एक महत्त्वपूर्ण शासक हुआ। हल्सी लेख से पता चलता है, कि उसने विष्णुवर्धन तथा अन्य राजाओं को युद्ध में मार डाला एवं पलाशिका से पल्लवों को निकाल कर वहाँ अपना अधिकार जमा लिया। उसकी विजयों के फलस्वरूप समस्त प्राचीन कदंब राज्य पर उसका अधिकार पुनः स्थापित हो गया।

रविवर्मा का उत्तराधिकारी हरिवर्मा (538-550 ई.)बना।वह शांत प्रकृति का शासक था। उसके राज्यकाल में 545 ई. के लगभग चालुक्य नरेश पुलकेशिन प्रथम ने कदंब राज्य के उत्तरी भाग को जीत लिया तथा बादामी में अपनी राजधानी बनाई। कदंबों में पारिवारिक कलह के कारण एकता नहीं थी। उनकी छोटी शाखा (जिसकी स्थापना दक्षिण में कृष्णवर्मा प्रथम ने की थी) के कृष्णवर्मा द्वितीय (550-556ई.) ने वैजयन्ती पर आक्रमण कर वहाँ अपना अधिकार कर लिया और इस प्रकार बङी शाखा के अंतिम शासक हरिवर्मा का अंत हुआ। कृष्णवर्मा द्वितीय अथवा उसके पुत्र अजवर्मा के समय में पुलकेशिन प्रथम के पुत्र कीर्त्तिवर्मा ने बनवासी को अंतिम रूप से जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। इस प्रकार कदंब राज्य की स्वाधीनता का अंत हुआ।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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