आधुनिक भारतइतिहासकिसान आन्दोलन

20 वी. शता. के किसान आंदोलन

किसान आंदोलन

1858 से 1914 के बीच हुए किसान विद्रोह एक-दूसरे से असंबद्ध या बिखरे हुए थे। किसान संघर्ष एवं आंदोलनों को राष्ट्रीय आंदोलन के साथ जोङने का श्रेय मुख्य रूप से महात्मा गांधी को जाता है, उनके नेतृत्व में ही भारतीय जनमानस अखिल भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की ओर अग्रसर हुआ।

गांधी जी के नेतृत्व में दो प्रारंभिक सफल किसान आंदोलनों ने गांधी को राष्ट्रीय मंच के केन्द्र में ला दिया।भारत में गांधी जी के नेतृत्व में किया गया प्रथम किसान सत्याग्रह चंपारन सत्याग्रह था।

चंपारन सत्याग्रह (1917)

चंपारन (बिहार) के किसानों से अंग्रेज बागान मालिकों ने एक करार कर रखा था, जिसके अंतर्गत किसानों को अपने कृषिजन्य क्षेत्र के 3/20 वें भाग पर नील की खेती करनी होती थी। इस पद्धति को तिनकठिया पद्धति के नाम से जाना जाता था।

19 वी. सदी के अंतिम दिनों में रासायनिक रंगों की खोज और उसके प्रचलन से नील के बाजार में गिरावट आने लगी, जिससे नील बागान मालिक चंपारन क्षेत्र के अपने नील कारखानों को बंद करने लगे।

करार या समझौता जो किसानों से किया गया था, से मुक्त करने के लिए अंग्रेज बागान मालिकों ने भारी लगान की मांग की, परिणामस्वरूप विद्रोह शुरु हुआ।

1917 में चंपारन के राजकुमार शुक्ल ने चंपारन किसान आंदोलन का नेतृत्व गांधी को सौंपने के लिए लकनऊ में उनसे मुलाकात की।

गांधी जी के चंपारन पहुंचने पर वहाँ के प्रशासन ने उन्हें जिला छोङने का आदेश दिया, लेकिन गांधी जी ने सत्याग्रह की धमकी दे डाली जिससे डरकर आदेश वापस ले लिया गया।

सत्याग्रह(भारत में) प्रयोग का गांधी जी द्वारा किया गया यह प्रथम प्रयास था।चंपारन में गांधी जी के साथ राजेन्द्र प्रसाद,ब्रजकिशोर, महादेव देसाई,नरहरि पारिख,जे.वी.कृपलानी को सब-कांट्रैक्टर्स कहा।

चंपारन आंदोलन में गांधी जी के नेतृत्व में किसानों की एक जुटता को देखते हुए सरकार ने जुलाई 1917 में मामले की जांच के लिए एक आयोग स्थापित किया जिसके सदस्यों में गांधी जी भी शामिल थे।

आयोग की सलाह पर सरकार ने तिनकठिया पद्धति को समाप्त धोषित करते हुए किसानों को अवैध रूप से वसूले गये धन का 25 प्रतिशत भाग वापस कर दिया गया।

1917 के बाद किसान घटी हुई दर पर वसूल की जाने वाली शहरवेशी नामक कर देने से इंकार कर देते थे।

चंपारन सत्याग्रह के दौरान गांधी जी के कुशल नेतृत्व से प्रभावित होकर रवीन्द्र नाथ टैगोर ने उन्हें महात्मा की उपाधि प्रदान की।

खेङा सत्याग्रह(1918)

गुजरात के खेङा जिले के किसानों ने सरकार के विरुद्ध बढी हुई लगान की वसूली के खिलाफ गांधी जी के नेतृत्व में आंदोलन किया।

1917-18 में फसल खराब होने के बाद भी खेङा के किसानों से लगान की वसूली की जा रही थी, खेङा के कुनबी-पाटीदार किसानों ने सरकार से लगान में राहत की मांग की लेकिन कोई रियायत न मिली। खेङा के किसानों का सहयोग गांधी जी ने इंदुलाल याज्ञनिर और बल्लभ भाई पटेल के साथ किया, उन्होंने किसानों को लगान न अदा करने का सुझाव दिया।

लगान ने अदा करने का पहला नारा खेङा के कापङ गंज तालुके में स्थानीय नेता मोहन लाल पांड्या ने दिया।

गांधीजी ने खेङा आंदोलन की बागडोर 22 मार्च,1918 को संभाली गांधी जी के सत्याग्रह के आगे लाचार सरकार ने इस आशय का गोपनीय दस्तावेज जारी किया कि लगान उसी से वसूली जाये जो देने में समर्थ हों।गांधीजी के नेतृत्व में आंदोलन सफल रहा। खेङा में ही गांधी जी ने अपने प्रथम वास्तविक किसान सत्याग्रह की शुरुआत की।

अवध किसान सभा

अवध के क्षेत्र में सर्वप्रथम किसानों को जमींदारों और ताल्लुकेदारों के शोषण के विरुद्ध संगठित करने का प्रयास होमरूल लीग के कार्यकर्ताओं ने किया।

गौरीशंकर मिश्र,इन्द्र नारायण द्विवेदी तथा मदन मोहन मालवीय के प्रयत्नों से फरवरी, 1918 में अवध में उ.प्र. किसान सभा का गठन किया।

उत्तर प्रदेश किसान सभा ने शीघ्र ही शोषण के विरुद्ध विद्रोह करना शुरु कर दिया। प्रतापगढ के एक जिले में नाई-धोबी बंद (जमींदारों,ताल्लुकेदारों का सामाजिक बहिष्कार) नामक आंदोलन चलाया गया।

उत्तर प्रदेश किसान सभा को शक्तिशाली बनाने में बाबा रामचंद्र, झिंगुरीपाल सिंह,दुर्गापाल सिंह की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी।

बाबा रामचंद्र महाराष्ट्र के ब्राह्मण थे जिन्होंने एक संयासी के रूप में रामचरित मानस का पाठ कर किसानों में गौरव की भावना को जागृत किया, भूस्वामियों के विरुद्ध किसानों को संगठित करने में इनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण रही।

1920 में बाबा रामचंद्र की मुलाकात पं. जवाहरलाल नेहरू से हुई, बाबा ने जवाहर लाल और गौरीशंकर से किसानों की दुर्दशा का अवलोकन करने को कहा।

1920 में उ. प्र. किसान आंदोलन असहयोग आंदोलन के साथ जुङ गया।

17 अक्टूंबर, 1920 को बाबा रामचंद्र के प्रयास से अवध किसान सभा का गठन किया गया. इस संगठन को शक्तिशाली बनावने के लिए जवाहर लाल नेहरू, गौरीशंकर, माताबदल पांडे,देवनारायण पांडे, केदारनाथ आदि ने कार्य किया।

अवध किसान सभा ने किसानों से बेदखली, भूमि ने जोतने तथा बेगार ने करने की अपील की।

प्रतापगढ का रूप गाँव इस समय के किसान आंदोलन का प्रमुख केन्द्र था।

रायबरेली, सुल्तानपुर तथा फैजाबाद किसान विद्रोहों के प्रमुख केन्द्र थे। विद्रोहियों ने बाजारों, मकानों, खलिहानों आदि में लूट-पाट की।

1921 के अंत तक और 1922 के प्रारंङ तक किसान आंदोलन हरदोई, बहराइच तथा सीतापुर में एका आंदोलन के रूप में चलता रहा।

एका आंदोलन का नेतृत्व पिछङी जाति के मदारी पासी ने किया। आंदोलन का मुख्य मुद्दा स्वीकृत लगान से 50 प्रतिशत अधिक वसूलना था।

आंदोलन अन्य किसान आंदोलनों से इस मामलों में भिन्न था कि इनमें काश्तकारों के साथ छोटे स्तर के जमींदार भी शामिल थे।

एका आंदोलन का राष्ट्रवादियों द्वारा निर्धारित अहिंसक नीतियों में विश्वास कम था इसलिए कालांतर में ये आंदोलनकारी अलग-थलग पङ गये।

1 मार्च, 1922 को सरकार ने विद्रोहियों से निपटने के लिए देशद्रोही बैठक अधिनियम पारित किया और आंदोलन को कुचलने में सफल रही।

बारदोली सत्याग्रह(1928)

सूरत( गुजरात ) के बारदोली ताल्लुके में 1928 में किसानों द्वारा लगान न अदायगी का आंदोलन चलाया गया।

गुजरात के किसान आंदोलन में कुनबी-पाटीदार जातियों के भू-स्वामी किसानों ने ही नहीं बल्कि कालिपराज (काले लोग)जनजाति के लोगों ने भी हिस्सा लिया।

कालीपराज जनजाति की स्थिति बदतर थी, उन्हें हाली पद्धति के अंतर्गत उच्च जातियों को यहाँ पुश्तैनी मजदूर के रूप में कार्य करना होता था जिसके बदले उन्हें जीने भर का भोजन और तन ढकने भर का कपङा मिलता था।

बारदोली के मेहता बंधुओं ( कल्याण जी, कुंवर जी, दयाल जी) ने किसानों के समर्थन में 1922 से ही आंदोलन चलाया हुआ था, लेकिन कालांतर में कपास की कीमत गिरने के बाद भी बंबई सरकार द्वारा लगान में 30 प्रतिशत की वृद्धि कर देवे के बाद मेहता बंधुओं ने लगान अदायगी रोक नामक सत्याग्रह का नेतृत्व का नेतृत्व गांधीवादी वल्लभभाई पटेल को प्रदान किया।

1927 में कालीपराजों के वार्षिक सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए महात्मा गांधी ने कालीपराजों को रानीपराज (बनवासी ) की उपाधि प्रदान की।

4 फरवरी, 1928 को बारदोली किसान सत्याग्रह का नेतृत्व वल्लभभाई पटेल ने संभाला, बढी हुई लगान के विरुद्ध सरकार को पत्र लिखकर पटेल ने जांच कराने की मांग की.

पटेल द्वारा लगान न अदायगी हेतु किसानों को संगठित किये जाने के बाद किसानों ने (हिन्दू-मुस्लिम)गीता और कुरान पर हाथ रखकर लगान न देने की कसम खाई।

कांग्रेस के नरमपंथी गुट ने सर्वेंट ऑफ इंडिया सोसाइटी के माध्यम से सरकार द्वारा किसानों की मांगों की जांच करवाने का अनुरोध किया।

बारदोली किसान आंदोलन के समर्थन में बंबई विधान परिषद के बारतीय नेताओं ने त्यागपत्र दे दिया, आंदोलन के बारे में ब्रिटेन की संसद में भी बहस हुई।

वायसराय इरविन मे भी बंबई के गवर्नर विल्सन को मामले को शीघ्र ही निपटाने का निर्देश दिया।

सरकार ने ब्रूम फील्ड और मैक्सवेल को बारदोली मामले की जांच का आदेश दिया। जांच रिपोर्ट में बढी हुई तीस प्रतिशत लगान को अवैध करार दिया गया, सरकार ने लगान को घटाकर 6.03 प्रतिशत कर दिया।

वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में बारदोली का सफल किसान आंदोलन संपन्न हुआ। गांधी जी ने आंदोलन की सफलता पर कहा कि बारदोली संघर्ष चाहे जो कुछ भी हो, यह स्वराज्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष नहीं है। लेकिन इस तरह का हर संघर्ष, हर कोशिश हमें स्वराज्य के करीब पहुंचा रही है।

बारदोली सत्याग्रह के समय ही यहाँ की महिलाओं की ओर से गांधीजी ने वल्लभ भाई पटेल को सरदार की उपाधि प्रदान की।

तेभागा आंदोलन

20 वी. सदी से पूर्वार्द्ध का यह किसान आंदोलन बंगाल का सर्वाधिक सशक्त आंदोलन था। इस आंदोलन द्वारा बटाईदारों ने यह मांग की कि उन्हें उपज का तिभागा अर्थात् एक-तिहाई भाग प्रदान किया जाय।

यह जोतदारों के विरुद्ध बटाईदारों का आंदोलन था जिसे कम्पाराम और भवन सिंह जैसे नेताओं ने नेतृत्व प्रदान किया।

बंगला भू-राजस्व अथवा फ्लाउड कमीशन से प्रेरित यह आंदोलन स्वतंत्रता प्राप्ति तक चलता रहा।

अखिल भारतीय किसान सभा

1918 में स्थापित संयुक्त किसान सभा ने 1920-21 में अवध के कुछ जिलों में शक्तिशाली किसान आंदोलन चलाया।

1928 में आंध्र प्रांतीय रैय्यत सभा की स्थापना हुई।

1929 में स्वामी सहजानंद सरस्वती ने बिहार किसान सभा की स्थापना की।

उङीसा में मालती चौधरी ने उत्कल प्रांतीय किसान सभा की स्थापना की।

बंगाल में टिनेसी एक्ट को लेकर अकरम खां, अब्दुर्रहीम, फजबलुलाहक के प्रयासों से 1929 कृषक प्रजापार्टी की स्थापना हुई।

सविनय अवज्ञा आंदोलन की समाप्ति के बाद 11 अप्रैल, 1936 को लखनऊ में अखिल भारतीय सभा की स्थापना की गई।

प्रथम अखिल भारतीय किसान सभा की अध्यक्षता स्वामी सहजानंद सरस्वती ने की। आंध्र प्रदेश किसान आंदोलन के अग्रणी नेता एन.सी.रंगा को किसान सभा का महासचिव नियुक्त किया गया।

फैजपुर में कांग्रेस सम्मेलन के समय उसके समानांतर होने वाले अखिल भारतीय किसान आंदोलन की अध्यक्षता एन. जी. रंगा ने की। इस सम्मेलन में भू-राजस्व की दर को 50 प्रतिशत कम करने तथा किसान संगठनों को मान्यता देने की मांग रखी गई।

अखिल भारतीय किसान सभा को पं. जवाहर लाल नेहरू ने भी संबोधित किया था। इस सम्मेलन में हिस्सा लेने वाले अन्य नेता थे- राम मनोहर लोहिया, सोहन सिंह जोश, इन्दुलाल याज्ञनिक, जय प्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव तथा कमल सरकार।

अन्य किसान आंदोलन

वर्ली विद्रोह बंबई से कुछ दूर पर स्थित वर्ली आदिम जाति के लोगों द्वारा साहूकारी, जंगल के ठेकेदारों, धनी किसानों एवं भू-स्वामियों के विरुद्ध किया। 1945 में हुए वर्ली विद्रोह को किसान सभा का समर्थन प्राप्त था।

नहर टैक्स देने के विरोध में बर्दवान(बंगाल) के किसानों ने बंकिम मुखर्जी के नेतृत्व में आंदोलन किया।

1938में प्रथम भारतीय किसान स्कूल की स्थापना निदुबोल में की गई। चौकीदारी टैक्स के विरुद्ध बिहार और बंगाल में किसानों ने आंदोलन चलाया।

उत्तरीबंगाल में हाट-तोला आंदोलन चलाया गया, जो हाट (साप्ताहिक बाजार) में भू-स्वामियों द्वारा किसानों से लिये जाने वाले करों के विरुद्ध था।

पंजाब में भी इस समय राष्ट्रवादी गतिविधियों का केन्द्र रहा।अकाली कार्यकर्ताओं ने 1937 में पंजाब किसान समिति की स्थापना की।

पंजाब के प्रमुख किसान नेताओं में शामिल थे, बाबा सोहन सिंह,बी.पी.एल.बेदी,बाबा ज्वाला सिंह,बाबा रूर सिंह, मास्टर सिंह आदि।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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