मध्यकालीन भारतइतिहासपेशवा

प्रथम पेशवा बाजीराव प्रथम का इतिहास

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बाजीराव प्रथम (1720-1740ई.)-

बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के बाद शाहू ने उनके पुत्र बाजीराव प्रथम को पेशवा नियुक्त किया और इस प्रकार बालाजी विश्वनाथ के परिवार में पेशवा पद पैतृक (वंशानुगत) हो गया।

उसके अधीन मराठा शक्ति अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई।उन्होंने मराठा साम्राज्य के विस्तार के लिए उत्तर दिशा में आगे बढने की नीति का सूत्रपात किया ताकि मराठों की पताका कृष्णा से लेकर अटक तक फहराए।

बाजीराव, मुगल साम्राज्य के तेजी से हो रहे पतन और विघटन से परिचित थे तथा वे इस अवसर का पूरा लाभ उठाना चाहते थे।

मुगल साम्राज्य के प्रति अपनी नीति की घोषणा करते हुए बाजीराव प्रथम ने कहा हमें इस जर्जर वृक्ष के तने पर आक्रमण करना चाहिए, शाखाएं तो स्वयं ही गिर जायेगी।

23जून, 1724ई. में शूकरखेङा के युद्ध में मराठों की मदद से निजामुल-मुल्क ने दक्कन के मुगल सूबेदार मुबारिज खाँ को परास्त करके दक्कन में अपनी स्वतंत्रता सत्ता स्थापित की।

निजामुल-मुल्क ने अपनी स्थिति मजबूत होने पर पुनः मराठों के खिलाफ कार्यवाही शुरू कर दी तथा चौथ देने से इंकार कर दिया।परिणामस्वरूप 1728ई. में बाजीराव ने निजामुल-मुल्क को पालखेङा के युद्ध में पराजित किया।

युद्ध में पराजित होने पर निजामुल-मुल्क संधि के लिए बाध्य हुआ।6मार्च 1728ई. में दोनों के बीच मुंशी शिवगाँव की संधि हुई जिसमें निजाम ने मराठों को चौथ और सरदेशमुखी देना स्वीकार कर लिया।इस संधि से दक्कन में मराठों की सर्वोच्चता स्थापित हो गई।

इस संधि से शाहू को मराठों के अकमात्र नेता के रूप में मान्यता देने आदि सभी शर्तें मंजूर हो गई किन्तु उसने शंभा जी को शाहू को सौंपने से इंकार कर दिया।

1731में डभोई के युद्ध में बाजीराव ने त्रियंबकराव को पराजित कर सारे प्रतिद्वन्दियों का अंत कर दिया।

1731ई. में वार्ना की संधि द्वारा शंभा द्वितीय ने शाहू की अधीनता स्वीकार कर ली।

1737ई. में मुगल बादशाह ने निजाम को मराठों के विरुद्ध भेजा। परंतु इस बार भी बाजीराव उससे अधिक योग्य सेनापति सिद्ध हुआ।उसने निजाम को भोपाल के पास युद्ध में पराजित किया।

भोपाल युद्ध के परिणामस्वरूप 1738ई. में दुरई-सराय की संधि हुई। इस संधि की शर्तें पूर्णतः मराठों के अनुकूल थी।निजाम ने संपूर्ण मालवा का प्रदेश तथा नर्मदा से चंबल के इलाके की पूरी सत्ता मराठों को सौंप दी।1739ई. में बेसीन की विजय बाजीराव की महान सैन्य कुशलता एवं सूझबूझ का प्रतीक थी। इस युद्ध  में बाजीराव ने पुर्तगालियों से सालसोट तथा बेसीन छीन ली।यूरोपीय शक्ति के विरुद्ध यह मराठों की महानतम विजय थी।

पुर्तगालियों की धार्मिक कट्टरता, बलात धर्म परिवर्तन,लूटपाट तथा अत्याचारों के कारण तटवर्ती मराठा समुदाय में उनके प्रति घृणा की भावना आ गई थी।

पुर्तगालियों की उत्तरी क्षेत्र की  राजधानी बेसीन थी तथा दक्षिणी क्षेत्र की राजधानी  गोआ थी। पुर्तगालियों द्वारा सभी जहाजों को परमिट लेने व अपने क्षेत्र के बंदरगाहों में शुल्क चुकाने के लिए बाध्य किया जाता था।

बाजीराव ने 1733ई. में जंजीरा के सिद्दियों के खिलाफ एक लंबा शक्तिशाली अभियान आरंभ किया।और अंततोगत्वा उन्हें मुख्यभूमि से निकाल बाहर कर दिया।सिद्दी जो पहले निजामशाह तथा बाद में आदिलशाह राज्य में सैनिक अधिकारी थे, 1670ई. के बाद से मुगलों की सेवा में आ गये।

बाजीराव प्रथम को लङाकू पेशवा के रूप में स्मरण किया जाता है(सैनिक पेशवा तथा शक्ति के अवतार के रूप में ) वह शिवाजी के बाद गुरिल्ला युद्ध का सबसे बङा प्रतिपादक था।

शाहू ने बाजीराव प्रथम को योग्य पिता का योग्य पुत्र कहा है।

बाजीराव प्रथम ने हिन्दू पादशाही का आदर्श रखा। यद्यपि बालाजी बाजीराव ने इसे खत्म कर दिया।

1732ई. में बाजीराव के एक इकरारनामा तैयार किया जिसमें होल्कर,सिंधिया,आनंनदराव तथा तुकोजी पवार आदि के हिस्सों की व्याख्या की गई थी।इसी समझौते ने मालवा में भावी चार मराठा रियासतों की आधारशिला रखी।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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