इतिहासदक्षिण भारतप्राचीन भारत

दक्षिण भारत के इतिहास का प्रारंभ कहाँ से हुआ

वैसे तो दक्षिण भारत का प्रारंभ पूर्ववैदिक काल में ही हो गया था, तथापि ईसा पूर्व छठीं शता. तक उत्तर भारत के साहित्य में विन्ध्य पर्वत के दक्षिणी भाग के विषय में जानकारी नहीं मिलती है। वैदिक साहित्य में उल्लिखित दक्षिणापथ तथा चेरपद की व्याख्या करना कठिन है। वैयाकरण पाणिनि दक्षिण से परिचित नहीं थे। सर्वप्रथम कात्यायन के वार्त्तिक (ईसा पूर्व चतुर्थ शती)में सुदूर दक्षिण के चोल, पाण्ड्य, केरल राज्यों का उल्लेख मिलता है।

यवन राजदूत मेगस्थनीज ने अपनी इंडिका में पाण्ड्य जनपद का उल्लेख किया है। उसके अनुसार हेरिक्लीज की पुत्री वहां की शासिका थी।

कौटिल्य के अर्थशास्र में पाण्ड्य देश के मोती तथा मदुरा के सूती वस्रों का उल्लेख मिलता है।

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रामायण में चोल, केरल तथा पाण्डय राज्यों का उल्लेख मिलता है।

महाभारत में भी सहदेव की विजय के संदर्भ में पाण्ड्य तथा दक्षिणापथ का उल्लेख प्राप्त होता है। इन महाकाव्यों में दक्षिण की कुछ नदियों तथा पर्वतों के भी नाम प्राप्त होते हैं। महाकाव्यों, पुराणों तथा तमिल साहित्य में अगस्त्य ऋषि की कथा मिलती है। जिन्हें दक्षिण में आर्य संस्कृति को फैलाने का श्रेय दिया जाता है।

रामायण से पता चलता है, कि जिस समय राम दंडकवन में ठहरे हुए थे, अगस्त्य ने उनसे भेंटकर बताया कि उन्होंने दक्षिण को आर्यों के निवास योग्य बनाया हा। एक अन्य स्थल पर विवरण मिलता है, कि अगस्त्य आश्रम की ओर जाते हुए राम ने लक्ष्मण को बताया था,कि जिस सदा संसार का कल्याण चाहने वाले अगस्त्य ऋषि ने ही राक्षसों का संहार कर पृथ्वी को आर्य जनों के निवास योग्य बनाया था।

वैदिक के साहित्य में दक्षिण के निवासियों को असुर तथा राक्षस कहा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण में दक्षिण के निवासियों को आंध्र, पुण्ड्र, शबर, पुलिन्द, मुतिब कहा गया है, जो विश्वामित्र के पुत्रों के वंशज थे, जिन्हें उन्होंने आर्य प्रदेश से बहिस्कृत कर दिया था। इस प्रकार यह कहा जा सकता है,कि दक्षिण भारत के आर्यकरण की प्रक्रिया ईसा पूर्व एक हजार से प्रारंभ हुई तथा चौथी शता.ईसा पूर्व में समाप्त हुई। दक्षिण में आर्य सभ्यता का प्रचार-प्रसार नंद तथा मौर्य राजवंशों के काल में तीव्रगति से हुआ।

चतुर्थ शता.ईस्वी पूर्व नंदों तथा मौर्यों के नेतृत्व में मगध साम्राज्य का चरमोत्कर्ष हुआ। नंद शासक महापद्मनंद ने प्रथम बार एक ऐसे साम्राज्य की स्थापना की, जिसकी सीमायें गंगा घाटी के मैदोनों तक फैली हुई, विन्ध्यपर्वत के दक्षिण में पहुंच गयी। पुराणों में उसके द्वारा विजित राज्यों की सूची में दक्षिण भारत के कलिंग तथा अश्मक के नाम मिलते हैं। कलिंग से तात्पर्य वर्तमान उङीसा प्रांत से है।

खारवेल के हाथीगुम्फा लेख से भी पता चलता है, कि किसी नंद राजा ने कलिंग को जीता, वहाँ एक नहर का निर्माण करवाया तथा अपने साथ जिन की एक प्रतिमा उठा ले गया था। इस शासक की पहचान महापद्मनंद से ही की जाती है। गोदावरी तट पर नवनंद देहरा (नांदेर) नामक नगर विद्यमान है। ऐसा लगता है, कि इसका नामकरण नंदों की विजय की स्मृति में ही हुआ होगा। 11वीं शती के एक कन्नङ लेख से पता चलता है, कि नंदों ने कुंतल का प्रदेश जीता था। तमिल परंपरा में नंदों की अतुल संपत्ति का भी उल्लेख मिलता है। इससे पता चलता है, कि नंद राजाओं ने जो संपत्ति एकत्र कर रखी थी उसका पता तमिल देश के लोगों को अच्छी तरह से था। संगमकालीन कवि मामूलनार स्पष्टतः इसका उल्लेख करता है।

जहाँ तक मौर्य साम्राज्य के विन्ध्यपर्वत के दक्षिण में विस्तार का प्रश्न है, इस संबंध में जैन एवं तमिल परंपराओं तथा अशोक के लेखों के आधार पर हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं। जैन अनुश्रुतियों में कहा गया है, कि भद्रबाहु ने मगध में 12 वर्षीय अकाल की भविष्यवाणी की। जिसके परिणामस्वरूप चंद्रगुप्त ने अपने पुत्र के पक्ष में सिंहासन त्याग दिया तथा उन्हीं के सात श्रवणबेलगोला (कर्नाटक राज्य में स्थित) नामक स्थान पर तपस्या करने चला गया। यहीं सल्लेखना विधि (उपवास) द्वारा उसने अपना शरीर त्याग किया। श्रवणबेलगोला के समीपवर्ती क्षेत्रों में प्राप्त कुछ शिलालेखों में भी भद्रबाहु तथा उनके शिष्य चंद्रगुप्त द्वितीय मुनीन्द्र का उल्लेख मिलता है। 5वीं तथा 6वीं शता. के दो शिलालेखों में भी भद्रबाहु तथा चंद्रगुप्त का उल्लेख मिलता है। बताया गया है, कि उज्जैन में जब भद्रबाहु ने 12वर्षों तक पङने वाले अकाल के विषय में भविष्यवाणी की तब उत्तर का संपूर्ण जैन संघ दक्षिण में चला गया। जब वे चंद्रगिरि पहाङी (श्रवणबेलगोला स्थित) पर पहुँचे तो वहाँ पहले से तपस्या कर रहे प्रभाचंद्र नामक आचार्य ने संपूर्ण संघ को उनकी सेवा में समर्पित कर दिया तथा स्वयं निर्वाण को प्राप्त किया।

श्रीरंगपट्टनम के नवीं शती के एक लेख में बताया गया है, कि भद्रबाहु तथा चंद्रगुप्त दोनों चंद्रगिरि की पहाङी पर तपस्या किया करते थे। श्रवणबेलगोला से ही मिलने वाले बारहवी तथा पन्द्रहवीं शती के दो शिलालेखों में भी यह विवरण मिलता है।

अशोक के लेखों के प्राप्ति स्थानों पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट हो जाता है, कि दक्षिण में आंध्र तथा कर्नाटक तक का प्रदेश उसके साम्राज्य में सम्मिलित था। ये लेख आंध्र प्रदेश के गोविमठ, पालक्किगुण्डू, मास्की, गूटी (करनूल जिला), तथा कर्नाटक के ब्रह्मगिरि, सिद्धपुर, जटिंग रामेश्वर पहाङी (चित्तलदुर्ग जिले में स्थित) आदि से मिलते हैं। इन सभी से प्रमाणित हो जाता है, कि सुदूर दक्षिण में कर्नाटक तक अशोक का साम्राज्य विस्तृत था तथा दक्षिण प्रदेश की राजधानी सुवर्णगिरि थी। द्वितीय शिलालेख से पता चलता है, कि उसके साम्राज्य की दक्षिणी सीमा पर चोल, चेर, पाण्ड्य, सतियपुत्त, केरलपुत्र तथा ताम्रपर्णि (लंका) के राज्य स्थित थे और ये सभी तमिल राज्य थे, जो उसकी साम्राज्य सीमा के बाहर पङते थे।

अशोक के तेरहवें शिलालेख से पता चलता है, कि उसने एकमात्र कलिंग को जीता था तथा इसके बाद उसने युद्ध बंद कर देने की घोषणा की। ऐसी स्थिति में कर्नाटक तक की विजय या तो अशोक के पिता बिन्दुसार ने की या फिर बिन्दुसार के पिता चंद्रगुप्त मौर्य ने की। जहां तक बिन्दुसार का प्रश्न है वह एक विलासी प्रवृति का शासक था, जिसे इतिहास विजेता के रूप में स्मरण नहीं करता।

तिब्बती इतिहासकार तारानाथ का यह विवरण कि चाणक्य ने सोलह नगरों को रौंद डाला तथा बिन्दुसार को पूर्व से पश्चिम समुद्र तट तक के भूभाग का स्वामी बनाया अत्यन्त भ्रामक है, जिसकी पुष्टि किसी अन्य प्रमाण से नहीं होती। अतः यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है, कि चंद्रगुप्त मौर्य ने ही सुदूर दक्षिण में कर्नाटक तक का भाग जीता था।

इस प्रकार मौर्य काल में दक्षिण भारत मगध साम्राज्य का अंग था तथा वहाँ आर्य संस्कृति का व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार हुआ। मौर्य साम्राज्य के पतनोपरांत दक्षिण में स्वतंत्र राजवंशों का उत्कर्ष हुआ।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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