इतिहासप्राचीन भारत

प्राचीन भारत में राज्य संस्था की उत्पत्ति के सिद्धांत

प्राचीन भारत में प्रारंभ से ही सामाजिक व्यवस्था एवं सुरक्षा को बनाये रखने के लिये राज्य की आवश्यकता को समझा गया था। ऐसी अवधारणा थी, कि यदि राज्य अपराधियों को दंड नहीं देता तो समाज में अव्यवस्था उत्पन्न हो जायेगी। राजदंड के डर से ही मनुष्य न्याय के मार्ग पर चलते हैं तथा न्याय ही उनका रक्षक हैं। महाभारत में कहा गया है, कि यदि दंडधारक राजा पृथ्वी पर न हो तो सबल निर्बल का भक्षण उसी प्रकार करेंगे जिस प्रकार जल में बङी मछली छोटी मछली का भक्षण करती है। कौटिल्य ने भी इस मत की पुष्टि करते हुये इसी प्रकार के विचार व्यक्ति किये हैं- व्यवस्था के अभाव में मत्सयन्याय की स्थिति उत्पन्न होती है, जैसे बङी मछलियाँ, छोटी मछलियों को खा जाती हैं, वैसे ही बलवान मनुष्य निर्बलों को खा जाते हैं। इस प्रकार प्राचीन भारतीय मनीषियों ने सुशासन के लिये राज्य एवं राजा के अस्तित्व को अपरिहार्य माना है।

राज्य संस्था की उत्पत्ति-

राज्य की उत्पत्ति से संबंधित प्रामाणिक सामग्रियों का अभाव है। विभिन्न समय में विभिन्न विचारकों ने इस समस्या पर प्रकाश डाला है। यहाँ हम कुछ प्रमुख सिद्धातों पर चर्चा करेंगे-

दैवी उत्पत्ति-

भारतीय संस्कृति धर्मप्राण है, जहाँ प्रत्येक वस्तु के अस्तित्व के पीछे ईश्वर की सत्ता अथवा प्रेरणा को स्वीकार किया गया है। राज्य संस्था भी इसका अपवाद नहीं है। इसकी उत्पत्ति संबंधी परंपरागत मत इसे दैवी मानता है। इस प्रकार के विचार हमें प्राचीन साहित्य में यत्र-तत्र प्राप्त होते हैं।

ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है, कि देवासुर संग्राम में देवता बारंबार पराजित होते गये। तब उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि राजा के अभाव में उनकी पराजय हो रही है। अतः उन्होंने सोम को अपना राजा बनाकर उसके नेतृत्व में विजय प्राप्त की। एक अन्य स्थान पर वर्णित है कि सभी देवताओं ने मिलकर इंद्र को राजा बनाया था।

ब्राह्मण ग्रंथ

महाभारत में उल्लेख मिलता है, कि प्रारंभ मे न राज्य था, न राजा, न दंड था न दांडिक। लोग अपनी सहज धर्म भावना से परस्पर सुख एवं शांतिपूर्वक निवास करते थे। कालांतर में इस व्यवस्था की समाप्ति हो गयी तथा लोग स्वार्थी, लोभी तथा विलासी हो गये। समाज में घोर अराजकता फैल गयी। बलवान निर्बलों को उत्पीङित करने लगे। देवता भी यह देखकर घबरा गये तथा उन्होंने इस व्यवस्था से छुटकारा पाने का निश्चय किया। लोग ब्रह्माजी के पास गये। ब्रह्माजी ने यह निष्कर्ष निकाला कि मानव जाति के कल्याण के निमित एक आचारशास्र बनाकर उसे किसी राजा द्वारा कार्यान्वित कराना आवश्यक है। अतः उन्होंने एक विधान तैयार किया तथा मानस पुत्र विरजस को उत्पन्न कर उसे राजा बना दिया। जनता ने उसकी आज्ञाओं का पालन करना स्वीकार किया। इस प्रकार राज्य तथा राजा की उत्पत्ति हुयी।

बौद्ध ग्रंथ दीघनिकाय में वर्णित है, कि समाज में पहले स्वर्णयुग था, जिसमें मनुष्य धैर्यपूर्वक सुखी जीवन व्यतीत करते थे। किसी प्रकार इस आदर्श व्यवस्था का पतन हो गया तथा चतुर्दिक अराजकता एवं अराजकता व्याप्त हो गयी। संयोगवश महाजनसम्मत नामक एक योग्य तथा अयोनिज पुरुष का जन्म हुआ। जनता ने उससे राजा बनने की प्रार्थना की, जिसे उसने स्वीकार कर लिया। फलस्वरूप जनता ने राजा बनाया और उसे धान्य का एक भाग कर के रूप में देना स्वीकार कर लिया।

जैन ग्रंथ आदि पुराण में भी ऐसा ही विवरण मिलता है। इसके अनुसार पृथ्वी अति प्राचीन समय में भोगभूमि भी जहाँ कल्पवक्षों के द्वारा सभी जनों की इच्छायें तथा आवश्यकतायें पूर्ण हो जाती थी। कालांतर में इसका अंत हुया तथा अराजक परिस्थितियों का बोल-बाला हो गया। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा व्यवस्था स्थापित की गयी। उन्होंने राजा तथा अधिकारियों की सृष्टि की।

कौटिल्य के अर्थशास्र में भी राजा की दैवी उत्पत्ति की ओर प्रसंगतः संकेत किया गया है। प्रथम अधिकरण के तेरहवें अध्याय में दो गुप्तचरों के बीच वार्त्तालाप के प्रसंग में इस तथ्य का उल्लेख मिलता है। तदनुसार मात्सन्याय से दुःखी होकर प्रजा ने मनु को अपना राजा बनाया। प्रजा ने स्वतः यह विधान भी बनाया कि राजा प्रजा से कर प्राप्त करेगा। राजा इंद्र और यम का प्रतिनिधि होता है।

मनुस्मृति में भी राज्य अथवा राजा की दैवी उत्पत्ति का विवरण दिया गया है। इसके अनुसार इस संसार को बिना राजा के होने पर बलवानों के डर से प्रजा के इधर-उधर भागने पर संपूर्ण चराचर की रक्षा के लिये ईश्वर ने राजा की सृष्टि की। इंद्र, वायु, यम, सूर्य,अग्नि, चंद्रमा तथा कुबेर का सारभूत नित्य अंश लेकर उसने राजा को बनाया। मनु आगे लिखते हैं, कि बालक राजा का भी यह तो मनुष्य है। ऐसा मानकर अपमान कभी नहीं करना चाहिये,क्योंकि यह राजा के रूप में बहुत बङा देवता होता है। इस प्रकार मनु राज्य (राजा) की दैवी उत्पत्ति के पूर्ण समर्थक हैं।

समझौते का सिद्धांत

पाश्चात्य विचारकों हॉब्स तथा लॉक की भाँति प्राचीन भारतीय चिंतक भी राज्य की उत्पत्ति समझौते द्वारा मानते हैं। महाभारत तथा दीर्घनिकाय के विवरणों से स्पष्ट है, कि विरजस अथवा महाजनसम्मत प्रजा की सहमति से ही राजा हुये थे।

महावस्तु नामक बौद्ध ग्रंथ में भी लोगों द्वारा आपसी सहमति से राजा के चुनाव का विवरण प्राप्त होता है।

ऐतिहासिक सिद्धांत

ए.एस.अल्तेकर जैसे विद्वान राज्य की उत्पत्ति का प्रश्न ऐतिहासिक ढंग से हल करने का प्रयास करते हैं। उनके अनुसार आर्यजातियों में पितृसत्तात्मक संयुक्त परिवार के बीज से ही क्रमशः राज्य संस्था की उत्पत्ति संभव हुयी। तुलनात्मक भाषा-विज्ञान के आधार पर पता चलता है, कि अपने मूल-स्थान में रहते हुये भी आर्य लोग संयुक्त परिवारों में रहते थे। इनमें पितामह, पिता, चाचा, भतीजे, पुत्र, पुत्रवधू आदि एक साथ निवास करते थे। होमर के विवरण से पता चलता है, कि कभी-2 एक ही परिवार में दो-तीन सौ तक लोग रहा करते थे। परिवार के स्वामी का उसके सदस्यों पर पूर्ण एवं निरंकुश अधिकार होता था। वह अपनी इच्छा से किसी भी सदस्य को बंधक रख सकता, बेच सकता, अपराध करने पर अंग-भंग कर सकता अथवा उसका हत्या तक करा सकता था। रोम में परिवार के स्वामी को इस प्रकार के अधिकार प्राप्त थे। कुछ वैदिक मंत्रों से पता चलता है, कि यहाँ भी परिवार के स्वामी पिता को अपने अधीन सदस्यों के ऊपर इसी प्रकार के अनियंत्रित अधिकार मिले हुये थे। ऋग्वेद में एक स्थान पर ऋज्रास्व का उल्लेख है, जिसकी लापरवाही से उसके पिता की एक – सौ भेङों को कोई भेङिया खा गया था। इस पर क्रुद्ध होकर पिता ने उसे अंधा बना दिया। कालांतर में अश्विनी कुमारों की कृपा से उसे दृष्टि मिली। एक अन्य स्थान पर शुनः शेष की कथा मिलती है, जिसे पिता ने परिवार को भुखमरी से बचाने के लिये बेच दिया।

इस प्रकार के अनेक उदाहरणों से सिद्ध होता है, कि पिता, राजा की भाँति परिवार के सदस्यों पर शासन करता था। कालांतर में संयुक्त परिवार के विस्तृत होने के साथ ही साथ पिता के अधिकारों में भी वृद्धि हुयी। एक ही गाँव के कई संयुक्त कुल निवास करते थे। जो अपने को समान पूर्वज की संतान मानते थे। जो परिवार सबसे बङा होता था उसका स्वामी अन्य ग्रामवृद्धों की सहायता से गाँव का शासन चलाता था। उसे सभी सम्मान देते थे। ऋग्वेद से सूचित होता है, कि आर्य समाज में कुटुंब, जन्मन, विश तथा जन होते थे। जन्मन से तात्पर्य उस ग्राम से है, जिसमें समान पूर्वज से अपनी उत्पत्ति मानने वाले परिवार रहते थे। कई ग्रामों का समूह विश् कहलाता था, जिसका प्रमुख विशूपति होता था। कई विश् मिलकर जन का निर्माण करते थे। जन के अध्यक्ष को जनपति अथवा राजा कहा जाता था।

इस प्रकार हम देखते हैं, कि भारत में भी संयुक्त कुटुंब पद्धति ही राज्य की उत्पत्ति में सहायक सिद्ध हुयी। कुटुंब के विस्तार के साथ-2 उसके अधिपति के अधिकारों में भी वृद्धि होती गयी तथा अन्ततोगत्वा उसने राजा का स्वरूप धारण कर लिया।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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