इतिहासप्राचीन भारतवर्द्धन वंशहर्षवर्धन

हर्ष के समय में सामाजिक जीवन

हर्षकालीन समाज वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित था। परंपरागत चारों वर्णों – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के अतिरिक्त समाज में अन्य अनेक जातियाँ एवं उपजातियाँ थी। ब्राह्मणों का समाज में प्रतिष्ठित स्थान था। हर्षचरित से पता चलता है, कि स्वयं हर्ष उनका बङा सम्मान करता था।

हुएनसांग भी ब्राह्मणों की प्रशंसा करता है, तथा उन्हें सबसे अधिक पवित्र एवं सम्मानित कहता है। उसके अनुसार ब्राह्मणों की अच्छी ख्याति के कारण ही भारत को ब्राह्मण देश भी कहा जाता था। इस काल के ब्राह्मणों ने अध्ययन, अध्यापन, यज्ञ-याजन के पारस्परिक व्यवसाय के अतिरिक्त कृषि तथा व्यापार करना भी प्रारंभ कर दिया था। प्रशासन में भी उन्हें प्रतिष्ठित पद दिये जाते थे। इस काल के ब्राह्मण अपने गोत्र, प्रवर, चरण या फिर शाखा के नाम से प्रसिद्ध थे। इस समय ब्राह्मणों के हाथ में काफी भूमि आ गयी थी, जो उन्हें अनुदान में प्राप्त हुई थी। हर्षचरित से पता चलता है, कि सैनिक अभियान पर निकलने के पूर्व हर्ष ने मध्य देश में ब्राह्मणों को 1000 हलों के साथ 100 गाँव दान में दिये थे। यह भूमि लगभग दस हजार एकङ रही होगी।

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इस प्रकार ब्राह्मण अब भू-संपन्न किसान बन गये थे। ब्राह्मण जन्मन्ना श्रेष्ठता का दावा करते थे, कर्मणा नहीं। हर्षचरित में एक स्थान पर कहा गया है, केवल जो जन्म से ब्राह्मण हैं, परंतु जिनकी बुद्धि संस्कार से रहित है, वे भी सम्मान-योग्य हैं।

समाज का दूसरा वर्ग क्षत्रियों का था, लेकिन उनकी वास्तविक स्थिति के विषय में कह सकना कठिन है। हुएनसांग उन्हें राजाओं की जाति कहता है। किन्तु हर्षकाल में अधिकतर शासक क्षत्रियोतर जाति के थे। हर्ष स्वयं वैश्य जाति का था। कामरूप के शासक ब्राह्मण तथा सिंध का शासक शूद्र था। बलभी तथा चालुक्य शासक क्षत्रिये थे। क्षत्रिय अपने नाम के अंत में वर्मा, त्राता लिखते थे।

बलभी के राजाओं की उपाधियां सेन, भट्ट आदि थी। क्षत्रिय ब्राह्मणों का बहुत सम्मान करते थे।

वर्ण-व्यवस्था में तीसरे स्थान पर वैश्य थे। ये मुख्यतः व्यापार करते तथा लाभ के लिये निकट और दूरस्थ देशों की यात्रा करते थे। पहले वे कृषि कार्य भी करते थे। लेकिन बाद में उन्होंने कृषि छोङ दी थी तथा पूर्णतया व्यापारी हो गये ।

कई विद्वान इसके पीछे बौद्ध धर्म का प्रभाव मानते हैं। चूँकि अधिकतर वैश्य बौद्ध थे, अतः उन्होंने अहिंसा सिद्धांत का पालन किया होगा। वे कृषि करके किसी प्रकार की हिंसा नहीं करना चाहते थे। पंचतंत्र जो 5वी.-6वी. शती का है में वाणिज्य को ही उत्तम कार्य माना गया है।

बौद्धों ने भी इसे सम्मानित पेशा बताया है। ब्राह्मणों के बाद समाज में वैश्यों का ही महत्त्वपूर्ण स्थान था, क्योंकि वे आर्थिक गतिविधियों के नियामक थे। अपनी आर्थिक समृद्धि के बल पर उन्होंंने कुछ राजनीतिक शक्ति भी प्राप्त कर ली थी। प्रशासन में भी वैश्यों को कुछ महत्त्वपूर्ण पद दिये जाते थे। वे गुप्त तथा दत्त जैसी उपाधियाँ धारण करते थे।

स्रियों की दशा

शूद्र, सामाजिक व्यवस्था में चौथे स्थान पर थे। हुएनसांग ने शूद्रों को कृषक कहा है। ऐसा प्रतीत होता है, कि वैश्यों द्वारा कृषि कर्म छोङ देने के बाद शूद्रों ने उस पर अपना अधिकार जमा लिया। उन्होंने कुछ राजनीतिक शक्ति भी प्राप्त कर ली थी। जैसा कि सिंध का राजा शूद्र था तथा बौद्ध धर्म में उसकी आस्था थी। मणिपुर के राजा को भी शूद्र बताया गया है। इससे पता चलता है, कि शूद्रों की स्थिति में कुछ सुधार हुआ। जनसंख्या का एक बङा भाग अछूत समझा जाता था। हुएनसांग कसाई, मछुये, जल्लाद, भंगी आदि जातियों के नाम गिनाता है, जो अछूत थी। वे नगरों और गाँवों के बाहर रहते थे तथा आते समय छङी पीटकर एपने आगमन की सूचना देते थे, ताकि लोग उनके स्पर्श से बच सकें। कादंबरी में चाण्डाल स्री को स्पर्शवर्जित तथा दर्शनमात्रफल कहकर संबोधित किया है।

स्रियों की स्थिति के विषय में हमें जो सूचना मिलती है, उसके आधार पर उसे अच्छी नहीं कहा जा सकता। सजातीय विवाह ही मान्य थे, लेकिन व्यवहार में अंतर्जातीय विवाह भी होते थे। स्वयं हर्ष की बहन राज्यश्री, जो वैश्य थी, कन्नौज के मौखरिवंश (क्षत्रिय) में ब्याही गयी थी। बलभी नरेश ध्रुव भट्ट जो एक क्षत्रिय था, का विवाह हर्ष की पुत्री से हुआ था।

अनुलोम तथा प्रतिलोम, दोनों ही विवाहों का प्रचलन था। पहले में निम्न वर्ण की कन्या का विवाह उच्च वर्ग के व्यक्ति के साथ किया जाता था। तथा दूसरे में उच्च वर्ण की कन्या के साथ निम्न वर्ग के व्यक्ति के साथ विवाह किया जाता था। पुनर्विवाह नहीं होते थे, तथा सतीप्रथा का प्रचलन था। हर्षचरित से पता चलता है, कि हर्ष की माता यशोमती सती हो गयी थी। राज्यश्री भी चिता में जलने जा रही थी, लेकिन हर्ष ने उसे बचा लिया। कुलीन परिवार के लोग कई पत्नियाँ रखते थे। बाल विवाह का प्रचलन था। इससे ऐसा प्रतीत होता है, कि कन्याओं को पर्याप्त शिक्षा नहीं मिल पाती थी। केवल कुलीन परिवार की कन्याओं को ही शिक्षा दी जाती थी।

हिन्दू विवाह के प्रकार एवं उनके रिवाज

लोग नाच गाने के शौकीन थे। जन्म, विवाह के अवसर पर समाज के सभी लोग स्वच्छंदता पूर्वक नाचते तथा गाते थे। कभी-2 ये प्रदर्शन काफी अश्लील हो जाते थे।

हुएनसांग हर्षकालीन भारतीयों के भोजन तथा वस्रों का भी उल्लेख करता है। लोग शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे। हुएनसांग के अनुसार भेङ तथा हरिण का मांस एवं मछलियाँ खाई जाती थी। श्राद्ध के अवसर पर पितरों को प्रसन्न करने के लिये मांसाहारी भोजन बनाया जाता था, तथा ब्राह्मण लोग यज्ञों में पशुबलि देते थे। वैश्य मांसाहार से प्रायः परहेज करते थे। गेहूँ तथा चावल का प्रयोग अधिक मात्रा में होता था। घी, दूध, दही, चीनी, मिश्री, विविध प्रकार के फल आदि भी बहुतायत से प्रयोग में लाये जाते थे। कुछ लोग मदिरा का भी सेवन करते थे। साधारणतः भारतीयों को श्वेत वस्र प्रिय थे। स्त्री तथा पुरुष दोनों ही आभूषण धारण करते थे। देश के विभिन्न भागों में सूत, रेशम, ऊन के बारीक वस्र तैयार किये जाते थे। चीनांशुक नामक वस्र कुलीन समाज के लोगों में काफी प्रचलित था। हार, मुकुट, अंगूठी, कङे आदि मुख्य आभूषण थे।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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