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हस्तिनापुर के बारे में जानकारी

हस्तिनापुर के बारे में जानकारी

महाभारत काल का यह प्रसिद्ध नगर मेरठ से 22 मील उत्तर-पूर्व गंगा नदी की प्राचीन धारा के तट पर बसा हुआ है। महाभारत युद्ध के बाद इस नगर का गौरव समाप्त हो गया तथा यह गंगा नदी के प्रवाह में विलीन हो गया। विष्णु पुराण से पता चलता है, कि हस्तिनापुर के गंगा में प्रवाहित हो जाने पर राजा निचक्षु (जनमेजय का वंशज) ने अपनी राजधानी कौशांबी में स्थानान्तरित किया था।

महाभारत काल में हस्तिनापुर कुरु वंश के राजाओं की राजधानी थी।

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हस्तिनापुर को शास्त्रों में गजपुर, हस्तिनापुर, नागपुर, असंदिवत, ब्रह्मस्थल, शांति नगर और कुंजरपुर आदि के रूप में जाना जाता है। सम्राट अशोक के पौत्र, राजा सम्प्रति ने यहाँ अपने साम्राज्य के दौरान कई मंदिरों का निर्माण किया है। प्राचीन मंदिर और स्तूप आज यहाँ नहीं हैं।

हस्तिनापुर को पुरातात्विक मानचित्र पर रखने का श्रेय बी.बी.लाल को है, जिन्होंने भारतीय पुरात्व सर्वेक्षण विभाग की ओर से 1950 से लेकर1952 तक यहाँ पर उत्खनन कार्य करवाया था।

यहां खुदाई से पांच संस्कृतियों के अवशेष प्रकाश में आये हैं, जिन्हें गेरिक, चित्रित-धूसर, उत्तरी काली-चमकीली (N.B.P.) तथा उत्तर-एन.बी.पी.संस्कृति कहा जाता है।यहाँ की पाँचवी संस्कृति मध्यकाल की है। सभी से संबंधित मिट्टी के बर्तन खुदाई से प्राप्त होते हैं।

गेरिक संस्कृति(प्रथम संस्कृति)के स्तर से केवल कुछ पात्रखंड ही मिले हैं, जो गेरुये रंग से पुते हुये हैं। भवन निर्माण का कोई साक्ष्य नहीं मिलता है।

दूसरी संस्कृति(चित्रित-धूसर)से बर्तन प्राप्त होते हैं। इनमें सलेटी रंग की थालियाँ, कटोरे, घङे, मटके, नाँद आदि हैं। बर्तनों के ऊपर चित्रकारियां भी मिलती हैं। इस स्तर से भवन निर्माण के साक्ष्य प्राप्त हुये हैं। पता चलता है, कि भवन निर्माण में मिट्टी तथा बांसबल्ली का प्रयोग होता था। लोग कृषि तथा पशुपालन से परिचित थे। खुदाई में गाय, बैल, भेङ, बकरी, घोङे आदि पशुओं की हड्डियाँ तथा चावल के दाने प्राप्त होते हैं। कुछ हड्डियों पर काटे जाने के चिह्न हैं तथा कुछ जलने से काली भी पङ गयी हैं। हरिण के सींगों के अवशेष भी मिलते हैं। संभवतः इनका शिकार किया जाता था। आभूषणों में मनके तथा काँच की चूङियाँ मिलती हैं। अन्य उपकरणों में चाकू, कील, तीर, भाला, हंसिया,कुदाल, चिमटा आदि का उल्लेख किया जा सकता है।

तीसरी संस्कृति (एन.बी.पी.)के निवासी काले चमकीले भांडों का प्रयोग करते थे तथा पक्की ईंटों से बने भवनों में निवास करते थे। उनकी सभ्यता पूर्ववर्ती युगों की अपेक्षा अधिक विकसित थी। गंदे पानी को बाहर निकालने के लिये नालियों की भी व्यवस्था की गयी थी। इन्हें विशेष प्रकार की ईंटों से बनाया जाता था। वे ताँबे तथा लोहे के उपकरणों का भी प्रयोग करते थे। खुदायी में इन धातुओं के उपकरण प्राप्त होते हैं। इस काल तक नगरीय जीवन का प्रारंभ हो चुका था। इस स्तर के ऊपरी भाग से जलने के अवशेष मिलते हैं। इससे अनुमान किया जाता है, कि हस्तिनापुर के इस स्तर का विनाश अग्निकांड में हुआ।

चौथे सांस्कृतिक स्तर (उत्तर- एन.बी.पी.)से कई प्रकार के मृदभाण्ड प्राप्त हुये हैं। ये लाल रंग के हैं, जिन पर कहीं-कहीं काले रंग से चित्रकारी भी की गयी हैं। स्वास्तिक, त्रिरत्न, मीन, फूलपत्तियों आदि के आकारों के ठप्पे भी पात्रों पर लगाये गये हैं। मकानों के निर्माण में पकी ईंटों का प्रयोग किया गया है। साथ ही साथ शुंग काल से लेकर गुप्त काल तक की मिट्टी तथा पत्थर की प्रतिमायें भी मिलती हैं। शुंगकालीन प्रतिमाओं में एक स्त्री की मूर्ति अत्यन्त सजीव एवं आकर्षक है। उसके हाथों, चेहरे, आँखों, केशों आदि को विविध प्रकार से सजाया गया है। कुषाणयुगीन प्रतिमाओं में मैत्रेय की प्रतिमा सुन्दर है। कुछ बर्तनों के ऊपर निर्माताओं के नाम भी उत्कीर्ण हैं। मथुरा के दत्तवंशी शासकों, कुषाण राजाओं तथा यौधेयों के सिक्के भी यहाँ से मिलते हैं। बी.बी.लाल का अनुमान है, कि हस्तिनापुर की प्राचीनतम गेंरिक संस्कृति का समय ई.पू.1200 के पहले का है। सिक्कों के आधार पर यहाँ की चतुर्थ संस्कृति का समय ई.पू.200 से 300 ई. तक निर्धारित किया गया है। चतुर्थ काल के बाद लगभग आठ शताब्दियों तक हस्तिनापुर में आवास के साक्ष्य नहीं मिलते। जब यहाँ पाँचवीं बार बस्ती बसाई गयी तो सब कुछ परिवर्तित हो चुका था। इस स्तर से दिल्ली सल्तनत के सुल्तान बलबन का एक सिक्का मिलता है, जिसके आधार पर इसे मध्यकालीन माना जाता है। मकान पकी ईंटों के बनते थे। इस काल के कचित मृदभाण्ड विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। पार्वती तथा ऋषभदेव की प्रस्तर प्रतिमायें भी प्राप्त हुई हैं।

डा.लाल ने हस्तिनापुर की अंतिम संस्कृति का समय 1200-1500 ई. के बीच निर्धारित किया है। 15 वीं शता. के बाद से यहाँ मानव आवास के साक्ष्य नहीं मिलते हैं। इस प्रकार स्पष्ट होता है, कि हस्तिनापुर में लंबे समय तक मानव आवास विद्यमान रहा।

जैनग्रंथों में भी हस्तिनापुर को महत्त्व दिया गया है। इसका संबंध कई तीर्थंङ्करों – शांति, कुन्तु, अरनाथ आदि से बनाया गया है। अतः यह स्थान जैनियों का तीर्थस्थल माना जाने लगा।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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