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चोल काल में कला तथा स्थापत्यकला

चोल वंशी शासक उत्साही निर्माता थे और उनके समय में कला और स्थापत्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुयी। चोलयुगीन कलाकारों ने अपनी कुशलता का प्रदर्शन पाषाण-मंदिर एवं मूर्तियां बनाने में किया है। द्रविङ वास्तु शैली का जो प्रारंभ पल्लव काल में हुआ उसका चरमोत्कर्ष इस काल में देखने को मिलता है।

चोलकाल दक्षिण भारतीय कला का स्वर्ण युग कहा जा सकता है। कलाविद फर्ग्गयुसन के अनुसार चोल कलाकारों ने दैत्यों के समान कल्पना की तथा जौहरियों के समान उसे पूरा किया।

चोलकालीन मंदिर

चोलकालीन मंदिरों के दो रूप दिखाई देते हैं। प्रथम के अंदर प्रारंभिक काल के वे मंदिर हैं, जो पल्लव शैली से प्रभावित हैं तथा बाद में के मंदिरों की अपेक्षा काफी छोटे आकार के हैं। दूसरे रूप के मंदिर अत्यन्त विशाल तथा भव्य हैं। इनमें हम द्रविङ शैली का पूर्ण विकास पाते हैं।

पल्लवकालीन कला एवं स्थापत्यकला

चोल शासकों ने अपनी राजधानी तंजोर में बहुसंख्यक पाषाण मंदिरों का निर्माण करवाया। चोल काल के प्रारंभिक स्मारक पुडुक्कोट्टै जिले से प्राप्त होते हैं। इनमें विजयालय द्वारा नार्त्तामलाई में बनवाया गया चोलेश्वर मंदिर सर्वाधिक प्रसिद्ध है। यह चोल शैली का एक सुन्दर नमूना है। इसमें एक वर्गाकार प्राकार के अंतर्गत एक वृत्ताकार गर्भगृह बना हुआ है। प्राकार तथा गर्भगृह के ऊपर विमान हैं। यह चार मंजिला है।प्रत्येक मंजिल एक दूसरे के ऊपर क्रमशः छोटी होती हुई बनायी गयी है. नीचे की तीन मंजिले वर्गाकार तता सबसे ऊपर गोलाकार है। इसके ऊपर गुम्बदाकार शिखर तथा सबसे ऊपरी भाग में गोल कलश स्थापित किया गया है। सामने की ओर घिरा हुआ मंडप है। बाहरी दीवारों को सुन्दर भित्तिस्तंभों से अलंकृत किया गया है। मुख्य द्वार के दोनों ओर तख में दो द्वारपालों की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। मुख्य मंदिर के चारों ओर खुले हुये बरामदे में सात छोटे देवस्थान हैं, जो मंदिर ही प्रतीत होते हैं। ये सभी पाषाण-निर्मित हैं। इस प्रकार का दूसरा मंदिर कन्ननूर का बालसुब्रह्मण्य मंदिर है, जिसे आदित्य प्रथम ने बनवाया था। इसकी समाधियों की छतों के चारों कानों पर हाथियों की मूर्तियाँ हैं। विमान के शिखर के नीचे बना हुआ हाथी सुब्रह्मण्यम् का वाहन है। इसी समय का एक अन्य मंदिर कुम्बकोनम् में बना नागेश्वर मंदिर है। इसकी बाहरी दीवारों की ताखों में सुन्दर मूर्तियाँ बनायी गयी हैं। गर्भगृह के चारों ओर अर्धनारी, ब्रह्म, दक्षिणामूर्ति के साथ-साथ बहुसंख्यक मनुष्यों की मूर्तियाँ ऊँची रिलीफ में बनी हैं, जो अत्यधिक सुन्दर हैं। मानव मूर्तियाँ या तो दानकर्त्ताओं की हैं या समकालीन राजकुमारों तथा राजकुमारियों की हैं। आदित्य प्रथम के ही समय में तिरुक्कट्टलै के सुन्दरेश्वर मंदिर का भी निर्माण हुआ। इसके परकोटे में गोपुरम् बना हुआ है, विमान दुतल्ला है तथा इसमें अर्द्धमंडप भी हैं। इस मंदिर में द्रविङ शैली की भी सभी विशेषतायें देखी जा सकती हैं।

परांतक प्रथम के राज्य-काल में निर्मित श्रीनिवासनल्लूर का कोरंगनाथ मंदिर चोल मंदिर निर्माण कला के विकास के द्वितीय चरम को व्यक्त करता है। यह कुल मिलाकर 50 फीट लंबा है। इसका वर्गाकार गर्भगृह 25 फीट का है तथा सामने की ओर मंडप भी बना हुआ है। मंडप के भीतर चार स्तंभों पर आधारित एक लघु कक्ष है। मंडप तथा गर्भगृह को जोङते हुये अन्तराल बनाया गया है। मंदिर का शिखर 50 फीट ऊँचा है। गर्भगृह की बाहरी दीवार में बनी ताखों में एक पेङ नीचे भक्तों, सिंहों तथा गणों के साथ बैठी हुई दुर्गा की दक्षिणापूर्ति तथा विष्णु एवं ब्रह्मा की खङी हुई मूर्तियाँ उत्कीर्ण मिलती हैं। दुर्गा के साथ लक्ष्मी तथा सरस्वती की मूर्तियाँ भी मिलती हैं। सभी तक्षण अत्यन्त सुन्दर हैं। इस प्रकार वास्तु तथा तक्षण दोनों की दृष्टि से यह एक उत्कृष्ट कलाकृति है।

चोल स्थापत्य का चरमोत्कर्ष त्रिचनापल्ली जिले में निर्मित दो मंदिरों – तंजोर तथा गंगेकोण्डचोलपुरम् के निर्माण में परिलक्षित होता है। तंजोर के भव्य शैव मंदिर, जो राजराजेश्वर अथवा बृहदीश्वर नाम से प्रसिद्ध हैं, का निर्माण राजराज प्रथम के काल में हुआ था। भारत के मंदिरों में सबसे बङा तथा लंबा यह मंदिर का सर्वोत्तम एक उत्कृष्ट कलाकृति है, जो दक्षिण भारतीय स्थापत्य के चरमोत्कर्ष को द्योतित करती है। इसे द्रविङ शैली का सर्वात्तम नमूना मानते हैं। इसका विशाल प्रांगण है। इसके निर्माण में ग्रेनाइट पत्थरों का प्रयोग किया गया है। मंदिर चारों ओर से एक ऊँची दीवार से घिरा है। मंदिर का आकर्षण गर्भगृह के ऊपर पश्चिम में बना हुआ लगभग 200 फीट ऊँचा विमान है। इसका आधार 82 वर्ग फुट है। आधार के ऊपर तेरह मंजिलों वाला पिरामिड के आकार का शिखर 190 फीट ऊँचा है। मंदर का गर्भगृह 44 वर्ग फीट का है, जिसके ऊपर चतुर्दिक 9 फीट चौङा प्रदक्षिणापथ निर्मित है। प्रदक्षिणा पथ की भीतरी दीवारों पर सुन्दर भित्तिचित्र बने हैं। गर्भगृह के भीतर एक विशाल शिवलिंग स्थापित हैं, जिसे अब बृहदीश्वर कहा गया है। प्रवेशद्वार पर दोनों ओर ताख में दो द्वारपालों की मूर्तियाँ बनी हैं। मंदिर के बहिर्भाग में विशाल नंदी की एकाश्मक मूर्तिय बनी है। मंदिर की दीवारों में बने ताखों में अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनी हुई हैं। इस प्रकार भव्यता तथा कलात्मक सौन्दर्य की दृष्टि से यह दक्षिण भारत का सर्वश्रेष्ठ हिन्दू स्मारक है। पर्सी ब्राउन के शब्दों में इसका विमान न केवल द्रविङ शैली की सर्वोत्तम रचना है, अपितु इसे समस्त भारतीय स्थापत्य की कसौटी भी कहा जा सकता है।

गंगैकोण्डचोलपुरम् के मंदिर का निर्माण राजराज के पुत्र राजेन्द्र चोल के शासन काल में हुआ। उसने यहाँ बृहदीश्वर नामक भव्य शैव मंदिर का निर्माण करवाया। इसकी योजना तंजौर मंदिर के ही समान है, लेकिन दोनों में कुछ विषमता भी मिलती है। यह 340 फीट लंबा तथा 110 फीट चौङा है। इसका आठ मंजिला पिरामिडाकार विमान 100 वर्ग फीट के आधार पर बना है तथा 86 फीट ऊँचा है। विमान के ऊपर गोल स्तूपिका है। मंदिर का मुख्य प्रवेशद्वार पूर्व की ओर है, जिसके बाद एक विशाल आकार का महामंडप है। मडंप तथा गर्भगृह को जोङते हुये अन्तराल बनाया गया है।मंडप तथा अन्तराल की दोनों छतें सपाट हैं। अन्तराल के उत्तर तथा दक्षिण की ओर दो प्रवेशद्वार बने हैं, जिनसे होकर गर्भगृह में पहुँचा जाता है। मंडप 250 पंक्तिबद्ध स्तंभों के आधार पर बना है। मंडप के स्तंभ अलंकृत तथा आकर्षक हैं। मंदिर की बाहरी दीवारों पर देवी-देवताओं की मूर्तियां एवं विविध प्रकार के अलंकरण उत्कीर्ण हैं, जो तंजोर मंदिर की अपेक्षा अधिक सुन्दर एवं कलापूर्ण हैं।

तंजोर तथा गंगैकोण्डचोलपुरम् के मंदिर चोल स्थापत्य के चरमोत्कर्ष को व्यक्त करते हैं। इनमें द्रविङ वास्तु के विमान निर्माण योजना की भव्यता, तकनीक तथा अलंकरण की पराकाष्ठा भी परिलक्षित होती है। साथ ही साथ ये चोल सम्राटों की महानता एवं गौरवगाथा को आज भी सूचित कर रहे हैं।

राजेन्द्र चोल के उत्तराधिकारियों के समय में भी मंदिर निर्माण की परंपरा कायम रही। इस समय कई छोटे-छोटे मंदिरों का निर्माण किया गया। इनमें मंदिर की दीवारों पर अलंकृत चित्रकारियाँ एवं भव्य मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। राजराज द्वितीय तथा कुलोत्तुंग तृतीय द्वारा बनवाये गये क्रमशः दारासुरम् का एरावतेश्वर का मंदिर तथा त्रिभवनम् का कम्पहरेश्वर का मंदिर अत्यन्त भव्य एवं सुन्दर हैं। इन मंदिरों का निर्माण भी तंजौर मंदिर की योजना पर किया गयाहै। ऐरावतेश्वर मंदिर का शिखर पाँच तल्ला है, जिसका सबसे ऊपरी तल्ला पाषाण के स्थान पर ईंटों से बनाया गया है। विमान के सामने मंडप तथा उसके आगे अग्रमंडप बनाये गये हैं। ये पहियेदार रथ की भाँति हैं, जिन्हे हाथी खींच रहे हैं। मंडपों में अलंकृत स्तंभ लगाये गये हैं। उत्तर की ओर अम्मन मंदिर तथा दक्षिण की ओर एक दूसरा स्तंभयुक्त मंडप है। मंदिर की बाहरी दीवार में बने आलों में मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं, जो बृहदीश्वर मंदिर जैसी हैं। मंडप का ऊपरी भाग नटराज सभा कहा जाता है। इसमें बने आलों में ऋषि-मुनियों की शांत एवं उपदेश देती हुयी मुद्रा में मूर्तियों उकेरी गयी हैं। कालांतर में इस मंदिर का प्रभाव कोणार्क के सूर्य मंदिर पर पङा। वास्तु तथा तक्षण दोनों ही दृष्टियों से यह मंदिर उल्लेखनीय हैं। कम्पहरेश्वर, जिसे त्रिभुवनेश्वर भी कहा जाता है, की योजना भी ऐरावतेश्वर मंदिर के ही समान है। इसमें मूर्तिकारी की अधिकता है। मूर्तियाँ कलात्मक दृष्टि से भी अच्छी हैं। नीलकंठ शास्त्री ने इसे मूर्तिदीर्घा कहा है।

परवर्ती चोल कला पर चालुक्य, होयसल तथा पाण्ड्य कला का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। परिणामस्वरूप मंदिरों के विमान तथा गोपुरम् की रचना में पहले से कुछ विभिन्नता मिलती है। विमान के पास शाला प्रकार का अम्मन मंदिर बनाया जाने लगा, जो इस काल की नई विशेषता है।यह वस्तुतः देवी मंदिर है। गोपुरम् में नया अंतर यह आया कि इनमें कई तल्ले बनने लगे तथा इनकी ऊँचाई बढ गयी। कभी-कभी ये विमान से भी ऊँचे हो जाते थे। स्तंभ पतले किन्तु अधिक अलंकृत बनाये जाने लगे।

तक्षण कला

स्थापत्य कला के साथ-साथ चोल शासकों ने तक्षण कला के क्षेत्र में भी कलाकारों ने सफलता प्राप्त की। उन्होंने पत्थर तथा धातु की बहुसंख्यक मूर्तियों का निर्माण किया। प्रारंभिक मूर्तियाँ पल्लव शैली से प्रभावित है, किन्तु दसवीं शती. में इनमें विशिष्टता दिखाई देती हैं। आकृतियाँ इतनी उभार के बनाई गयी हैं, कि वे दीवाल के सहारे सजीव खङी प्रतीत होती हैं। उनके अंग-प्रत्यंग को अत्यन्त सूक्षमता के साथ गढा गया है। कलाकारों द्वारा निर्मित मूर्तियों में देवी-देवताओं की मूर्तियाँ ही अधिक हैं,यद्यपि छिट-पुट रूप में मानव मूर्तियाँ भी प्राप्त होती हीं। चूँकि चोलवंश के अधिकांश शासक उत्साही शैव थे, अतः इस काल में शैव मूर्तियों का निर्माण ही अधिक हुआ।

पाषाण मूर्तियों से भी अधिक धातु (कांस्य) मूर्तियों का निर्माण हुआ। इसमें देवताओं, संतों तथा भक्त राजाओं की मूर्तियाँ बनायी गयी। सर्वाधिक सुन्दर मूर्तियाँ नटराज (शिव) मूर्तियाँ हैं, जो बहुत बङी संख्या में मिलती हैं। ये आज भी दक्षिण भारत में कई स्थानों पर विद्यमान हैं। जिनकी पूजा होती है। त्रिचनापल्ली के तिरुभरंगकुलम् से नटराज की एक विशाल कांस्य प्रतिमा मिली है।यह प्रतिमा दिल्ली संग्रहालय में है। यहीं से(तिरुभंरगकुलम्) एक अन्य मूर्ति शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप की एक मूर्ति मिली है, जो मद्रास संग्रहालय में सुरक्षित है। इसमें नारी तथा पुरुष की शारीरिक विशेषताओं को उभारने में कलाकार को विशेष सफलता मिली है। इसके अतिरिक्त ब्रह्मा, विष्णु, लक्ष्मी, भूदेवी, राम-सीता, कालियानाग पर नृत्य करते हुये बालक कृष्ण तथा कुछ शैव संतों की मूर्तियाँ भी प्राप्त होती हैं, जो कलात्मक दृष्टि से भव्य एवं सुन्दर हैं। चोल कलाकारों ने धातु मूर्तियों के निर्माण में एक विशिष्ट विधा का प्रचलन किया है। चोल मूर्तिकला मुख्यतः वास्तु कला की सहायक थी और यही कारण है, कि अधिकांश मूर्तियों का उपयोग मंदिरों को सजाने में किया गया। केवल धातु मूर्तियाँ ही स्वतंत्र रूप से निर्मित हुी हैं। बृहदीश्वर मंदिर की चौकी, भित्तिकाओं आदि पर शिव के विविध रूपों, – जैसे – विष्णु अनुग्रह, भिक्षातट, वीरभद्र, दक्षिणामूर्ति चंद्रशेखर, वृषभारूढ, त्रिपुरान्तक आदि की मूर्तियाँ उकेरी गयी हैं। त्रिपुरान्तक मूर्ति के माध्यम से शिल्पी राजराज के पराक्रम को उद्घाटितकरता हुआ जान पङता है। देवियों तथा विष्णु के विविध रूपों की मूर्तियाँ भी यहाँ मिलती हैं। लौकिक मूर्तियाँ भी बनाई गयी हैं। नृत्य की 108 मुद्राओं को नर्तकियों के माध्यम से यहाँ प्रदर्शित किया गया है। गंगैकोन्डचोलपुरम् स्थित बृहदीश्वर मंदिर की मूर्तियाँ यद्यपि कम हैं, फिर भी अधिक कलात्मक एवं भावपूर्ण हैं। शिव की चंडेशानुग्रग मूर्ति सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इसमें भक्त चंडेश के ऊपर शिव कृपा के दृश्य को अत्यन्त कुशलातपूर्वक गढा गया है। दारासुरम् मंदिर को मूर्तियों का विशाल संग्रह ही है, जहाँ नाट्यशास्त्र की समस्त मुद्राओं का अंकन किया गया है। मंदिर की चौकी पर अंकित कुछ अलंकरण इतने लोकप्रिय बने कि उनका प्रभाव जावा के बोरोबुदुर मंदिर पर पङा।

चित्रकला

वास्तु तथा तक्षण के साथ-साथ चोल काल में चित्रकला का भी विकास हुआ। इस युग के कलाकारों ने मंदिरों की दीवारों पर अनेक सुन्दर चित्र बनाये हैं। अधिकांश चित्र वृहदीश्वर मंदिर की दीवारों पर उत्कीर्ण मिलते हैं। ये अत्यंत आकर्षण एवं कलापूर्ण हैं। चित्र प्रमुखतः पौराणिक धर्म से संबंधित हैं। यहाँ शिव की विविध लीलाओं से संबंधित चित्रकारियाँ प्राप्त होती हैं।एक चित्र में राक्षस का वध करती हुी दुर्गा तता दूसरे में राजराज को सपरिवार शिव की पूजा करते हुये प्रदर्शित किया गया है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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