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शाक्त धर्म का उद्भव तथा विकास

शाक्त धर्म का उद्भव तथा विकास

शक्ति को इष्टदेवी मानकर पूजा करने वालों का सम्प्रदाय शाक्त कहा जाता है। प्राचीन भारतीय देवसमूह में देवताओं के साथ-साथ देवियों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। तथा शक्ति (देवी) की पूजा अत्यन्त प्राचीन काल से होती रही है। वैष्णव तथा शैव धर्मों के ही समान शाक्त धर्म भी अत्यन्त लोकप्रिय रहा है। क्रमशः शक्ति के साथ कई नाम संयुक्त हो गये – दुर्गा, काली, भवानी, चामुण्डा, रुद्राणी, लक्ष्मी, सरस्वती आदि। दुर्गा को आदिशक्ति स्वीकार कर उन्हें सृष्टि, पालन तथा संहारकर्ता के रूप में मान्यता प्रदान की गयी।

शाक्त धर्म का शैव धर्म के साथ घनिष्ठ संबंध रहा है। शिव की पत्नी पार्वती (उमा) को जगजननी कहा जाता है। शैवमत के ही समान शाक्त मत की प्राचीनता भी प्रागैतिहासिक युग तक जाती है। सैन्धव सभ्यता में मातृदेवी की उपासना व्यापक रूप से प्रचलित थी। खुदाई में माता देवी की बहुसंख्यक मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं। वैदिक साहित्य से अदिति, उषा, सरस्वती, श्री, लक्ष्मी आदि देवियों के विषय में विस्तृत सूचना मिलती है।

ऋग्वेद के दसवें मंडल में देवीसूक्त मिलता है, जिसमें वाक्शक्ति की उपासना की गयी है। वह एक स्थान पर कहती है – मैं समस्त जगत की अधीश्वरी हूँ, अपने भक्तों को धन प्राप्त कराने वाली, ब्रह्म को अपने से अभिन्न मानने वाली तथा देवताओं में प्रधान हूँ। मैं सभी भूतों में स्थित हूँ।

विभिन्न स्थानों में रहने वाले देवगण जो कुछ भी कार्य करते हैं वह सब मेरे लिये ही करते हैं। इसी प्रकार अदिति का माता के रूप में कई ऋचाओं में वर्णन मिलता है। वह माता, पिता तथा पुत्र सब कुछ है। सभी देवगण, पंचजन, भूत तथा भविष्य सभी कुछ अदिति ही हैं।

सरस्वती की ऋग्वेद में सौभाग्यदायिनी कहकर स्तुति की गयी है। अथर्ववेद में पृथ्वी को माता कहकर उसकी पुत्र, धन, मधुर वचन प्रदान करने के लिये स्तुति की गयी है। इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि शक्ति की महत्ता को वैदिक ऋषियों ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया था। शक्ति की उपासना के उद्भव के पीछे वैदिक तथा अवैदिक दोनों ही प्रवृत्तियों का योगदान रहा है।

महाभारत तथा पुराणों में देवी माहात्म्य का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। महाभारत के समय तक शाक्ति संप्रदाय समाज में ठोस आधार प्राप्त कर चुका था। भीष्मपर्व में वर्णित है, कि कृष्ण की सलाह पर अर्जुन ने युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिये देवी दुर्गा की स्तुति की थी। वहीं बताया गया है, कि प्रातः काल शक्ति की उपासना करने वाला व्यक्ति युद्ध में विजय प्राप्त करता है तथा उसे लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।

विराट पर्व में युधिष्ठिर ने देवी को विन्ध्यवासिनी, महिषासुरमर्दिनी, यशोदा के गर्भ से उत्पन्न, नारायण की परमप्रिया तथा कृष्ण की बहन कहकर उनकी स्तुति की है। बताया गया है, कि देवी ने नंदगोप के कुल में यशोदा के गर्भ से जन्म लिया। कंस द्वारा कन्या रूप में शिला पर पटके जाने पर वह आकाश मार्ग से चली गयी तथा विन्ध्यपर्वत पर जाकर बस गयी। पुराणों में भी विन्ध्यपर्वत को देवी का निवास स्थान बताया गया है।

मार्कण्डेय पुराण में देवी की महिमा का विस्तृत गुणगान करते हुये उसकी स्तुति की गयी है। देवी को सभी प्राणियों में विष्णु-माया, बुद्धि, निद्रा, क्षुधा, छाया, शक्ति, तृष्णा, क्षान्ति, लज्जा, जाति, शांति, श्रद्धा, कान्ति, लक्ष्मी, वृत्ति, स्मृति, दया, तुष्टि, मातृ तथा भ्रांति रूपों में स्थित बताकर उनकी उपासना की गयी है। उसे स्वर्ग तथा उपवर्ग एवं सभी प्रकार के मंगलों को देने वाली कहा गया है। उसकी पुष्टि, पालन तथा संहार की शक्तिभता, सनातनी देवी, गुणों का आधार तथा गुणमयी कहकर स्तुति की गयी है। वर्णित है, कि महिषासुर का वध किया, जिससे वह महिषासुरमर्दिनी नाम से विख्यात हुई।

मार्कण्डेय पुराण में दुर्गा की कथा एवं स्तुति से संबंधित दुर्गासप्तशती नामक अंश है, जिसका पाठ नवरात्र के दिनों में अत्यन्त श्रद्धापूर्वक किया जाता है। एक अन्य कथा में बताया गया है, कि देवता जब शुम्भ तथा निशुम्भ जैसे असुरों से पीङित हुए तब उन्होंने हिमालय पर्वत पर जाकर आराधना की। इससे प्रसन्न होकर देवी ने अपने को प्रकट किया तथा असुरों का विनाश कर डाला। वह अम्बिका, काली, चामुण्डा, कौशिकी आदि नामों से विख्यात हुई।

देवी की उपासना तीन रूपों में की जाती थी-

  1. शांत या सौम्य रूप।
  2. उग्र या प्रचंड रूप।
  3. कामप्रधान रूप।

उपर्युक्त तीनों के अन्तर्गत अनेक देवियों की कल्पना की गयी है। सामान्यतः देवी के सौम्य रूप की उपासना की जाती थी। उमा, पार्वती, लक्ष्मी आदि नाम उसके सौम्य रूप के ही प्रतीक हैं। दुर्गा, चंडी, कापाली, भैरवी आदि नाम उग्र रूप प्रकट करते हैं। कापालिक तथा कालमुख संप्रदाय के लोग इसी रूप की आराधना करते हैं। इसमें देवी को प्रसन्न करने के लिये पशुओं की बलि दी जाती है तथा सुरा, मांस आदि का प्रयोग मुख्य रूप से होता है।

कामप्रधान रूप में देवी की उपासना शाक्त लोगों द्वारा की जाती है, जो उसे आनंद भैरवी, त्रिपुरी-सुन्दरी, ललिता आदि नाम प्रदान करते हैं। देवी के तीनों रूपों के मंदिर भारत के विभिन्न भागों में आज भी वर्तमान है। सौम्य रूप का मंदिर जम्मू के निकट वैष्णोदेवी का है, जहाँ शारदा की मूर्ति है। इसी प्रकार का एक मंदिर सतना (मध्यप्रदेश) के समीप मैहर में ऊँची पहाङी पर स्थित है। कलकत्ता स्थित काली का मंदिर देवी के उग्र रूप का है तथा असम का कामाख्या मंदिर देवी के कामप्रधान रूप का प्रतिनिधित्व करता है।

शक्ति की पूजा प्रागैतिहासिक युग से लेकर आज तक अबाध गति से होती आयी है तथा हिन्दू जनता में काफी लोकप्रिय है। शक्ति-पूजा का प्रथम ऐतिहासिक पुरातात्विक प्रमाण कुषाण शासक हुविष्क के सिक्कों पर अंकित देवी के चित्रों में मिलता है। इससे पता चलता है, कि ईसा की प्रथम शती तक देवी की मूर्तियाँ बनने लगी थी।

गुप्तकाल में पौराणिक हिन्दू धर्म की उन्नति हुई। इस समय विभिन्न देवताओं के साथ-साथ देवियों की उपासना भी व्यापक रूप से की जाती थी। नचना-कुठार में इस समय पार्वती के मंदिर का निर्माण हुआ। दुर्गा, गंगा,यमुना, आदि की बहुसंख्यक मूर्तियाँ इस काल में विभिन्न स्थलों से मिलती हैं। गंगा तथा यमुना का अंकन गुप्तकालीन मंदिरों के चौखटों पर मिलता है।

हर्षकाल में भी शक्ति पूजा का खूब प्रचलन था। हर्षचरित में कई स्थानों पर दुर्गादेवी की पूजा का उल्लेख मिलता है। ह्वेनसांग के विवरण से पता चलता है, कि उस समय दुर्गा देवी को मनुष्यों की भी बलि दी जाती थी। वह लिखता है, कि एक बार समुद्र से यात्रा करते हुये उसे डाकुओं ने पकङ लिया तथा दुर्गा देवी की बलि चढाने के निमित्त उसे ले गये थे, किन्तु तूफान ने उसकी जान बचाई। पूर्व मध्यकाल में देवी की उपासना अत्यधिक लोकप्रिय हो गयी।

देवी के अधिकांश मंदिर इसी युग के बने हैं। मध्य प्रदेश के जबलपुर में भेङाघाट के पास चौसठ योगिनी का मंदिर है, जहाँ नवीं-दसवीं शताब्दियों में कई देवी मूर्तियों का निर्माण किया गया था। इनमें दुर्गा और सप्तमात्रिकाओं की चौवालीस मूर्तियाँ हैं। खजुराहों में भी इसी प्रकार की मूर्तियाँ मिलती हैं। उङीसा, राजस्थान आदि के विभिन्न भागों से देवी की मूर्तियाँ तथा उसकी पूजा से संबंधित लेख प्राप्त होते हैं। राष्ट्रकूट अमोघवर्ष महालक्ष्मी का अनन्य भक्त था।

संजन लेख से पता चलता है, कि उसने एक बार अपने बायें हाथ की अंगुली काटकर देवी को चढा दी थी। पूर्व मध्यकाल के साहित्यकारों तथा विदेशी लेखकों ने देवी के मंदिरों तथा उसकी उपासना का उल्लेख किया है। कल्हण के विवरण से पता चलता है, कि शारदा देवी का दर्शन करने के लिये गौङ नरेश के अनुयायी कश्मीर आये थे। अबुल फजल भी शारदा देवी के मंदिर का विवरण देता है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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