इतिहासप्राचीन भारतवर्द्धन वंशहर्षवर्धन

हर्ष की प्रशासन व्यवस्था कैसी थी

एक विजेता तथा साम्राज्य निर्माता होने के साथ-2 हर्ष एक कुशल प्रशासक भी था। उसकी शासन व्यवस्था का पता हमें बाण के हर्षचरित तथा हुएनसांग के यात्रा विवरण के साथ-2 उसके कुछ लेखों से प्राप्त होता है। यहाँ उल्लेखनीय है, कि हर्ष ने किसी नवीन शासन प्रणाली को जन्म नहीं दिया, अपितु उसने गुप्त शासन प्रणाली को ही कुछ संशोधनों एवं परिवर्तनों के साथ अपना लिया। यहाँ तक कि शासन के विभागों एवं कर्मचारियों के नाम भी एक समान ही दिखाई देते हैं।

YouTube Video

हर्ष का साम्राज्य विस्तार ।

सम्राट

हर्ष के समय में भी शासन व्यवस्था का स्वरूप राजतंत्रात्मक था। राजा अपनी दैवी उत्पत्ति में विश्वास करता था। वह महाराजाधिराज, परमभट्टारक, चक्रवर्ती, परमेश्वर जैसी महान उपाधियाँ धारण करता था। हर्षचरित में हर्षवर्धन को सभी देवताओं का सम्मिलित अवतार कहा गया है। उसकी तुलना शिव, इंद्र, यम, वरुण, कुबेर आदि से करते हुए सभी में सम्राट को श्रेष्ठ बताया गया है। उल्लेखनीय है, कि मौर्यकाल के बाद राजत्व में देवत्व के आरोपण की जो भावना प्रचलित हुई वह इस समय तक पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित हो गयी थी। वह प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी था। सम्राट कार्यपालिका का प्रधान अध्यक्ष, न्याय का प्रधान न्यायाधीश तथा सेना का सबसे बङा सेनापति हुआ करता था। किन्तु महान उपाधियों से युक्त एवं शक्ति संपन्न होने के बावजूद भी हर्ष निरंकुश नहीं ता। उसका राजत्व संबंधी आदर्श अत्यंत ऊँचा था। प्राचीन शास्रों के आदेशों का अनुकरण करते हुए उसने प्रजा रक्षण तथा पालन को अपना सर्वोच्च लक्ष्य बनाया।

बंसखेङा तथा मधुबन के दानपत्रों में हर्ष अपनी प्रजावत्सल भावनाओं को इस प्रकार व्यक्त करता है –

लक्ष्मी का फल दान देने तथा दूसरों के यश की रक्षा करने में है। मनुष्य को मन, वाणी तथा कर्म से प्राणियों का हित करना चाहिये। पुण्यार्जन का यह उत्तम उपार्थ है। चंद्रगुप्त तथा अशोक की भाँति हर्ष व्यक्तिगत रूप से शासन के विविध कार्यों में भाग लेता था।

हुएसांग हमें बताता है, कि हर्ष का संपूर्ण दिन तीन भागों में विभक्त था। एक भाग में वह प्रशासनिक कार्य करता था। तथा शेष दो भागों में धार्मिक कार्यों में व्यतीत करता था। वह अथक था और इन कार्यों के लिये दिन उसे अत्यंत छोटा पङता था। अपनी प्रजा की दशा को जानने के लिये हर्ष साम्राज्य के विभिन्न भागों का दौरा करता था। ऐसे अवसरों पर उसके रहने के लिये अस्थाई आवास बनाये जाते थे, जिन्हें जयस्कंधावार कहा जाता था। बंसखेङा तथा मधुवन लेकों में क्रमशः वर्धमानकोटि एवं कपिथिका जयस्कंधावारों का उल्लेख मिलता है। एक अन्य जयस्कंधावार अचिरावती नदी के तट पर स्थित मणितारा में था। यहीं सर्वप्रथम बाण की हर्ष से भेंट हुई थी।

सामंत एवं मंत्रिपरिषद

हर्ष के अधीनस्थ शासक महाराज अथवा महासामंत कहे जाते थे। प्रशासन में सामंतों का विशिष्ट स्थान था।हर्षचरित तथा कादंबरी में विभिन्न प्रकार के सामंतों का उल्लेख मिलता है, जैसे – सामंत, महासामंत, आप्त सामंत, प्रधान सामंत, शत्रु सामंत तथा प्रति सामंत। हर्षचरित के अनुसार हर्ष ने महासामंतों को अपना करद बना लिया था। बंसखेङा तथा मधुबन के लेखों में महासामंत महाराज ईश्वरगुप्त के नाम मिलते हैं। वे समय-2 पर उसकी राजसभा में उपस्थिति होते, विभिन्न समारोहों में भाग लेते तथा युद्धों के अवसर पर सम्राट को सैनिक सहायता देते थे। हर्ष काल तक आते-2 सामंत शब्द का प्रयोग भूस्वामियों, अधीन राजाओं तथा उच्च पदाधिकारियों के लिये होने लगा था।

अमात्य तथा कुमारामात्य जैसे पद भी सामंती विरुद बन गये थे। ऐहोल लेख से पता चलता है, कि हर्ष की सेना में बङे-2 सामंत समिल्लित थे। आप्त सामंत वे थे, जिन्होंने स्वेच्छा से अपने स्वामी की अधीनता मान ली थी। शत्रु सामंत अर्ध स्वतंत्र राजकुमार होते थे। प्रति सामंत का अर्थ स्पष्ट नहीं है। आर. अस. शर्मा इन्हें राजा का विरोधाभाव रखने वाले अथवा अविनयी सामंत मानते हैं। देवाहूति के अनुसार इससे तात्पर्य शत्रु राजाओं के सामंत से है। इस प्रकार स्पष्टि है, कि हर्षकालीन प्रशासन पहले से कहीं अधिक सामंती तथा विकेन्द्रित हो गया था।

सम्राट को सहायता प्रदान करने के लिये एक मंत्रिपरिषद भी होती थी। मंत्री को सचिव अथवा अमात्य कहा जाता था। हर्ष के समय में भंडि उसका प्रधान सचिव था। उत्तराधिकार जैसे महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के ऊपर भी मंत्रिपरिषद् की राजय आवश्यक समझी जाती थी। राज्यवर्धन की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार के प्रश्न को तय करने के लिये भंजि ने मंत्रिपरिषद की बैठक बुलाई थी। उसका विदेश सचिव अवंती था। विदेश सचिव की संज्ञा महासांधिविग्रहिक थी। उसी के जिम्मे युद्ध तथा शांति की घोषणा करना होता था।

हर्षचरित से पता चलता है, कि अवंति के माध्यम से ही हर्ष ने यह घोषणा करवाई थी, कि समस्त शासक या तो सम्राट की अधीनता स्वीकार करें या फिर युद्ध के लिये प्रस्तुत हो जायें। सिंहनाद उसका प्रधान सेनापति था। वह प्रभाकरवर्धन के समय से ही कार्यरत था। अनेक युद्धों का सफल संचालन उसने किया तथा उसकी राजभक्ति उल्लेखनीय थी। शासन में उसका अत्यंत सम्मानित स्थान था। कुंतल, अश्वारोही सेना का सर्वाच्च अधिकारी तथा स्कंदगुप्त गज सेना का प्रधान था। राजस्थानीय संभवतः वायसराय अथवा गवर्नर होता था। हुएनसांग के विवरण से पता चलता है, कि साधारणतया मंत्रियों तथा केन्द्रीय कर्मचारियों को नकद वेतन नहीं मिलाता था, बल्कि उन्हें भूमि खंड दिये जाते थे, लेकिन सैनिक पदाधिकारियों को नकद वेतन मिलता था। वह लिखता है, कि निजी खर्च चलाने के लिये प्रत्येक गवर्नर, मंत्री, मजिस्ट्रेट और अधिकारी को जमीन मिली हुई थी। इस प्रकार के अधिकारियों में दौस्साधसाधनिकों, प्रमातारों, राजस्थानीयों, उपरिकों तथा विषयपतियों को शामिल किया जा सकता है, जिनका उल्लेख हर्ष के लेखों में मिलता है। स्पष्ट है, कि अब अनुदान स्वरूप राजस्व न केवल पुरोहितों और विद्वानों को बल्कि प्रशासनिक अधिकारियों को भी दिया जाता था। इस प्रथा की पुष्टि उस काल में सिक्कों की कमी से भी होती है।

प्रशासनिक विभाग तथा पदाधिकारी-

प्रशासन की सुविधा के लिये हर्ष का विशाल साम्राज्य कई प्रांतों में विभाजित था। किन्तु हर्षकालीन प्रांतों की संख्या का कुछ पता नहीं चलता। हर्षचरित में प्रांतीय शासक के लिये लोकपाल शब्द आया है। प्रांत को भुक्ति कहा जाता था। प्रत्येक भुक्ति का शासक राजस्थानीय, उपरिक अथवा राष्ट्रीय कहलाता थआ। मधुबन तथा बंसखेङा के लेखों में क्रमशः कुंडधआनी तथा अंगदीय विषयों के नाम हैं। भुक्ति का विभाजन जिलों में हुआ था। जिसे की संज्ञा थी, विषय जिसका प्रधान विषयपति होता था। विषय के अंदर कई पाठक होते थे, जो आजकल की तहसीलों के बराबर होते थे।

ग्राम शासन की सबसे छोटी ईकाई थी। ग्राम शासन का प्रधान ग्रामाक्षपटलिक कहा जाता था। उसकी सहायता के लिये अनेक करणिक होते थे। हर्षकालीन साहित्य तथा लेखों में कुछ अन्य पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं, जैसे- महत्तर, दौस्साधसाधनिक, प्रमातार, भोगिक आदि। किन्तु इनके वास्तविक अबिज्ञान के विषय में निश्चित रूप से बता सकना कठिन है। इनमें महत्तर गाँव का मुखिया था। दौस्साधसाधनिक का शाब्दिक अर्थ है कठिन कार्य को संपन्न करने वाला। कुछ लोग इसे द्वारपाल या ग्रामाध्यक्ष मानते हैं। प्रमातार का संबंध भूमि की पैमाइश से लगता है, जबकि भोगिक राजस्व विभाग से संबंधित कोई अधिकारी रहा होगा। हर्षचरित में लेखहारक तथा दीर्घाध्वग का उल्लेख मिलता है। ये संदेशवाहक प्रतीत होते हैं। कुमारामात्य, दूतक, दिविर आदि का भी उल्लेख मिलता है। कुमारामात्य गुप्त प्रशासन में उच्चाधिकारियों का एक वर्ग था, जो किसी भी पद पर कार्य कर सकते थे। हर्षकाल में भी यही स्थिति रही होगी। दूतक प्रायः उच्च श्रेणी का मंत्री होता था। कभी-2 रजापरिवार से संबंधित व्यक्ति भी इस पद पर रखे जाते थे। उनका मुख्य कार्य दानग्रहीता को भूमि हस्तांतरित करवाना था। दिविर को लेखक भी कहा जाता था। इसका पद भी अमात्य जैसा ही था।

लोगों से कोई भी बेगार नहीं लिये जाते थे। हुएनसांग लिखता है, कि शासन का संचालन ईमानदारी से होता था। सङकों पर आवागमन पूर्णतया सुरक्षित नहीं था। हुएनसांग स्वयं कई बार चोर डाकुओं के चंगुल में फँस चुका था। वह लिखता है, कि एख बार जब वह गंगा नदी से यात्रा कर रहा था, समुद्री डाकुओं ने उसे घेर लिया। उन्होंने उसे देवी दुर्गा की बलि देने के लिये चुना। तभी भिषण तूफान आया, जिससे उसकी जान बच गयी। चंद्रगुप्त मौर्य अथवा चंद्रगुप्त द्वितीय के काल में ऐसी स्थिति नहीं थी। हमें पता चलता है, कि फाह्यान ने सकुशल भारत का भ्रमण किया था।

दंड विधान

अपराधों के लिये कठोर दंड की व्यवस्था थी। राजद्रोहियों को आजीवन कारावास दिया जाता था। ऐसा पता चलता है, कि बंदियों के साथ निर्दयतापूर्ण व्यवहार किया जाता था। दंडविधान गुप्त काल की अपेक्षा कठोर थआ। सामाजिक नैतिकता एवं सदाचार के विरुद्ध किये गये अपराधों में नाक, कान, हाथ, पैर आदि काट लिये जाते थे। अपराधियों को देश के बाहर भी निकाल दिया जाता था। अपराधी निर्दोष सिद्ध करने के लिये अग्नि, जल, विष के द्वारा दिव्य परीक्षायें भी ली जाती थी।

देश में शांति और व्यवस्था बनाये रखने के निमित्त पुलिस विभाग की स्थापना हुई थी। पुलिस कर्मियों को चाट या भाट कहा जाता है। दंडविधान तथआ दांडिक पुलिस विभाग के अधिकारी होते थे।

राजस्व

हर्ष का प्रशासन उदार एवं नरम था। साम्राज्य में बहुत कम कर लगाये जाते थे। हर्षकालीन ताम्रपत्रों में केवल तीन करों का उल्लेख मिलता है –

  • भाग- भाग भूमिकर था। यह राज्य की आय का प्रधान साधन था तथा कृषकों से उनकी उपज का 6वाँ भाग लिया जाता था।
  • हिरण्य- हिरण्यकर नकद लिया जाता था, जिसे व्यापारी देते थे।
  • बलि- बलिकर के विषय में कुछ भी पता नहीं है। ऐसा लगता है, कि यह एक धार्मिक कर रहा होग।

व्यापारिक मार्गों, घाटों, बिक्री की वस्तुओं आदि पर भी कर लगते थे। इन करों से राज्य को पर्याप्त धन प्राप्त होता था। तुल्यमेय नामक एक कर का भी उल्लेख मिलता है, जो तौल तथा माप के अनुसार वस्तुओं पर लगाया जाता था। जुर्माने के रूप में भी धन प्राप्त होता था। राजकीय भूमि से जो आमदनी होती थी, उसे चार प्रकार से खर्च किया जाता था। उसका एक भाग धार्मिक और सरकारी कार्यों में, दूसरा भाग राजगीय पदाधिकारियों के ऊपर, तीसरा भाग विद्वानों को पुरुस्कार देने में तथा चौथा भाग विविध संप्रदायों को दान देने में खर्च किया जाता था।

ह्वेनसांग हमें बताता है, कि यदि किसी शहर या गाँव में कोई गङबङी होती थी, तो सम्राट तुरंत ही वहाँ जाता था। वर्षा ऋतु को छोङकर शेष तीनों ऋतुओं में हर्ष एख स्थान से दूसरे स्थान का दौरा किया करता था, जहाँ लोग उससे कष्टों के विषय में बताते थे। लेखों से इस प्रकार के दो स्थानों का पता चलता है, जहाँ हर्ष अपनी यात्राओं के दौरान टिका हुआ था- वर्धमानकोटि तथा कपित्थिका। इन स्थानों से क्रमशः बंसखेङा तथा मधुबन के दानपत्र प्रसारित किये गये थे।

सेना

हर्षवर्धन के पास एक विशाल और संगठित सेना थी। बाण के हर्षचरित तथा हुएनसांग के विवरण से इसकी पुष्टि होती है। हर्षचरित से पता चलता है, कि दिग्विजय के लिये कूच करने के समय हर्ष के सैनिकों की संख्या इतनी बङी थी, कि अपने सामने एकत्र विशाल सैन्य समूह को देखकर वह आश्चर्यचकित रह गये। हुएनसांग के अनुसार उसकी सेना में 60 हजार हाथी तथा एक लाख घोङे थे। पैदल सैनिकों की संख्या भी काफी बङी रही होगी।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

India Old Days : Search

Search For IndiaOldDays only

  

Related Articles

error: Content is protected !!