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द्वारसमुद्र के होयसल वंश का इतिहास

बारहवी शताब्दी के अंत में चालुक्य साम्राज्य और तेरहवीं शताब्दी के प्रारंभ में चोल साम्राज्य विखंडित हो गया। इन दोनों साम्राज्यों के स्थान पर अब दक्षिण में चार नवीन साम्राज्य उदित हुए – 1.) देवगिरि के यादव, 2.) वारंगल के काकतीय, 3.) द्वारसमुद्र के होयसल, 4.) मदुरा के पांड्य। इनमें पांड्य और होयसल राज्य दक्षिण की ओर तथा यादव व काकतीय राज्य दक्षिण भारत के उत्तरी भाग में स्थित थे। इन चारों राज्यों का स्थायित्व काल लगभग एक शताब्दी से कुछ अधिक समय तक रहा और अलाउद्दीन खिलजी के दक्षिण अभियान से लेकर मुहम्मद बिन तुगलक के दक्षिण के अभियान के बीच इन चार राज्यों में से तीन राज्य दिल्ली सल्तनत के अंग बन गए। केवल होयसल ही विजयनगर की स्थापना तक अपनी अर्ध स्वतंत्रता बनाए रख सका। किंतु विजयनगर की स्थापना के साथ होयसल साम्राज्य भी विजयनगर साम्राज्य का अंग हो गया।

द्वारसमुद्र के होयसल वंश का इतिहास

चोल-चालुक्य साम्राज्य के पतन के बाद पूर्वोक्त चारों राज्यों (देवगिरि के यादव, वारंगल के काकतीय, द्वारसमुद्र के होयसल, मदुरा के पांड्य)में द्वारसमुद्र के होयसलों ने सबसे अधिक समय तक शासन किया।

होयसल यादवों की एक शाखा थे, जो अपने आप को चंद्रवंशी मानते थे। वे गंगवाडि के पश्चिम में चालुक्य नरेशों के सामंत के रूप में शासन करते थे। उनका राज्य चालुक्य तथा चोल साम्राज्यों के बीच एक मध्यस्थ राज्य था। चालुक्य नरेश सोमेश्वर तृतीय के समय में इस वंश के विष्णुवर्द्धन ने अपने को स्वतंत्र कर दिया। वह एक महत्वाकांक्षी शासक था और उसने चालुक्य राज्यों को जीत कर अपनी शक्ति का विस्तार कर दिया। 1149 ई. तक उसने धरवार के बंकापुर में अपने को सुदृढ कर लिया तथा अपनी राजधानी द्वारसमुद्र को अपने पुत्र की अधीनता में छोङ दिया। प्रारंभ में वह जैन मतानुयायी था, परंतु बाद में रामानुज के प्रभाव से वैष्णव हो गया। उसके बाद उसका पुत्र नरसिंह राजा बना। उसके समय में कलचुरि सरदार बिज्जल ने उस पर आक्रमण किया तथा बनवासी को उससे छीनकर अपने अधिकार में कर लिया। नरसिंह ने 1173ई. तक शासन किया।

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नरसिंह के बाद उसका पुत्र वीर बल्लाल द्वितीय (1173-1211ई.) राजा बना। उसने होयसल राज्य का आगे विस्तार किया। उसका चालुक्य शासकों से भी युद्ध हुआ। वस्तुतः उसी के काल में होयसल चालुक्यों की अधीनता से अपने को पूर्णतया मुक्त कर सके। 1190 ई. में बल्लाल ने चालुक्य नरेश सोमेश्वर चतुर्थ तथा उसके सेनापति ब्रह्म को अंतिम रूप से परास्त किया, जिससे चालुक्यशक्ति का विनाश हो गया। होयसल वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक बल्लाल द्वितीय था या इसे वीर बल्लाल भी कह सकते हैं। इसके कारण होयसल राज्य का चतुर्दिश विकास हुआ और उसने दक्षिण नाद चक्रवर्ती की उपाधि धारण की। उसके बाद बल्लाल के यादव भिल्लम के साथ कई युद्ध किये। अन्ततः 1191ई. में उसने गडम के निकट भिल्लम को पराजित किया तथा कृष्णा नदी तक के भूभाग पर अपना अधिकार कर लिया। परंतु 1210 ई. में यादव वंश के सिंघन ने पुनः बल्लाल को पराजित कर उन प्रदेशों पर अपना अधिकार कर लिया।

बल्लाल द्वितीय के बाद नरसिंह द्वितीय, सोमेश्वर तथा नरसिंह तृतीय ने 1211 ई. से 1286 ई. तक बारी-बारी से शासन किया। उनका मदुरा के पाण्ड्य वंश के साथ युद्ध होता रहा। होयसल कुल का अंतिम शासक नरसिंह तृतीय का पुत्र वीर बल्लाल तृतीय (1310-1339 ई.) था। उसके शासन काल (1310-11ई.) में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर ने होयसल राज्य पर आक्रमण किया। वीर बल्लाल पराजित हुआ तथा उसने अलाउद्दीन को वार्षिक कर देना स्वीकार कर लिया। उसने मलिक काफूर को अतुल संपत्ति उपहार में दी। वीर बल्लाल 1339 ई. तक अलाउद्दीन के करद के रूप में शासन करता रहा। इसके बाद होयसलों की स्वतंत्रता का अंत हो गया। 1342 ई. में त्रिचनापल्ली के युद्ध में बल्लाल चतुर्थ की मृत्यु के साथ होयसल वंश का इतिहास समाप्त हो गया और होयसल साम्राज्य विजयनगर साम्राज्य में विलीन कर लिया गया।

कला एवं स्थापत्य

होयसल राजाओं का काल कला एवं स्थापत्य की उन्नति के लिये विख्यात है। उनके काल में मंदिर निर्माण की एक नई शैली का विकास हुआ। इन मंदिरों का निर्माण भवन के समान ऊँचे ठोस चबूतरे पर किया जाता था। चबूतरों तथा दीवारों पर हाथियों, अश्वारोहियों, हंसों, राक्षसों तथा पौराणिक कथाओं से संबंधित अनेक मूर्तियाँ बनाई गयी हैं। उनके द्वारा बनवाये गये सुन्दर मंदिरों के कई उदाहरण आज भी हलेबिड, बेलूर तथा श्रवणबेलगोला में प्राप्त होते हैं। होयसलों की राजधानी द्वारसमुद्र का आधुनिक नाम हलेबिड है, जो इस समय कर्नाटक राज्य में स्थित है। वहाँ के वर्तमान मंदिरों में होयसलेश्वर का प्राचीन मंदिर सर्वाधिक प्रसिद्ध है, जिसका निर्माण विष्णुवर्द्धन के शासन काल में हुआ। यह 160 फुल लंबा तथा 122 फुट छौङा है। इसमें शिखर नहीं मिलता। इसकी दीवारों पर अद्भुत मूर्तियाँ बनी हुई हैं, जिनमें देवताओं, मनुष्यों एवं पशु-पक्षियों आदि सबकी मूर्तियाँ हैं। विष्णुवर्द्धन ने 1117 ई. में बेलूर में चेन्नाकेशव मंदिर का भी निर्माण करवाया था। वह 178 फुट लंबा तथा 156 फुट चौङा है। मंदिर के चारों ओर वेष्टिनी है, जिसमें तीन तोरण बने हैं। तोरण-द्वारों पर रामायण तथा महाभारत से लिये गये अनेक सुन्दर दृश्यों का अंकन हुआ है। मंदिर के भीतर भी कई मूर्तियाँ बनी हुयी हैं। इनमें सरस्वती देवी का नृत्य मुद्रा में बना मूर्ति-चित्र सर्वाधिक सुन्दर एवं चित्ताकर्षक है। होयसल मंदिर अपनी निर्माण-शैल, आकार-प्रकार एवं सुदृढता के लिये प्रसिद्ध है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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