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चोल शासक राजराज प्रथम

चोल साम्राज्य की महत्ता का वास्तविक संस्थापक परांतक द्वितीय (सुन्दर चोल) का पुत्र अरिमोलवर्मन था, जो 985 ई. के मध्य राजराज के नाम से गद्दी पर बैठा। उसने तीस वर्षों तक (985-1015ई.)शासन किया। उसका शासनकाल चोल साम्राज्य का सर्वाधिक गौरवशाली युग है।

राजराज के समय से चोल राज्य का इतिहास समस्त तमिल देश का इतिहास बन गया। राजराज प्रथम साम्राज्यवादी शासक था। उसने अनेक विजयों के परिणामस्वरूप लघुकाय चोल राज्य को एक विशालकाय साम्राज्य में बदल दिया था।

राजराज प्रथम की उपलब्धियाँ

राज्यारोहण के बाद राजराज प्रथम ने अपनी आंतरिक स्थिति को सुदृढ किया। उसके बाद उसने दिग्विजय के रूप में अपना सैनिक अभियान प्रारंभ किया।

राजराज प्रथम के सैनिक अभियान निम्नलिखित हैं-

केरल, पाण्ड्य तथा सिंहल की विजय –

राजराज ने दक्षिण में केरल, पाण्ड्य तथा सिंहल राजाओं के विरुद्ध अभियान किया। सबसे पहले उसने केरल के ऊपर आक्रमण कर वहां के राजा रविवर्मा को त्रिवेन्द्रम में पराजित किया तथा इस विजय के उपलक्ष्य में काण्डलूर शालैकलमरुत्त की उपाधि ग्रहण की। इसके बाद उसका पाण्ड्य राज्य पर आक्रमण हुआ। यहाँ का राजा अमरभुजंग था। तिरुवालंगाडु ताम्रपत्रों से सूचित होता है, कि राजराज ने अमरभुजंग को पराजित कर बंदी बना लिया, उसकी राजधानी मदुरा को जीत लिया तथा विलिन्द के दुर्ग पर अपना अधिकार कर लिया। राजराज के शासन के बीसवें वर्ष का लेख मिलता है, जिससे सूचित होता है, कि उसने मदुरा नगर को ध्वस्त कर दिया, कोल्लम्, कोल्लदेश तथा कोण्डुगोलूर के राजाओं को पराजित किया और उसने समुद्र के शासक से अपनी सेवा करवाई थी।

केरल तथा पाण्ड्यों राज्यों को जीतने के बाद राजराज ने सिंहल की ओर ध्यान दिया। यहाँ का शासक महिन्द (महेन्द्र)पंचम था। वह केरल तथा पाण्ड्य की विजय के बाद राजराज सिंहल की ओर उन्मुख हुआ। उसने एक नौसेना के साथ सिंहल पर चढाई की। सिंहलनरेश महिन्द पंचम पराजित हुआ। चोल सेना ने अनुराधापुर को ध्वस्त कर दिया तथा सिंहल द्वीप के उत्तरी भाग पर राजराज प्रथम का अधिकार हो गया। तिरुवालंगाडु ताम्रपत्रों में इस सफलता का काव्यात्मक विवरण दिया गया है। जो इस प्रकार है – राम ने बंदरों की सहायता से सागर के आर-पार एक पुल बनवाया तथा बङी कठिनाई से लंका के राजा का वध किया। किन्तु यह शासक राम से भी अधिक प्रतापी सिद्ध हुआ, क्योंकि उसकी शक्तिशाली सेना ने जलपोतों से समुद्र पार किया तथा लंका के राजा को जला दिया। सिंहल पर अधिकार करने के बाद राजराज ने वहाँ अपना एक प्रांत स्थापित किया।चोलों ने अनुराधापुर के स्थान पर पोलोन्नरुव को अपनी राजधानी बनाया तथा इसका नाम जननाथ मंगलम् रख दिया। राजराज ने सिंहल में भगवान शिव के कुछ मंदिरों का निर्माण भी करवाया था।

राजराज ने इन सभी प्रदेशों को 989-993ई. के बीच जीता था।

पश्चिमी गंगों की विजय –

सिंहल को जीतने के बाद राजराज ने मैसूर क्षेत्र के पश्चिमी गंगों को जीता। उसके शासन के छठें वर्ष का एक लेख कर्नाटक से मिला है,जिसमें उसे चोल नारायण कहा गया है। इससे पता चलता है, कि उसने नोलंबों तथा गंगों को पराजित किया था। इस प्रकार उसका गंगवाडी, तडिगैवाडि तथा नोलम्बवाडी के ऊपर अधिकार हो गया था।

कल्याणी के पश्चिमी चालुक्यों से युद्ध-

चोल नरेश उत्तम चोल के समय से ही चोलों तथा पश्चिमी चालुक्यों में अनबन थी। चालुक्य नरेश तैलप द्वितीय ने उत्तम चोल को पराजित कर दिया था। तैलप के बाद सत्याश्रय चालुक्य वंश की गद्दी पर बैठा। राजराज ने उसके समय में चालुक्यों पर आक्रमण कर दिया। तिरुवालंगाडु ताम्रपत्रोंसे पता चलता है, कि सत्याश्रय राजराज की विशाल सेना का सामना नहीं कर सका तथा युद्ध क्षेत्र से भाग खङा हुआ। करन्दै दानपत्र से पता चलता है, कि चोल हाथियों ने तुंगभद्रा के तट पर भारी उत्पाद मचाया तथा चालुक्य सेनापति केशव यु्द्ध में बंदी बना लिया गया। राजेन्द्र के कन्याकुमारी लेख से भी पता चलता है, कि राजराज ने चालुक्यों को पराजित किया था। सत्याश्रय के होट्टर लेख (1007ई.)से पता चलता है, कि राजराज के पुत्र राजेन्द्र चोल ने नौ लाख की विशाल सेना लेकर दोनूर (बीजापुर जिला) तक के प्रदेश को रौंद डाला था। उसने पूरे प्रदेश में भारी लूट-पाट की, स्त्रियों, बच्चों तथा ब्राह्मणों का संहार किया तथा कई दुर्गों को नष्ट कर दिया था। किन्तु बाद में सत्याश्रय ने चोल सेनाओं को खदेङ दिया तथा अपने राज्य पर पुनः अधिकार कर लिया। इस प्रकार इस अभियान में चोलों को अतुल संपत्ति मिली। चोल राज्य की उत्तरी सीमा तुंगभद्रा नदी तक विस्तृत हो गयी।

वेंगी के पूर्वी चालुक्य राज्य में हस्तक्षेप-

राजराज प्रथम के समय में वेंगी राज्य की आंतरिक स्थिति अत्यन्त संकटपूर्ण थी। 973 ई. में वहाँ चोडभीम ने दानार्णव की हत्या कर सिंहासन पर अधिकार कर लिया था तथा उसके दो पुत्रों – शक्तिवर्मा तथा विमलादित्य को वेंगी से निकाल दिया था। इन्होंने राजराज के दरबार में शरण ली। भीम ने वेंगी में अपनी स्थिति सुदृढ करने के बाद तोण्डमंडलम् पर आक्रमण कर दिया।राजराज ने उसके विरुद्ध दो सेनायें भेजी।प्रथम सेना का नेतृत्व उसके पुत्र राजेन्द्र ने किया तथा उसने पश्चिमी चालुक्य राज्य पर आक्रमण किया। इस सेना ने बनवासी पर अधिकार कर लिया तथा मान्यखेट को ध्वस्त किया। दूसरी चोल सेना ने वेंगी पर आक्रमण किया। वहाँ उसने हैदराबाद के उत्तर-पश्चिम में कुल्पक के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। सत्याश्रय को विवश होकर वेंगी छोङना पङा। और बङी कठिनाई से वह अपने राज्य को बचा पाया। चोल सेना उसके राज्य से अतुल संपत्ति लेकर आपस लौटी। इस प्रकार शक्तिवर्मा वेंगी पर शासन करता रहा, लेकिन वह पूर्णतया चोलों पर ही आश्रित रहा। राजराज ने अपनी कन्या कुन्दवाँ देवी का विवाह उसके छोटे भाई विमलादित्य के साथ कर दिया, जिससे दोनों के संबंध और अधिक मैत्रीपूर्ण हो गयी।

वेंगी को अपना संरक्षित राज्य बना लेने के बाद राजराज ने कलिंग राज्य को भी जीत लिया। अपने शासन के अंत में राजराज ने मालदीव को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। इस द्वीप की विजय उसने अपनी शक्तिशाली नौसेना की सहायता से की थी।

अपनी विजयों के परिणास्वरूप राजराज ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया। उसके साम्राज्य में तुंगभद्रा नदी तक का संपूर्ण दक्षिण भारत, सिंहल तथा मालदीव का कुछ भाग शामिल था। इस प्रकार वह अपने समय के महानतम विजेताओं एवं साम्राज्य निर्माताओं में से था। अपनी महानता को सूचित करने के लिये उसने चोल-मार्तण्ड, राजाश्रय, राजमार्त्तण्ड, अरिमोलि,चोलेन्द्रसिंह जैसी उच्च सम्मानपरक उपाधियाँ धारण की।

राजराज प्रथम की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
  • एक महान विजेता के साथ-साथ राजराज प्रथम कुशल प्रशासक तथा महान निर्माता भी था।
  • उसने समस्त भूमि की नाप कराई तथा उचित कर निर्धारित किया।
  • विभिन्न मंडपों में योग्य अधिकारियों की नियुक्ति की गयी।
  • उसने एक स्थायी सेना तथा विशाल नौसेना का गठन किया।
  • लेखों से उसके कई सामंतों तथा अधिकारियों की सूचना मिलती है।
  • उसने सोने, चाँदी तथा ताँबे के विभिन्न प्रकार के सिक्कों का प्रचलन करवाया था।

राजराज ने अपने पुत्र राजेन्द्र को युवराज बनाया तथा उसके ऊपर शासन की कुछ जिम्मेदारी सौंप दी। राजेन्द्र ने अत्यन्त कुशलतापूर्वक सैनिक तथा प्रशासनिक दायित्वों का निर्वाह किया।

वह शिव का अनन्य भक्त था तथा उसने अपनी राजधानी में राजराजेश्वर का भव्य मंदिर बनवाया था। दक्षिणी भारत के इतिहास के वैभवशाली युग का यह आज तक का सर्वोत्तम स्मारक है तथा तमिल स्थापत्य के चरमोत्कर्ष का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। किन्तु राजा के रूप में वह सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु था।

उसने श्रीविजय के शैलेन्द्र शासक श्रीमार विजयोत्तुंगवर्मन् को नागपट्टम में एक बौद्ध विहार बनवाने के लिये उत्साहित किया तथा स्वयं एक विष्णु-मंदिर का भी निर्माण करवया था। जैन धर्म को भी प्रोत्साहन प्रदान किया।

इस प्रकार राजराज प्रथम एक महान विजेता, साम्राज्य निर्माता, कुशल प्रशासक, निर्माता तथा धर्मसहिष्णु सम्राट था। राजनैतिक तथा सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से उसका शासन काल चोल वंश के चर्मोत्कर्ष को व्यक्त करता है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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