प्राचीन भारतइतिहासवाकाटक वंश

वाकाटक राजवंश का इतिहास

तीसरी शताब्दी ईसा से छठीं शता. ईस्वी तक दक्षिणापथ में शासन करने वाले समस्त राजवंशों में वाकाटक वंश सर्वाधिक सम्मानित तथा सुसंस्कृत था। इस यशस्वी राजवंश ने मध्य भारत तथा दक्षिण भारत के ऊपरी भाग में शासन किया और यह मगध के चक्रवर्ती गुप्तवंश का समकालीन था। इस राजवंश के लोग विष्णुवृद्धि गोत्र के ब्राह्मण थे तथा उनका मूल निवास स्थान बरार (विदर्भ) में था।

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वाकाटक वंश की जानकारी प्रदान करने वाले इतिहास के साधन निम्नलिखिति हैं-

वाकाटक इतिहास के अध्ययन के लिये हम साहित्य तथा अभिलेखों दोनों का उपयोग करते हैं। साहित्य के अंतर्गत पुराणों का उल्लेख किया जा सकता है। इनमें अन्य राजवंशों के साथ-२ वाकाटक वंश का भी उल्लेख हुआ है। पुराणों में इस वंश के शासक प्रवरसेन प्रथम का प्रवीर नाम से उल्लेख हुआ है तथा उसकी शासनावधि साठ वर्षों की बतायी गयी है। पुराणों के अनुसार प्रवरसेन ने चार अश्वमेघ यज्ञों का अनुष्ठान किया था।

वाकाटक वंश के प्रमुख लेखों का विवरण निम्न प्रकार है-

  • प्रभावतीगुप्ता का पूना ताम्रपत्र
  • प्रवरसेन द्वितीयकालीन रिद्धपुर ताम्रपत्र
  • प्रवरसेन द्वितीय की चमक-प्रशस्ति
  • हरिषेण का अजंता गुहाभिलेख।

पूना तथा रिद्धपुर के ताम्रपत्रों से वाकाटक गुप्त संबंधों पर भी प्रकाश पङता है। इनसे प्रभावतीगुप्ता के व्यक्तित्व तथा कार्यों के विषय में भी जानकारी मिलती है। अजंता गुहालेख इस वंश के शासकों की राजनैतिक उपलब्धियों का विवरण देता है। इससे पता चलता है,कि इस वंश का संस्थापक विन्ध्यशक्ति था।

वाकाटक शासकों का विवरण निम्नलिखित है-

विन्ध्यशक्ति

प्रवरसेन प्रथम

प्रधान शाखा

रुद्रसेन प्रथम

पृथ्वीसेन प्रथम

रुद्रसेन द्वितीय

प्रभावतीगुप्ता का संरक्षण काल

नरेन्द्रसेन

पृथ्वीषेण द्वितीय

बासीम शाखा के वाकाटक

हरिषेण

Reference : https://www.indiaolddays.com

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