इतिहासराजस्थान का इतिहास

आहङ की सभ्यता का इतिहास

आहङ की सभ्यता

उदयपुर नगर से लगभग दो-तीन मील की दूरी पर आहङ एक कस्बा है, जिसकी संस्कृति लगभग चार हजार वर्ष पुरानी है। आहङ की संस्कृति आज खंडहरों में दबी पङी है ।

खंडहर का यह ढेर लगभग 1600 फुट लंबा और 550 फुट चौङा है। आहङ का दूसरा नाम ताम्रवती नगरी भी मिलता है, जिससे यहाँ ताँबे के औजारों के बनने का केन्द्र प्रमाणित होता है। 10-11वीं शताब्दी में इसे आघाटपुर या आघाट दुर्ग के नाम से पुकारा जाता था।
कालीबंगा की सभ्यता एवं संस्कृति

आहङ के स्थानीय लोग इसे धुलकोट के नाम से पुकारते हैं। इस क्षेत्र के उत्खानन से प्राचीन प्रस्तर-धातु-युगीन संस्कृति के महत्त्वपूर्ण अवशेष मिले हैं। इस स्थान के उत्खनन का कार्य सर्वप्रथम 1953 ई. में श्री अक्षय कीर्ति व्यास के नेतृत्व में हुआ। उसके बाद 1956 ई. में श्री रतनचंद्र अग्रवाल की देखरेख में खनन कार्य हुआ।

आगे चलकर 1961-62 ई. में पूना विश्वविद्यालय के डॉ.एच.डी.संकालिया के नेतृत्व में खुदाई का काम जारी रखा गया। अभी तक सभी उत्खनन कार्य परीक्षण की दृष्टि से ही किये गये हैं।

अभी समूचे आहङ की खुदाई नहीं की गयी है। उत्खनन से प्राप्त अवशेषों से यह प्रमाणित होता है कि आहङ दक्षिणी-पश्चिमी राजस्थान की प्राचीन सभ्यता का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। गिलूंड और भगवानपुरा से मिलने वाली सामग्री के आधार पर कहा जा सकता है कि आहङ सभ्यता का उत्तर-पूर्व और दक्षिण-पूर्व में भी विस्तार हो चुका था।

उत्खनन के फलस्वरूप यहाँ की बस्तियों के कई स्तर मिले हैं। पहले स्तर में कुछ मिट्टी की दीवारें, मिट्टी के बर्तनों के टुकङे तथा पत्थर के ढेर प्राप्त हुए हैं। दूसरे स्तर की बस्ती से जो प्रथम स्तर पर ही बसी थी कुछ कूटकर तैयार की गयी दीवारें और मिट्टी के टुकङे मिले हैं। तीसरी बस्ती में कुछ चित्रित बर्तन और उनका घरों में प्रयोग होना प्रमाणित होता है। चौथी बस्ती के स्तर में एक बर्तन व दो ताँबे की कुल्हाङियाँ प्राप्त हुई हैं, जो बङे महत्त्व की हैं।

इस प्रकार इन स्तरों पर चार और बस्तियों के स्तर मिलते हैं, जिनमें मकान बनाने की पद्धति, बर्तन बनाने की विधि आदि में परिवर्तन दिखाई देता है। ये सभी आठ स्तर एक दूसरे स्तर पर बनते और बिगङते गये। ये समूची बस्तियाँ आहङ नदी की सभ्यता कही जा सकती हैं।

डॉ. गशरथ शर्मा की मान्यता है कि आहङ का जटिल और समन्वित नागरिक जीवन निःसंदेह शताब्दियों के विकास का परिणाम था। प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि ऐसी विकसित सभ्यता का विध्वंस कैसे हो गया ? डॉ. गापीनाथ शर्मा के अनुसार, भूकंप, आहङ नदी का प्रवाह या बाढ, आक्रमण आदि कोई भी नगर विध्वंस का कारण हो सकता है।

निवास स्थान

आहङ के विशाल टीलों को देखने से प्रतीत होता है कि यहाँ पहले काफी बङा समृद्ध नगर रहा होगा। यह नगर पास में बहने वाली एक छोटी सी नदी (आहङ नदी) के तट पर बसा हुआ था। यहाँ से प्राप्त अवशेषों से पता चलता है कि प्राचीन आहङवासी पत्थर व धूप में सुखाई गयी कच्ची ईंटों से मकानों का निर्माण करते थे, जिनमें सामने से सफाई से चिनाई की जाती थी। यहाँ मुलायम काले पत्थरों का प्रयोग अधिक किया जाता था। ये मकान छोटे और बङे दोनों थे। मकानों के कमरे विशेष रूप से बङे होते थे।

आहङ में बङे कमरों की लंबाई चौङाई 33X20 फीट तक थी। कुछ कमरों की नींवें भी मिली हैं जिनका आकार 23 फुट लंबा, 15 फुट चौङे तथा 9 फुट लंबे व 9 फुट चौङे हैं। कमरों में बाँस की पङदी बनाकर छोटे कमरों में परिणत किया जाता था। पङदी पर चिकनी मिट्टी चढाकर व आकर्षक बनाने के लिये मिट्टी के गारे में स्फटिक गुटके तथा छिलके मिला दिये जाते थे।

फर्श को भी मिट्टी से लीपा जाता था। फर्श बनाने के लिये वे लोग काली मिट्टी के साथ नदी की बजरी को भी मिला देते थे। मकानों की कच्ची छतों के बीच बाँस के प्रयोग की भी जानकारी मिलती है। इन छतों को लकङी की बल्लियों द्वारा उठा रखा जाता था, जो नीचे कच्चे फर्श में गाङ दी जाती थी।

मकानों से गंदा पानी निकालने की नालियों की वैज्ञानिक पद्धति से भी आहङवासी सुपरिचित थे। इसके लिये 15-20 फुट के गड्ढे खोदकर मिट्टी के पकाये गये घङों को एक दूसरे पर बिठाकर पानी सोखने के गड्ढे बना दिये जाते थे और उसमें गंदा पानी गिरता रहता था। कुछ मकानों में 2 या 3 चूल्हे और एक मकान में तो छः चूल्हों की संख्या देखी गयी है।

इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि आहङ में बङे परिवारों के लिये भोजन की व्यवस्था थी अथवा सार्वजनिक भोजन बनाने की भी यहाँ व्यवस्था की जाती थी।

मृदभांड एवं बर्तन आहङ की खुदाई में हङप्पा व मोहनजोदङो के विशिष्ट आकृति वाले कुछ मृदभांड भी मिले हैं, जिससे पता चलता है, कि आज से लगभग तीन-चार हजार वर्ष पूर्व अर्थात् सिन्धु सभ्यता के अंतिम चरण में सिन्धु सभ्यता का मेवाङ में प्रवेश हुआ होगा। यद्यपि यह कहना अत्यन्त कठिन है कि यह संपर्क किस दिशा से और किस साधन के द्वारा सम्पन्न हुआ।

उत्खनन से प्राप्त सामग्री में सबसे अधिक संख्या मृदभाण्डों की है।यहाँ से प्राप्त लाल-काले रंग के बर्तनोंसे पता चलता है कि आहङ लाल-काले मृदभांड वाली संस्कृति का एक प्रमुख केन्द्र था।

आहङ

लाल-काली धरातल वाले चमकीले पात्र, अंदर से संपूर्ण काले रंग के एवं बाहर से ऊपर की ओर गर्दन तक काले और उसके नीचे संपूर्ण लाल रंग के हैं। ऐसे पात्र तीन प्रकार के हैं – प्रथम सादे जिन पर किसी प्रकार की डिजाइन नहीं है, दूसरे जिन पर अन्दर व बाहर की ओर हल्की डिजाइनें बनी हैं और तीसरे प्रकार में बाहर की ओर गर्दन पर सफेद रंग से कई प्रकार की लाइनें व बिन्दु बने हुये हैं।

इन बर्तनों में दैनिक उपयोग में आने वाले बर्तन सभी आकार के मिलते हैं, जिनमें घङे, कटोरियाँ, रकाबियाँ, प्याले, मटके, भंडार के कलश, ढक्कन आदि मुख्य हैं। साधारणतः मिट्टी के बर्तनों को हाथ से बनाया जाता था, परंतु इनको बनाने में चाक का प्रयोग भी किया जाता था।

इस संबंध में डॉ.गापीनाथ शर्मा ने लिखा है कि, यह सामग्री अपनी विविधता तथा प्रचुरता के विचार से बङे महत्त्व की है। आहङ का कुम्भकार इस बात में निपुण दिखाई देता है,कि बिना चित्रांकन के भी मिट्टी के बर्तन सुन्दर बनाये जा सकते हैं। काटकर, छीलकर तथा उभारकर इ बर्तनों को आकर्षक बनाया जाता था और ऊपरी भागों पर पतली भीतर गढी हुई रेखा बना दी जाती थी, जिससे भांड में एक स्वाभाविक अलंकरण उत्पन्न हो जाता था।

यद्यपि खुदाई में किसी प्रकार का ध्यान उपलब्ध नहीं हुआ है, किन्तु बर्तनों पर भूसे व धान के चिह्नों से संभव है कि पुरात्त्ववेत्ता भविष्य में उस धान की किस्म का भी पता लगा लेंगे जिनका उपयोग आहङवासी करते थे। खुदाई में अनाज रखने के बङे मृदभांड भी गढे हुए मिले हैं, जिन्हें यहाँ की बोलचाल की भाषा में गौरे व कोठ कहा जाता है।

यहाँ से प्राप्त बर्तनों से पता चलता है कि यहाँ बर्तन बनाने का व्यवसाय काफी विकसित हो चुका था और इससे आहङ की समृद्धि का भी पता चलता है। यहाँ से प्राप्त हुए विभिन्न प्रकार के बर्तनों से इस बात का संकेत मिलता है कि 2000-1000 ई.पू. के काल में आहङवासियों का ईरान से भी संबंध था।

मुद्राएँ, मुहरे एवं उपकरण

आहङ की खुदाई में छः ताँबे की मुद्राएँ और तीन मुहरें प्राप्त हुई हैं। इनमें कुछ मुद्राएँ स्पष्ट नहीं हैं। एक मुद्रा पर त्रिशूल खुदा हुआ है। और दूसरी में अपोलो खङा दिखाया गया है, जिसके हाथों में तीर व पीछे तरकश है इस मुद्रा के किनारे यूनानी भाषा में कुछ लिखा हुया है। यद्यपि जो कुछ लिखा हुआ है उसका अर्थ तो स्पष्ट नहीं है, लेकिन लिपि के आधार पर इसका काल दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व आँका गया है।

आहङ

उत्खनन में कुछ पाषाण-कालीन उपकरण भी प्राप्त हुए हैं। इनमें राम सैकाश्म और स्फटिक मुख्य हैं। आहङवासी अपने मकानों की सुरक्षा तथा सुन्दरता के लिये स्फटिक पत्थरों के टुकङे मिट्टी के गारे में जमा देते थे। ऐसा अनुमान है कि इन्हीं पत्थरों से वे अपने आवश्यक औजार भी बनाते थे, जिनका उपयोग छीलने, छेद करने तथा काटने में किया जाता था।

यद्यपि ये औजार लघु आकृति के हैं और इनकी आकृति भी काफी बेडौल है, परंतु किनारे काफी धारदार दिखाई देते हैं। गीली लकङी, चमङे तथा हड्डियों को छीलने में ये औजार काफी उपयोगी रहे होंगे।

आहङ से ताँबे की कुल्हाङियाँ। अँगूठियाँ, चूङियाँ तथा काफी संख्या में ताम्र-मल और कुछ ताम्र कलाकृतियाँ व ताँबे की चादरें भी प्राप्त हुई हैं। पुरात्त्ववेत्ताओं का विचार है कि उस काल में यह स्थान ताँबे की वस्तुएँ बनाने का एक प्रमुख केन्द्र रहा होगा। सैन्धव सभ्यता के प्रमुख स्थानों पर ताँबा, शायद राजस्थान के इसी क्षेत्र से भेजा जाता था।

संभवतः यह नगर उस काल में एक औद्योगिक नगर था और ताम्र उद्योग यहाँ का प्रमुख व्यवसाय रहो होगा। इसके अतिरिक्त यहाँ से 79 लोहे के उपकरण भी प्राप्त हुए हैं, जिनका उपयोग कुल्हाङी, चाकू और कील की तरह होता था। इन तथ्यों से स्पष्ट है कि आहङ में लोह-संस्कृति का भी प्रवेश हो चुका था।

आहङ में मणियाँ एवं आभूषण

आहङवासी कीमती पत्थरों, जैसे – गोमेद, स्फटिक आदि से गोल मणियाँ बनाते थे। ऐसी मणियों के साथ काँच, पक्की मिट्टी, सीप और हड्डी के गोलाकार छेद वाले अंड भी लगाये जाते थे। इनका उपयोग आभूषण बनाने तथा ताबीज की तरह गले में लटकाने के लिये किया जाता था। इनके ऊपर सजावट और अलंकरण का काम भी किया जाता था। इनका आकार गोल, चपटे, चतुष्कोणीय एवं षट्कोणीय होता था।

आहङवासियों के आभूषण अधिकांशतः पकी हुई मिट्टी के मणकों के थे, लेकिन कुछ कीमती पत्थरों के भी थे। खुदाई में दो प्रकार के मणके या मणियाँ प्राप्त हुई हैं। प्रथम तो कीमती पत्थरों की और दूसरी पकी हुयी मिट्टी की। मिट्टी के मणके कुछ तो छोटे आकार के हैं और कुछ बङे आकार के।

उनके बीच में छिद्र हैं और कुछ पर रेखाओं द्वारा डिजाइन भी बनाई गई हैं। डॉ. एच. डी. सांकलिया की मान्यता है कि जिन मणकों पर रेखाएँ अंकित हैं, वे मध्य एशिया की सभ्यता के प्रभाव को प्रदर्शित करते हैं। पत्थर के बने हुये मणके लाल, गुलाबी, हरे, नीले, काले आदि कई रंगों में पाये गये हैं। इन पर अंकित रेखाओं एवं इनको दिये गये आकार से प्रतीत होता है कि उस समय के कुशल कारीगरों ने ही उन्हें यह रूप दिया होगा।

संभवतः कीमती पत्थरों के मणकों का प्रयोग अन्य मध्यम एवं निम्न वर्ग के लोक करते थे। बङे आकार वाले मिट्टी के मणकों को जानवरों के गले में पहनाया जाता था। कीमती पत्थरों व मिट्टी के अलावा इनके आभूषण सीप, मूँगा, बीज आदि के भी होते थे। ये लोग सींग वाले पशु, कुत्ते, मेंडा, हाथी, गेंडा तथा मानव आकृति वाले मिट्टी के खिलौने बनाते थे। मानव आकृतियों में नाक अत्यन्त नुकीली बनाई गयी है।

कृषि, व्यवसाय एवं रहन-सहन

आहङ सभ्यता के लोग कृषि से परिचित थे। यहाँ से मिलने वाले बङे-बङे भांड तथा अन्य पीसने के पत्थरों से यह प्रमाणित होता है कि ये लोग अन्न का उत्पादन करते थे। लेकिन कौन सा अन्न पैदा करते थे, यह बताना कठिन है। वे अन्न को पकाकर खाते थे। एक बङे कमरे में बङी-बङी भट्टियाँ मिली हैं, जिनसे पता लगता है कि यहाँ सामूहिक भोज और दावतें भी हुआ करती थी।

इस भाग में वर्षा अधिक होने तथा नदी पास में होने से सिंचाई की पर्याप्त सुविधा यह प्रमाणित करती है कि यहाँ अन्न प्रभूत मात्रा में पैदा होता रहा होगो।

खुदाई में यहाँ कपङों आदि पर छपाई करने के ठप्पे भी प्राप्त हुए हैं, जिससे पता चलता है कि यहाँ रंगाई और छपाई का व्यवसाय भी विकसित हो चुका था। शरीर से मैल छुङाने के झाबे से पता चलता है कि आहङवासी अपनी शारीरिक सफाई का बहुत ध्यान रखते थे। खुदाई में तोल के बाट व माप भी मिले हैं, जिससे यहाँ व्यापार-वाणिज्य होने का पता चलता है। आहङ के ऐतिहासिक काल के अन्य उपकरणों में चमङे के टुकङे, मिट्टी के पूजा के पात्र, चूङियाँ आदि का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है।

पूजा के पात्र तो विभिन्न आकार-प्रकार के प्राप्त हुए हैं। यह सामग्री उस काल के लोगों के रहन-सहन और आचार-विचार पर पर्याप्त प्रकाश डालती है। इनके मृतक संस्कार के संबंध में कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता, परंतु ऊपरी सतह पर मिले मनुष्य के अस्थि-पिंजर से यह अनुमान लगाया जाता है कि वे शव को गाङते थे।

मृतकों के शव का मस्तक उत्तर और पाँव दक्षिण की ओर रखे जाते थे तथा उसके साथ उसके पहनने के आभूषण भी गाङ दिये जाते थे।

खनन से प्राप्त सामग्री के अलावा यहाँ की खन्दकें, जहाँ से यह सामग्री प्राप्त हुई है, देखने लायक हैं। इनमें खंदक संख्या 6 को देखने से पता चलता है कि लोग अपने घरों का गंदा पानी निकास के लिये चक्रकूप का प्रयोग करते थे। अन्य खंदकों में चूल्हे, आटा या मसाला पीसने के गढेदार पत्थर आदि भी उल्लेखनीय हैं।

एक स्थान पर एक ही पंक्ति में सात चूल्हे मिले हैं, जिससे प्रतीत होता है, कि इस घर का बहुत बङा परिवार रहा होगा, जहाँ इतने व्यक्तियों के लिये खाना बनता था। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि संभवतः यहाँ सार्वजनिक भोजन बनाने की व्यवस्था सही होगी। यहाँ ताँबा गलाने की भट्टियाँ भी मिली हैं, जिनका आकार अर्द्ध-गोलाकार है।

आहङ के समीपवर्ती क्षेत्र गिलूण्ड नामक स्थान पर की गयी खुदाई से आहङ-सभ्यता के प्रसार की जानकारी मिलती है। गिलूण्ड की खुदाई से भी काले व लाल रंग के बर्तन मिले हैं तथा चूने के प्लास्टर एवं कच्ची दीवारों के प्रयोग की भी जानकारी मिली है। आहङ से मिलते-जुलते लाल-काली धरातल में चित्रित मृदभांड सौराष्ट्र में रोजङी नामक स्थान पर भी मिले हैं, परंतु वहाँ उनकी संख्या बहुत कम है। इस सभ्यता का केन्द्र आहङ ही था।

ऐसा प्रतीत होता है कि यह सभ्यता आहङ से उत्तर-पूर्व और दक्षिण-पूर्व की ओर बढी थी। अभी यह कहना संभव नहीं कि आहङ में इस संस्कृति का उद्गम एवं विकास कैसे हुआ था। इस संबंध में विशेष अनुसन्धान की आवश्यकता है। संभव है भविष्य में होने वाली खोज और अनुसंधान इस सभ्यता पर अधिक रोशनी डाल सकेंगे।

श्री रतनचंद्र अग्रवाल के शब्दों में, आहङ इस युग की ताम्र-पाषाण-संस्कृति-विशेष का प्रमुख केन्द्र था और नदियों के किनारे-किनारे इस सभ्यता का प्रसार समूचे बेडच, बनास व चंबल के कांठे में हो गया।

डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने आहङ सभ्यता का समृद्धि काल 1900 ई.पू. से 1200 ई.पू.तक माना है।

प्रश्न : कालीबंगा की खुदाई के साथ जिन दो विद्वानों का संबंध है, वे हैं
उत्तर : श्री बी.के.थापर और अमलानंद घोष

प्रश्न : हङप्पा और मोहनजोदङो सैन्धव सभ्यता की राजधानियाँ थी, तो सरस्वती सभ्यता का प्रमुख केन्द्र था-
उत्तर :
कालीबंगा

प्रश्न : कालीबंगा और सैन्धव सभ्यता की नगर-निर्माण-कला में जो समान विशेषता दिखाई देती है, वह है-
उत्तर :
सङकों और गलियों के किनारे नालियाँ बनी हुई थी।

प्रश्न : यदि कोई पर्यटक राजस्थान में आहङ सभ्यता के उस भाग को देखना चाहे, जहाँ उसके अवशेष मिले हैं, तो आप उसे ले जायेंगे-
उत्तर :
झीलों की नगरी उदयपुर में

प्रश्न : आहङवासियों के आभूषण अधिकांशतः-
उत्तर :
पकी हुई मिट्टी के मणकों के थे।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
rajasthangyan : आहङ की सभ्यता

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