इतिहासप्राचीन भारतवर्द्धन वंश

वर्धन वंश का नरेश राज्यवर्धन

राज्यवर्धन प्रभाकरवर्धन का पुत्र था। जब प्रभाकरवर्धन की मृत्यु हो गयी तो राज्यवर्धन ने अपने पिता की मृत्यु से आहत होकर राज्य छोङकर संन्यास ग्रहण कर लिया। उसने अपने भाई हर्ष से सिंहासन ग्रहण करने का आग्रह किया। हर्ष ने भी सिंहासन ग्रहण करने से मना कर दिया।

जब राज्यवर्धन के संन्यास ग्रहण करने की तैयारी चल रही थी, तभी संवादक नामक अनुचर ने सूचित किया कि जिस दिन राजा की मृत्यु हुई उसी दिन मालवा के दुष्ट शासक ने महाराज ग्रहवर्मा की हत्या कर दी। राज्यश्री को कन्नौज के कारागार में डाल दिया गया है। इसके साथ ही यह भी पता चला है, कि वह दुष्ट यहाँ की सेना को नेताविहीन जानकर देश पर भी आक्रमण करने की सोच रहा है।

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यहाँ जिस ग्रहवर्मा का जिक्र हुआ है, वह ग्रहवर्मा मौखरि वंश का शासक था, जिसका विवाह प्रभाकरवर्धन की पुत्री राज्यश्री के साथ हुआ था।

मौखरि वंश का राजनैतिक इितहास

जब यह सामाचार राज्यवर्धन ने सुना तो संन्यास की जगह उसने शस्र धारण कर लिये। उसने सिंहासन ग्रहण किया और हर्ष को संबोधित किया कि – “आज मैं मालवा राजवंश का विनाश करने जाता हूँ। इस उदंड शत्रु का दमन करना ही मेरे शोक को दूर करने का उपाय तथा मेरी तपस्या है। क्या मालवराज के हाथों मौखरियों का निरादर होगा ? यह तो वैसा ही है जैसा अंधकार सूर्य का तिरस्कार करे अथवा हरिण सिंह का बाल खिचें।”

राज्यवर्धन ने शीघ्र ही दस हजार अश्वारोहियों की एक सेना तैयार की तथा अपने ममेरे भाई भंडि को साथ लेकर मालवराज को दंड देने के लिये चल पङा। हर्ष भी उसके साथ जाने के लिये तैयार हुआ, लेकिन राज्यवर्धन ने राज्य की सुरक्षा के लिये उसे राजधानी में ही रहने को कहा।

यह मालवा का दुष्ट शासक देवगुप्त था। देवगुप्त ने कन्नौज पर आक्रमण कर राज्यवर्धन के बहनोई ग्रहवर्मा की हत्या कर दी थी। देवगुप्त मालवा के राजा महासेनगुप्त का चचेरा भाई था।…अधिक जानकारी

राज्यवर्धन ने देवगुप्त पर आक्रमण कर उसे पराजित कर दिया था। इस बात का पता मधुबन तथा बंसखेङा के लेखों से चलता है। राज्यवर्धन ने देवगुप्त को मार डाला था।

वर्धन वंश की जानकारी के एतिहासिक स्रोत।

देवगुप्त के मित्र गौङ नरेश शशांक ने धोखा देकर राज्यवर्धन को मार डाला था। इस बात का विवारण बंसखेङा अभिलेख में इस प्रकार किया गया है – दुष्ट घोङे के समान देवगुप्त तथा अन्य राजाओं को, जो चाबुक के प्रहार से अपना मुँह फेर देने के लिये बाध्य किये गये थे, एक साथ जीतकर, अपने शत्रुओं को जङ से उखाङ कर, संसार पर विजय प्राप्त कर, प्रजा को संतुष्ट कर, राज्यवर्धन ने शत्रु के भवन में सत्य के अनुरोध से अपने प्राँण त्याग दिये।

चीनी यात्री हुएनसांग ने भी इस विवरण का समर्थन करते हुए लिखा है, कि परवर्ती शासक (राज्यवर्धन), राजा बनने के तत्काल बाद पूर्वी भारत में स्थित कर्णसुवर्ण (बंगाल) के बौद्ध द्रोही दुष्ट शशांक द्वारा धोखा देकर मार डाला गया।

हर्षचरित के अनुसार कुन्तल नामक अश्वारोही ने हर्ष को थानेश्वर की राज्यसभा में आकर कहा कि – राज्यवर्धन ने मालव सेना को खेल ही खेल में जीत लिया था, किन्तु गौङनरेश के दिखावटी शिष्टाचार का विश्वास करके वह अकेला शस्रहीन दशा में अपने ही भवन में मार डाला गया।

हर्षचरित के टीकाकार ने शंकर ने बताया है, कि शशांक ने राज्यवर्धन के साथ अपनी पुत्री के विवाह का प्रस्ताव रखा। वह उसके प्रलोभन में आ गया तथा वार्ता के लिये अपनी सुरक्षा का ख्याल किये बिना शशांक के महल में जा पहुँचा, जहाँ पर भोजन के अवसर पर गौङ नरेश ने उसकी हत्या कर दी।

राज्यवर्धन की मृत्यु के बाद 606 ईस्वी में हर्षवर्धन 16 वर्ष की आयु में थानेश्वर की गद्दी पर बैठा।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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