इतिहासराजस्थान का इतिहास

रणथंभौर का दुर्ग

रणथंभौर का दुर्ग – राजस्थान के प्राचीनतम ऐतिहासिक दुर्गों में रणथंभौर का दुर्ग भी सर्वाधिक प्रसिद्ध है। रणथंभौर का सुदृढ दुर्ग सामरिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जाता था। यह दुर्ग दिल्ली-बम्बई रेल मार्ग पर स्थित सवाईमाधोपुर रेलवे जंक्शन से लगभग 13 किलोमीटर दूर, अरावली पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा हुआ एक पहाङी पर स्थित है। यद्यपि यह दुर्ग ऊँची पहाङी के पठार पर निर्मित किया गया है, लेकिन प्रकृति ने इसे अपनी गोद में इस तरह भर लिया कि दुर्ग के दर्शन मुख्य द्वार पर पहुँचने पर ही हो सकते हैं। लेकिन दुर्ग की ऊँची प्राचीरों से आक्रान्ताओं पर मीलों दूर से दृष्टि रखी जा सकती है। यह दुर्ग चारों ओर वनों से आच्छादित है। इस दुर्ग के निर्माता और निर्माण तिथि के बारे में इतिहासकारों में मतभेद है। कुछ इतिहासकारों की मान्यता है कि इस दुर्ग का निर्माण 944 ई. में चौहान राजा रणथान देव ने बनवाया था और उसी के नामानुसार इसका नाम रणथम्भपुर रखा गया जो कालांतर में रणथंभौर हो गया। एक किंवदंती के अनुसार यह दुर्ग चंदेल राजपूत राव जेता ने बनवाया था। अधिकांश इतिहासकारों की मान्यता है कि 8 वीं शताब्दी के लगभग महेश्वर के शासक रंतिदेव ने इस दुर्ग का निर्माण करवाया था। रंतिदेव संभवतः चौहान शासक था, क्योंकि यह तथ्य तो निर्विवाद है कि चौहानों ने इस प्रदेश पर लगभग 600 वर्षों तक शासन किया था। चाहे जो भी इसका निर्माता रहा हो, किंवदंतियों एवं ऐतिहासिक आधारों पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि 10 वीं शताब्दी तक यह दुर्ग अस्तित्व में आ गया था और 12 वीं शताब्दी तक यह दुर्ग इतना प्रसिद्ध हो गया कि उस समय के लगभग सभी ऐतिहासिक ग्रन्थों में इस दुर्ग की भौगोलिक और सामरिक स्थिति का उल्लेख मिलता है। हम्मीर रासो के अनुसार इसका प्रारंभिक नाम रणस्तंभपुर था। सामान्य रूप से इस दुर्ग में कोई कलात्मक भवन नहीं है, फिर भी इसकी विशालता, सुदृढता तथा दुर्ग की घाटियों की रमणीयता दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है।

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रणथंभौर का दुर्ग

रणथंभौर का प्रवेश द्वार नौलखा दरवाजा कहलाता है, जो अत्यन्त ही सुदृढ दिखाई देता है. इस द्वार के दरवाजों पर एक लेख खुदा हुआ है। इस लेख के अनुसार इस दरवाजे का जीर्णोद्धार जयपुर के महाराजा जगतसिंह ने करवाया था। इस प्रवेश द्वार से अंदर प्रवेश करने पर सात मील की परिधि में बना हुआ किले का भू-भाग दिखाई देता है जिसमें कई मंदिर, महल, जलाशय, छतरियाँ, मस्जिदें, दरगाह तथा हवेलियाँ बनी हुई हैं। नौलखा दरवाजे से प्रवेश कर आगे चलने पर एक त्रिकोणी (तीन दरवाजों का समूह) है, जिसे चौहान वंशी शासकों के काल में तोरण द्वार, मुस्लिम शासकों के काल में अंधेरी दरवाजा, और जयपुर के शासकों द्वारा त्रिपोलिया दरवाजा कहा जाता था। इस दरवाजे के ऊपर साधारण भवन बने हुए हैं, जो सैनिकों और सुरक्षा कर्मियों के निवास हेतु प्रयोग में लाये जाते थे। इसी स्थान से सभी चौकियों और घाटियों की निगरानी रखी जाती थी। इस स्थान से थोङी दूर आगे चलने पर हमें 32 विशाल खंभों वाली 50 फुट ऊँची छतरी दिखाई देती है। यह छतरी चौहान राजा हम्मीर ने अपने पिता की मृत्यु के बाद उसकी समाधि पर बनवाई थी। इस छतरी चौहान राजा हम्मीर ने अपने पिता की मृत्यु के बाद उसकी समाधि पर बनवाई थी। इस छतरी के गुम्बद पर सुन्दर नक्काशी की गयी है। इस गुम्बद पर कुछ आकृतियाँ भी उत्कीर्ण दिखाई देती हैं। छतरी के गर्भगृह में काले-भूरे रंग के पत्थर से निर्मित एक शिवलिंग है। इस छतरी के पास ही लाल पत्थर की अधूरी छतरी के अवशेष दिखाई देते हैं। इस बारे में स्थानीय लोगों की मान्यता है कि साँगा की हाङी रानी कर्मवती ने इसे बनवाना आरंभ किया था, किन्तु उसके अचानक किले से चले जाने के कारण यह छतरी अधूरी रह गई थी।

दुर्ग के मध्य में राजमहल के भग्नावशेष दिखाई देते हैं। यह राजमहल सात खंडों में निर्मित है, जिनमें तीन खंड ऊपर तथा चार खंड नीचे बने हुए हैं। यद्यपि यह राजमहल जीर्ण-शीर्ण हो चुका है, फिर भी उसके विशाल खंभे, सुरंगनुमा गलियारे, भैरव मंदिर, रसद-कक्ष, शस्रागार आदि उस युग की स्थापत्य कला के श्रेष्ठ नमूने हैं। इस महल के पिछवाङे में एक उद्यान है, जिसमें एक सरोवर भी है। इस उद्यान से एक मस्जिद के खंडहर दिखाई देते हैं, जिसे अलाउद्दीन खलजी ने दुर्ग पर अधिकार करने के बाद बनवाया था।

राजमहलों के आगे चौहान वंशी शासकों द्वारा निर्मित गणेश मंदिर है। इस गणेश मंदिर की आज भी बङी प्रतिष्ठा है। इस मंदिर के पूर्व की ओर एक अज्ञात जल स्रोत का भंडार है। इस कुण्ड में वर्ष पर्यन्त स्वच्छ शीतल जल रहता है। इस जल स्रोत से थोङी दूर विशाल कमरों वाली इमारते हैं। ये इमारतें खाद्य सामग्री के गोदाम थे। गणेश मंदिर के पीछे शिव मंदिर है। ऐसी किंवदंती है कि अलाउद्दीन खलजी को परास्त करके विजयी हम्मीर ने जब अपनी रानियों के जौहर की घटना सुनी तब वे बङे दुःखी हुए और उन्होंने अपने आराध्य देव शिव को अपना सिर काटकर अर्पित कर दिया। इस शिव मंदिर के पास सामंतों की हवेलियाँ तथा बादल महल हैं। बादल महल जाली-झरोखों से अलंकृत है। बादल महल नृत्य एवं आमोद-प्रमोद के लिये उपयोग में आता था। बादल महल से लगभग एक किलोमीटर दूर एक और विशाल इमारत है जिसे हम्मीर कचहरी कहते हैं। चौहान शासक इस कचहरी में बैठकर प्रजा को न्याय प्रदान करते थे। बङे-बङे खंभों, बरामदों और कक्षों से बनी कचहरी की विशाल इमारत अत्यन्त आकर्षक प्रतीत होती है। यहाँ से थोङी दूरी पर दिल्ली देशा की ओर देखता हुआ एक दरवाजा है, जिसे दिल्ली दरवाजा कहते हैं। दुर्ग के पश्चिमी परकोटे पर अनेक स्थानों पर सुरक्षा चौकियाँ बनी हुई है। दुर्ग के प्रवेश द्वार के बाँयी ओर जोगी महल है। कहा जाता है कि यहाँ पर ऋषि रहता था। राजा ने उस ऋषि के रहने के लिए इस भवन का निर्माण करवाया था। किन्तु कालांतर में यहाँ साधुओं के डेरे लगने लग गये, इसलिए इसका नाम जोगी महल पङ गया। एक अन्य किंवदन्ती के अनुसार बून्दी के राव सुरजन हाङा ने सघन वृक्षों के मध्य इस भवन का निर्माण करवाया था, जो गुप्त सैनिक गतिविधियों के काम आता था। यह भवन पूर्णतः खंडहर हो चुका था, लेकिन 1961 ई. में राजस्थान सरकार के वन विभाग ने इसका नव निर्माण करवाया। आजकल बाघ परियोजना के अन्तर्गत यह नव निर्मित भवन पर्यटकों का विश्रामगृह बना हुआ है।

इस प्रकार रणथंभौर का विशाल एवं सुदृढ दुर्ग शौर्य और सुरक्षा का अद्भुत संगम स्थल है तथा चौहान शासकों की कीर्ति का असर स्मारक है।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : रणथंभौर का दुर्ग

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