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ह्वेनसांग की भारत यात्रा का वर्णन

ह्वेनसांग एक चीनी यात्री था, जिसने 630 और 614 ई. के बीच भारत यात्रा की। उसे यात्रियों में राजकुमार, नीति का पंडित और वर्तमान शाक्यमुनि कहा जाता है। उसका जन्म 600 ई. में हुआ और 664 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। बीस वर्ष की आयु में वह भिक्षु बन गया था। 29 वर्ष की आयु में उसने चंद्र की भूमि भारत की यात्रा करने का निश्चय किया। ह्वेनसांग को पारपत्र प्राप्त नहीं हो सका था, अतः गुप्त रूप से वह अपने देश से निकल आया । ताशकंद, समरकंद और बल्ख होते हुए 630 ई. में वह गांधार पहुँचा। वहाँ से वह कश्मीर गया जहाँ वह दो वर्ष रहा। वह पंजाब में भी आया और बुद्ध के जीवन से संबंधित स्थानों, जैसे कपिलवस्तु, बनारस, गया और कुशीनगर की उसने यात्रा की।

बौधगया कहाँ स्थित है?

नालंदा विश्वविद्यालय में वह काफी समय तक रहा। कामरूप के राजा कुमार और कन्नौज के हर्ष ने उसे निमंत्रण दिया। उसने दक्षिण और पश्चिमी घाट की यात्रा की। उसने लगभग सारे देश में भ्रमण किया। 644 ई. में उसने हर्ष से स्वदेश लौट जाने की अनुमति प्राप्त कर ली। राजा उदित को उसे सीमा तक पहुँचाने के लिये नियुक्त किया गया। पामीर तथा खोतान होकर 645 ई. में ह्वेनसांग चीन पहुंचा।

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मार्ग में हानि के बाद भी वह बुद्ध के अवशेषों के 150 सोने, चाँदी और संदल की बुद्धि की मूर्तियाँ तथा 657 पुस्तकों की पाण्डुलिपियाँ अपने साथ ले गया। शेष जीवन उसने अनुवाद करने में व्ययतीत किया। उसने अपनी यात्राओं का विवरण हमें प्रदान किया, जो बील की पुस्तक ‘पश्चिमी विश्व के बौद्ध – रिकार्ड‘ में और वार्टज की पुस्तक ‘युवान च्वांग की भारत में यात्रा’ में पढा जा सकता है।

ह्वेनसांग की एक जीवनी उसके मित्र हईली ने लिखी है। बील ने इसका अनुवाद ह्यून-साँग का जीवन में किया है।

ह्वेनसांग ने अपनी यात्रा विवरण के ऊपर एक ग्रंथ लिखा जिसे ‘सी-यू-की’ कहा जाता है।

सातवीं शता. के भारत का हर्ष द्वारा वर्णन

सातवीं शता. के पूर्वार्द्ध में भारत में जीवन के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक और प्रशासनिक पक्षों के विषय में यह हमें पर्याप्त जानकारी प्रदान करता है। इस ज्ञान का महत्त्व इसिलए है, कि यह एक ऐसे व्यक्ति द्वारा दिया गया है, जो भारत में लंबी अवधि तक रहा, जो देश की भाषा को जानता था और जिसने वही लिखा जो उसने स्वयं अपनी आँखों से देखा है।

भारत के विषय में ह्वेनसांग ने इस प्रकार लिखा – नगरों तथा ग्रामों में अंतः द्वार हैं, दीवारें ऊँची और मोटी हैं, मुहल्ले और गलियाँ घुमावदार हैं, और सङकें भी टेढी हैं। मुख्य मार्ग गंदे हैं और दोनों ओर की दुकानों पर उपयुक्त चिन्ह लगा दिया गये हैं। कसाई, मछुआरे, नाचने वाले, जल्लागस भंगी आदि शहर से बाहर रहते हैं। आते-जाते समय ये लोग जब तक अपने घर न पहुँच जाएँ सङक के बायीं ओर चलते हैं। उनके घर नीची दीवारों से घिरे हुए हैं। और उन्हें उपनगर माना जाता है। धरती नरम और कीचङ वाली है। इसलिये दीवारें ईंटों और टाइलों की बनाई गयी हैं। दीवारों के ऊपर के मीनार लकङी या बाँस के बनाए जाते हैं। घरों की अटारियाँ और छज्जे लकङी के हैं, जो मिट्टी या चूने के पलस्तर तथा टाइलों से ढके हुए हैं। विभिन्न इमारतों की शक्ल चीन की इमारतों जैसी ही हैं। सरपत या सूखी टहनियों या तख्तों से उन्हें ढक दिया जाता है। दीवारें चूने या गारे से ढकी हुई हैं और पवित्रता के लिये उसमें गोबर मिला दिया जाता है।

विभिन्न ऋतुओं में वे फूल बिखेरते हैं। यह उनके कुछ रिवाज हैं। संघारामों (विहारों) का निर्माण कुशलता से किया जाता है। चारों कोणों पर तीन मंजिलों के बुर्ज बनाए जाते हैं। शहतीर और उभरे हुए सिरों पर विभिन्न आकारों में खोदकर मूर्तियाँ बनाई जाती हैं। द्वारों, खिङकियों और नीची दीवारों पर बहुत से चित्र बनाए जाते हैं। भिक्षुओं के कमरे अंदर से सुसज्जित और बाहर से सादे हैं, इमारत के बीचों बीच एक ऊँचा और चौङा हाल है। अनेक मंजिलों के सदन और बिना किसी नियम के अलग-2 ऊँचाई और आकार की बूर्जियाँ हैं। द्वार पूर्व की ओर खुलते हैं। तथा राजसिंहासन भी पूर्व की ओर मुँह किये हुए हैं। उनकी पोशाक कटी हुई या सजी हुई नहीं, बहुधा वे उजले सफेद कपङे पहनते हैं। रंग बिरंगे कपङों का वे लोग मान नहीं करते हैं। पुरुष कमर पर अपने कपङे बांधते हैं, और फिर उन्हें बगल के नीचे इक्ट्ठा करके शरीर पर बाई ओर लटका देते हैं।

भारत की आर्थिक दशा का वर्णन

भारत की समृद्धि से ह्वेनसांग अत्यधिक प्रभावित हुआ। वह हमें बताता है, कि लोगों का जीवन स्तर बहुत ऊँचा था। सोने और चाँदी दोनों के सिक्के प्रचलित थे। कौङियाँ और मोती भी मुद्रा के रूप में प्रचलित थे। भूमि उर्वर थी और उत्पादन बहुत अधिक था। विभिन्न प्रकार की सब्जियों तथा फलों की उपज की जाती थी। लोगों का मुख्य आहार गेहूँ था, भूने हुए दाने, चीनी, घी और दूध के पदार्थ। कुछ अवसरों पर मछली, मृग और भेङ का माँस भी खाया जाता था। गाय तथा कुछ जंगली जानवरों का माँस पूर्णतया वर्जित था। जो व्यक्ति नियमों का उल्लंघन करता था, उसे निष्कासित किया जा सकता था।

प्रमुख नगरों का वर्णन

ह्वेनसांग हमें बताता है, कि कई नए नगर बन गये थे और पुराने नगर समाप्त हो रहे थे। पाटलिपुत्र अब उत्तरी भारत का प्रमुख नगर नहीं रहा था और उसका स्थान कन्नौज ने ले लिया था। कन्नौज में सैकङों संघाराम और 200 हिन्दू मंदिर थे। कन्नौज की समृद्धि उसके ऊँचे भवनों, सुंदर उद्यानों, स्वच्छ जल के तालाबों और विचित्र स्थानों से एकत्रित दुर्लभ वस्तुओं के अजायबघरों में थी। इसके नागरिकों की लुभावनी चितवन, उनके रेशमी वस्रों तथा ज्ञान और कला के प्रति उनकी श्रद्धा से भी यह उतनी ही स्पष्ट है। प्रयाग एक महत्त्वपूर्ण स्थान बन चुका था। किन्तु श्रावस्ती अब नष्ट हो रहा था और कपिलवस्तु में केवल 30 भिक्षु थे। नालंदा और वलभी जैसे स्थानों में बौद्ध धर्म का जोर था।

वस्रों से संबंधित वर्णन

रेशम, ऊन और सत के कपङे बनाने की कला अत्यंत ही परिष्कृत थी। उस समय बनाए जाने वाले कई कपङों का उसने उल्लेख किया है। कौशेय कपङा रेशम और सूत से बनाया जाता था। सन, जूट और भाँग से प्राप्त वस्तुओं से क्षौम कपङा या लिनन बनाया जाता था। तीसरी प्रकार की पहनने की वस्तु थी – कंबल। चौथी प्रकार की चीज थी, किसी जंगली जानवर की ऊन का बना कपङा जो बहुत बढिया, मुलायम और आसानी से कातने और बुनने योग्य होता था।

आभूषण

राजा तथा उच्च व्यक्तियों के आभूषण असाधारण थे। कीमती पत्थर का तारा और हार उनके सिर के आभूषण हैं, और उनके शरीर अंगूठियों, कंगनों तथा मालाओं से सुसज्जित हैं। धनवान व्यापारी केवल कंगन पहनते हैंछ यद्यपि लोग सादे कपङे पहनते थे, तथापि वे आभूषणों के शौकीन प्रतीत होते थे।

औद्योगिक

औद्योगिक जीवन जातियों तथा बङी-2 श्रेणियों तथा निगमों पर आधारित था। देश के औद्योगिक जीवन में ब्राह्मणों का कोई भाग नहीं था। खेती का काम शूद्र के हाथों में था।

जाति प्रथा

जाति प्रथा ने हिन्दू समाज को जकङ रखा था। ब्राह्मण धर्म कर्म करते थे। क्षत्रिय शासक वर्ग थे। राजा प्रायः क्षत्रिय होते थे। वैश्य व्यापारी तथा वर्णिक थे। शूद्र खेती तथा परिचर्या का काम करते थे। ह्वेनसांग लिखता है, कि क्षत्रिय और ब्राह्मण और ब्राह्मण अपनी पोशाक आदि की दृष्टि से साफ है कि वे घरेलू और समृद्ध जीवन व्यतीत करते हैं। धनी व्यापारी सोने की वस्तुओं का व्यापार करते हैं। वे प्रायः नंगे पाँव जाते हैं, बहुत कम लोग पादुकाएँ पहनते हैं। वे अपने दाँतों पर लाल या काले निशान लगाते हैं। वे अपने बाल ऊपर बाँधते हैं और कानों में छिद्र करते हैं। शारीरिक सफाई का वे बहुत ध्यान रखते हैं। खाने से पहले वे हाथ-मुँह धो लेते हैं। जूठन वे कभी नहीं खाते। प्रयोग करने के बाद लकङी तथा मिट्टी के बर्तन नष्ट कर दिये जाते हैं, धातु के बर्तनों को रगङ माँजा जाता था। खाने के बाद वे अपने मुँह को दातुन से साफ करते हैं, और हाथ तथा मुँह धो लेते हैं। सर्वसाधारण लोग यद्यपि कम बुद्धि के हैं, फिर भी वे सच्चे और विश्वसनीय हैं। धन के मामले में वे निष्कपट हैं और न्याय करने में वे उदार हैं। किसी अन्य योनि में जन्म लेने से वे बहुत डरते हैं। इस संसार की वस्तुओं को वे अधिक महत्त्व नहीं देते। अपने आचरण में वे धोखेबाज या द्रोही नहीं हैं। और उनके प्रशासनीय नियमों में विशिष्ट शुद्धि हैं। व्यवहार में वे सर्वथा स्पष्ट और न्यायसंगत एवं बहुत सदाचारी और शीलवान हैं।

अंतर्जातीय विवाह नहीं होते थे। एक ही जाति के विभिन्न वर्गों में भी विवाह सीमित थे। भोजन तथा विवाह की दृष्टि से विभिन्न जातियों में कुछ नियंत्रण थे, लेकिन उनमें सामाजिक आचार व्यवहार के मार्ग में ये नियंत्रण बाधक नहीं थे।

ह्वेनसांग ने भारतीयों के भोजन की शुद्धता पर विशेष ध्यान दिया है। प्याज और लहसुन बहुत कम प्रयोग होते थे। उन्हें खाने वालों को समाज से निष्कासित कर दिया जाता था। विधवा विवाह की प्रथा नहीं थी। उच्च वर्गों में तो पर्दे की प्रथा नहीं थी। हमें बताया गया है, कि ह्वेनसांग के उपदेश सुनते समय राज्यश्री पर्दा नहीं करती थी। सती-प्रथा प्रचलित थी। रानी यशोमति अपने पति प्रभाकरवर्धन के साथ ही सती हो गयी। राज्यश्री भी सती होने ही वाली थी और उसकी जीवन रक्षा बङी कठिनाई से की गयी।

अनुशासन बौद्ध धर्म ग्रंथों के नियमों के अनुकूल ही था। उसका उल्लंघन करने पर बङा दंड दिया जाता था। ह्वेनसांग के शब्दों में , ऐश्वर्य के पीछे भागना सांसारिक जीवन का लक्षण है और ज्ञान की खोज धार्मिक जीवन का लक्षण है। धर्म को अपनाने के बाद धर्म-निरपेक्ष जीवन में आना अपमान जनक समझा जाता है। समाज के नियम को तोङने वाले की खुलेआम भर्त्सना की जाती है। छोटे से दोष के लिये उसे मौन धारण करने के लिये बाध्य किया जाता है, बङे दोष के लिये उसे निष्कासित किया जाता है। जिन्हें इस प्रकार जीवन पर्यंत निष्कासित किया जाता है, वे निराश्रय सङकों पर फिरते हैं, कभी-2 वे अपना पुराना व्यवसाय फिर शुरू कर देते हैं।

शिक्षा धार्मिक थी और उसे विहारों के माध्यम से प्रसारित किया जाता था। धार्मिक पुस्तकें लिखी हुई थी। किन्तु वेदों को मौखिक रूप से प्रचलित रखा गया था और उन्हें कागज या पत्तों पर नहीं लिखा जाता था। उस समय प्रचलित लिपि को ब्राह्मी कहा जाता था। जो ब्रह्मा के मुख से निकली हुई मानी जाती थी। संस्कृत विद्वान वर्ग की भाषा थी। संस्कृत व्याकरण को विधिवत नियमों से जकङ दिया गया था। एक व्यक्ति की शिक्षा नौ वर्ष की आयु से तीस वर्ष की आयु तक चलती थी। जब शिष्य तीस वर्ष के हो जाते हैं, तो उनकी बुद्धि परिवपक्व हो ने पर तथा शिक्षा संपूर्ण होने पर वे अपने -2 कार्य में जुट जाते हैं और सबसे पहले वे अपने अध्यापकों की कृपा के लिये उन्हें दक्षिणा देते हैं। ह्वेनसांग लिखता है, कि भारत में कई लोग ऐसे थे जो सारा जीवन अध्ययन में व्यतीत करते थे। उसने नालंदा विश्वविद्यालय का विस्तृत वर्णन किया है। उसने विभिन्न विषयों पर वाद-विवाद के ढंग का भी उल्लेख किया है।

ह्वेनसांग लिखता है, कि जब किसी व्यक्ति की कीर्ति सर्व प्रसिद्ध हो जाती है, तो वह एक विचार गोष्ठी का आयोजन करता है। गोष्ठी में भाग लेने वालों की योग्यता का वह अनुमान लगाता है,और यदि उनमें से कोई अपनी परिष्कृत भाषा, सूक्ष्म खोज, गहन चिंतन और अकाट्य तर्क से विशिष्टता प्राप्त कर ले तो बहुमूल्य आभूषणों से सज्जित हाथियों पर बैठा कर उसके प्रशंसक उसे विहार के द्वार पर ले जाते हैं। उसके विवपरीत यदि एक व्यक्ति वाद विवाद में हार जाए या अश्लील वाक्य प्रयुक्त करे या तर्क के नियमों का उल्लंघन करे तो उसके ऊपर कीचङ लगा कर उसे खाई में फेंक दिया जाता है।

ह्वेनसांग हमें बताता है, कि एक बार लोकात्य समुदाय के एक आचार्य ने चालीस सिद्धांत लिखे और नालंदा विश्वविद्यालय के द्वार पर इस सूचना के साथ उन्हें लटका दियाः यदि कोई व्यक्ति इन सिद्धांतों को गलत सिद्ध कर दे तो उसकी विजय के उपलक्ष्य में मैं उसे अपना सिर दूँगा।

ह्वेनसांग ने इस चुनौती को स्वीकार किया और उस व्यक्ति को एक सार्वजनिक वाद विवाद में हरा दिया। किन्तु ह्वेनसांग ने उसे क्षमा कर दिया और वह ह्वेनसांग का शिष्य बन गया।

इस प्रकार ह्वेनसांग के विवरण से हमें हर्षकालीन समाज एवं संस्कृति का अच्छा ज्ञान प्राप्त हो जाता है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
2. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास, लेखक-  वी.डी.महाजन 

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