प्राचीन भारतइतिहासचंद्रगुप्त मौर्यमौर्य साम्राज्य

चंद्रगुप्त मौर्य की उपलब्धियाँ

चाणक्य ने जिस कार्य के लिये चंद्रगुप्त को तैयार किया था, उसके दो मुख्य उद्देश्य थे-

  1. यूनानियों के विदेशी शासन से देश को मुक्त कराना।
  2. नंदों के घृणित एवं अत्याचारपूर्ण शासन की समाप्ति करना।

यद्यपि इतिहासकारों में इस विषय में मतभेद है, कि चंद्रगुप्त तथा चाणक्य ने सर्वप्रथम पश्चिमोत्तर भारत में यूनानियों से युद्ध किया अथवा मगध के नंदों का विनाश किया तथापि यूनानी-रोमन एवं बौद्ध साक्ष्यों से जो संकेत मिलते हैं उनसे यही सिद्ध होता है कि चंद्रगुप्त ने पहले पंजाब तथा सिंध को ही विदेशियों की दासता से मुक्त किया था।

चंद्रगुप्त मौर्य की उत्पत्ति का वर्णन।

कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में विदेशी शासन की निन्दा की है तथा उसे देश और धर्म के लिये अभिशाप कहा है। चंद्रगुप्त ने बङी बुद्धिमानी से उपलब्ध साधनों का उपयोग किया तथा विदेशियों के विरुद्ध राष्ट्रीय युद्ध छेङ दिया। उसने इस कार्य के लिये एक विशाल सेना का संगठन किया।

चंद्रगुप्त मौर्य की सेना के सैनिक अर्थशास्त्र के अनुसार निम्नलिखित वर्गों से लिये गये थे-

  • चोर अथवा प्रतिरोधक
  • म्लेच्छ
  • चोर गण
  • आटविक।
  • शस्त्रोपजीवी श्रेणी।

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जस्टिन चंद्रगुप्त की सेना को डाकुओं का गिरोह (Aband of robbers) कहता है। मेक्रिन्डल के अनुसार इससे तात्पर्य पंजाब के गणजातीय लोगों से है, जिन्होंने सिकंदर के आक्रमण का प्रबल प्रतिरोध किया था। मुद्राराक्षस तथा परिशिष्टपर्वन् से पता चलता है, कि चंद्रगुप्त को पर्वतक नामक एक हिमालय क्षेत्र के शासक से सहायता प्राप्त हुई थी।

कुछ विद्वानों ने इस शासक की पहचान पोरस से की है, किन्तु इसके पीछे कोई ठोस आधार नहीं है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के डॉ.ओम प्रकाश ने पर्वतक की पहचान अभिसार के शासक के साथ किये जाने के पक्ष में अपना मत प्रकट किया है।

यह चंद्रगुप्त का सौभाग्य था, कि पंजाब तथा सिंध की राजनीतिक परिस्थितियाँ उसके पूर्णतया अनुकूल थी। सिकंदर के प्रस्थान के साथ ही इन प्रदेशों में विद्रोह उठ खङे हुए तथा अनेक यूनानी क्षत्रप मौत के घाट उतार दिये गये। उनमें आपस में ही विद्वेष एवं घृणा की भावना बढी।

325 ईसा.पूर्व के लगभग ऊपरी सिंधु घाटी के प्रमुख यूनानी क्षत्रप फिलिप द्वितीय की हत्या कर दी गयी। 323 ईसा.पू. में सिकंदर द्वारा स्थापित प्रशासन का ढाँचा ढहने लहा। इन प्रदेशों में घोर अराजकता एवं अव्यवस्था फैल गयी, जिसने चंद्रगुप्त का कार्य सुगम कर दिया।

इन प्रदेशों में चंद्रगुप्त की सफलता का संकेत इतिहासकार जस्टिन के विवरण से ज्ञात होता है, कि सिकंदर के क्षत्रपों के निष्कासन अथवा विनाश के पीछे चंद्रगुप्त का ही मुख्य हाथ था।

ऐसा प्रतीत होता है, कि फिलिप द्वितीय तथा सिकंदर की मृत्यु के बीच के दो वर्षों(325-323ईसा.पूर्व) के काल में चंद्रगुप्त ने अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु व्यापक योजनायें तैयार कर ली।

अब उसकी तैयारी पूरी हो चुकी थी। उसने सर्वप्रथम एक सेना एकत्र कर अपने को राजा बनाया तथा फिर सिकंदर के क्षत्रपों के विरुद्ध राष्ट्रीय युद्ध छेङ दिया। 317 ईसा.पूर्व में पश्चिमी पंजाब का अंतिम यूनानी सेनानायक यूडेमस भारत छोङने के लिये बाध्य हुआ। इस तिथि तक संपूर्ण सिंध तथा पंजाब के प्रदेशों पर चंद्रगुप्त का अधिकार हो चुका था।

वस्तुतः यह उसकी सुनियोजित योजना का फल था। जस्टिन के आधार पर यह कहा जा सकता है, कि चंद्रगुप्त मौर्य तथा मेसीडोनियन क्षत्रपों के बीच भीषण युद्ध हुआ होगा तथा चंद्रगुप्त ने सिकंदर द्वारा भारत में छोङी गयी सेना को पूर्णतया उखाङ फेंका होगा।

अतः यूडेमस ने यह बुद्धमानी की कि चंद्रगुप्त मौर्य को बिना चुनौती दिये ही 317 ईसा-पूर्व में शांतिपूर्वक भारत छोङ दिया। अब चंद्रगुप्त मौर्य सिंध तथा पंजाब का एकच्छत्र शासक था।

नंदों का उन्मूलन

सिंध तथा पंजाब में अपनी स्थिति मजबूत कर लेने के बाद चंद्रगुप्त तथा चाणक्य मगध साम्राज्य की ओर अग्रसर हुए। मगध में इस समय धननंद का शासन था। अपने असीम सैनिक साधनों तथा संपत्ति के बावजूद भी वह जनता में लोकप्रियता अर्जित कर सकने में असफल रहा और यही उसकी सबसे बङी दुर्दशा थी। उसने एक बार चाणक्य को भी अपमानित किया था, जिससे क्रुद्ध होकर उसने नंदों को समूल नष्ट कर देने की प्रतिज्ञा की थी।

प्लूटार्क के विवरण से पता चलता है, कि नंदों के विरुद्ध सहायता-याचना के उद्देश्य से चंद्रगुप्त पंजाब में सिकंदर से मिला था।इतिहासकार हेमचंद्र रायचौधरी ने उसके इस कार्य की तुलना मध्ययुगीन भारत के राजपूत शासक राणासंग्राम से की है। जिसने इब्राहिम लोदी का तख्ता पलटने के लिये मुगल सम्राट बाबर को आमंत्रित किया था।

लोदी वंश का आखिरी सुल्तान कौन था?

मुग वंश का संस्थापक बाबर था।

परंतु चंद्रगुप्त अपने उद्देश्य में असफल रहा। चंद्रगुप्त के पास एक विशाल संगठित सेना थी, जिसका उपयोग उसने नंदों के विरुद्ध किया।नंदों एवं मौर्यों के बीच हुए युद्ध की जानकारी बौद्ध ग्रंथ मिलिन्दपन्हों से मिलती है। नंदों के अंतिम राजा घनानंद को मारकर मगध पर चंद्रगुप्त ने अधिकार कर लिया था। और मौर्य साम्राज्य की स्थापना की।

सिकंदर की मृत्यु के बाद चंद्रगुप्त ने यूनानी अधिकारियों की हत्या कर पंजाब और सिंध पर अधिकार कर लिया।

सेल्यूकस के विरुद्ध युद्ध

सिकंदर की मृत्यु के बाद उसके पूर्वी प्रदेशों का उत्तराधिकारी सेल्युकस हुआ था। वह एन्टीओकस का पुत्र था। बेबीलोन तथा बैक्ट्रिया को जीतकर उसने पर्याप्त शक्ति अर्जित कर ली।वह अपने सम्राट द्वारा जीते गये भारत के प्रदेशों को पुनः अपने अधिकार में लेने को उत्सुक था।

इस उद्देश्य से 305 ईसा.पूर्व के लगभग उसने भारत पर पुनः चढाई की तथा सिंध तक आ पहुँचा। परंतु इस समय का भारत सिकंदरकालीन भारत से पूर्णतया भिन्न था।

अतः सेल्युकस को विभिन्न छोटे-2 प्रदेशों के सरदारों के स्थान पर एक संगठित भारत के महान सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य से युद्ध करना था।यूनानी लेखक केवल इस युद्ध के परिणाम का ही उल्लेख करते हैं।

अप्पिआनुस लिखता है, कि सिंधु नदी पार करके सेल्युकस ने चंद्रगुप्त से युद्ध किया।

कालांतर में दोनों में संधि हो गयी तथा एक वैवाहिक संबंध भी स्थापित हो गया।

स्ट्रेबो के अनुसार उस समय भारतीय सिंधु नदी के समीपवर्ती भाग में रहते थे। यह भाग पहले पारसीकों के अधीन था। सिकंदर ने इसे जीतकर वहाँ अपना प्रांत स्थापित किया। किन्तु सेल्युकस ने इन्हें सान्ड्रोकोट्टस को वैवाहिक संबंध के फलस्वरूप दे दिया तथा बदले में पाँच सौ हाथी प्राप्त किये।

इन विवरणों से पता चलता है कि सेल्युकस युद्ध में पराजित हुआ।

फलस्वरूप चंद्रगुप्त तथा सेल्युकस के बीच एक संधि हुई जिसकी शर्तें निम्नलिखित थी-

  • सेल्युकस ने चंद्रगुप्त को आरकोसिया(कांधार) और पेरोपनिसडाई (काबुल) के प्रांत तथा एरिया (हेरात) एवं डेड्रोसिया की क्षत्रपियों के कुछ भाग दिये।
  • चंद्रगुप्त ने सेल्युकस को 500 भारतीय हाथी उपहार में दिये।
  • दोनों नरेशों के बीच एक वैवाहिक संबंध स्थापित हुआ। कुछ विद्वानों के अनुसार सेल्युकस ने अपनी एक पुत्री का विवाह चंद्रगुप्त के साथ कर दिया। परंतु उपलब्ध प्रमाणों से इस प्रकार की कोई सूचना नहीं मिलती।
  • सेल्युकस ने मेगस्थनीज नामक अपना एक राजदूत चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में भेजा। वह बहुत दिनों तक पाटलिपुत्र में रहा तथा भारत पर उसने इंडिका नामक पुस्तक की रचना की थी।मेगस्थनीज किसके शासनकाल में भारत आया था?
  • चंद्रगुप्त का साम्राज्य पारसीक साम्राज्य की सीमा को स्पर्श करने लगा तथा उसके अंतर्गत अफगानिस्तान का एक बङा भाग भी सम्मिलित था।चंद्रगुप्त ने कांधार पर आधिपत्य की पुष्टि वहाँ से प्राप्त हुए अशोक के लेख से भी हो जाती है। क्योंकि अशोक अथवा बिन्दुसार ने इस भाग की विजय नहीं की थी।
  • भारत ने सिकंदर के हाथों हुई अपनी पराजय का बदला ले लिया। इस समय से भारत तथा यूनान के बीच राजनीतिक संबंध प्रारंभ हुआ, जो बिंदुसार तथा अशोक के समय में भी बना रहा।

पश्चिमी भारत की विजय

शकमहाक्षत्रप रुद्रदामन् के गिरनार अभिलेख (150ईस्वी) से इस बात की सूचना मिलती है, कि चंद्रगुप्त मौर्य ने पश्चिमी भारत में सुराष्ट्र तक का प्रदेश जीतकर अपने प्रत्यक्ष शासन के अंतर्गत कर लिया था। इस अभिलेख से ज्ञात होता है, कि इस प्रदेश में पुष्यगुप्त वैश्य चंद्रगुप्त मौर्य का राज्यपाल (राष्ट्रीय) था। उसने वहाँ सुदर्शन नामक झील का निर्माण करवाया था।

सुराष्ट्र प्रांत के दक्षिण में सोपारा ( महाराष्ट्र प्रांत के थाना जिले में स्थित) नामक स्थान से चंद्रगुप्त के पौत्र अशोक का अभिलेख प्राप्त हुआ है। परंतु अशोक अपने अभिलेखों में इस प्रदेश को जीतने का दावा नहीं करता।

अतः इससे ऐसा निष्कर्ष निकाला जा सकता है, कि सुराष्ट्र के दक्षिण में सोपारा तक का प्रदेश भी चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा ही विजित किया गया था।

दक्षिण भारत

चंद्रगुप्त मौर्य की दक्षिण भारत की विजय के संबंध में अशोक के अभिलेखों तथा जैन एवं तमिल स्त्रोतों से कुछ जानकारी प्राप्त होती है।

दक्षिण भारत में कर्नाटक तथा आंध्र प्रदेश के कई स्थानों से अशोक के लेख मिलते हैं, जैसे – सिद्धपुर, ब्रह्मगिरि, जटिंगरामेश्वर पहाङी ( कर्नाटक राज्य के चित्तलदुर्ग जिले में स्थित ), गोविमठ, पालक्कि गुण्ड्ड, मास्की तथा गूटी ( आंध्र प्रदेश के करनूल जिले में स्थित ) । अशोक स्वयं अपने अभिलेखों में अपने राज्य की दक्षिणी सीमा पर स्थित चोल, पाण्ड्य, सत्तियपुत्र तथा केरलपुत्र जातियों का उल्लेख करता है।

उसके तेरहवें शिलालेख से पता चलता है, कि दक्षिण में उसने केवल कलिंग की ही विजय की थी। इस विजय के बाद उसने युद्ध-कार्य पूर्णतया बंद कर दिया। ऐसी स्थिति में दक्षिण में उत्तरी कर्नाटक तक की विजय का श्रेय हमें या तो बिंदुसार को अथवा चंद्रगुप्त मौर्य को देना पङेगा।

बिंदुसार की विजय अत्यंत संदिग्ध है और इतिहास उसे विजेता के रूप में स्मरण नहीं करता। अतः यही मानना तर्कसंगत लगता है कि, चंद्रगुप्त ने ही इस प्रदेश की विजय की होगी।

चंद्रगुप्त मौर्य की दक्षिण भारतीय विजय के विषय में जैन एवं तमिल स्त्रोतों से कुछ संकेत मिलते हैं। जैन परंपरा के अनुसार अपनी वृद्धावस्था में चंद्रगुप्त मे जैन साधु भद्रबाहु की शिष्यता ग्रहण की तथा दोनों श्रवणबेलगोला (कर्नाटक राज्य) नामक स्थान पर आकर बस गये। यहीं चंद्रगुरि नामक पहाङी पर चंद्रगुप्त तपस्या किया करता था।

यदि इस परंपरा पर विश्वास किया जाय तो यह कहा जा सकता है, कि चंद्रगुप्त अपने जीवन के अंतिम दिनों में उसी स्थान पर तपस्या के लिये गया होगा, जो उसके साम्राज्य में स्थित हो।

इससे श्रवणबेलगोला तक उसका अधिकार प्रमाणित होता है। तमिल परंपरा से ज्ञात होता है कि, मौर्यों ने एक विशाल सेना के साथ दक्षिण क्षेत्र मोहर के राजा पर आक्रमण किया तथा इस अभियान में कोशर और वड्डनगर नामक दो मित्र जातियों ने उसकी मदद की थी।

इस परंपरा में नंदों की अतुल सम्पत्ति का एक उल्लेख मिलता है, जिससे ऐसा निष्कर्ष निकाला जा सकता है, तमिल लेखक मगध के मौर्यों का विवरण दे रहे हैं, जो नंदों के उत्तराधिकारी थे।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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