इतिहासप्राचीन भारत

हिन्दू धर्म में सूर्य पूजा का महत्त्व

हिन्दू देवमंडल में सूर्य का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान था, जिनकी कल्पना जगत के प्रकाश के स्वामी के रूप में की गयी है। कुछ विद्वान सूर्य-पूजा की प्राचीनता प्रागैतिहासिक काल तक ले जाते हैं। ऐसा लगता है, कि सूर्य प्रकृति की उन शक्तियों में विशिष्ट था, जिसे सर्वप्रथम देवत्व प्रदान किया गया। भारत के अतिरिक्त विश्व की कुछ अन्य प्राचीन सभ्यताओं (मिस्त्र, पारसीक आदि) में भी सूर्य-पूजा का प्रचलन दिखायी देता है।

प्रागैतिहासिक संस्कृतियों में प्रचलित कुछ ऐसे मांगलिक चिह्न – चक्र, स्वास्तिक आदि मिलते हैं, जिनका संबंध सूर्य-पूजा से जोङकर यह प्रस्तावित किया गया है, कि भारत में पाषाण युग से लेकर आद्यैतिहासिक काल तक सूर्योपासना की प्रथा विद्यमान थी। हङप्पा संस्कृति के विभिन्न पुरास्थलों की खुदाई में भी चक्र, स्वस्तिक, किरण-मंडल आदि कुछ ठीकरों पर खुदे हुये मिले हैं, जिन्हें बाद में सूर्य-पूजा से संबंद्ध कर दिया गया। कीथ का विचार है, कि सूर्य-पूजा की परंपरा में आर्य तथा अनार्य दोनों ही तत्वों का सम्मिश्रण था।

ऋग्वैदिक देवमंडल में सूर्य द्युस्थान (आकाश) का प्रमुख देवता है।

यहाँ हम सूर्य की पूजा पाँच रूपों में पाते हैं –

  1. सूर्य-यह दिन में दिखाई देने वाला रूप था, जिसकी पूजा स्वाभाविक रूप से की जाती थी। आकाश में चमकता हुआ वह अंधकार को दूर भगाता है तथा अपने प्रभाव से प्राणियों का मार्ग-दर्शन करता है।
  2. सविता- यह सूर्य की प्रेरणा अथवा स्फूर्ति देने वाली शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। वह विश्व में गति का संचार करता है। ऐसा लगता है, कि सूर्य के इस रूप में दिन में व्यक्त (दिखाई पङने वाला) तथा रात्रि में अव्यक्त (न दिखाई पङने वाला) दोनों का ही समावेश था।
  3. प्रसिद्ध गायित्री मंत्र का उपास्य देव यही था, जिसमें यह प्रार्थना की गयी है, कि हम उस श्रेष्ठ सविता के तेज का ध्यान करते हैं, जो हमारी बुद्धि को प्रेरित कता है, अर्थात् सन्मार्ग में प्रवृत्त करता है।
  4. मित्र- मित्र का अर्थ है सुह्रद् या सहायक। इस प्रकार यह सूर्य के संचार का नियामक है। ब्राह्मण ग्रंथों में इसका संबंध दिन से तथा वरुण का रात्रि से माना गया है। यह सूर्य की रक्षण शक्ति का प्रतिनिधि है। पारसीक धर्म में इसी को मिथ्र कहा गया है। इसकी पूजा ईरान में भी होती थी।
  5. पूषन-पूषन का अर्थ है पोषण करने वाला। अतः यह सूर्य की पोषण शक्ति का प्रतिनिधि देवता है। ऋग्वेद के आठ सूक्तों में इसकी स्तुति की गयी है। इसकी आकृति दाढी तथा जटाओं से युक्त है तथा इसके रथ के वाहन बकरे हैं। इसे पशुओं का रक्षक भी कहा गया है। बाद में उसकी कल्पना मुक्तिदाता देवता के रूप में की गयी। औषधियों तता वनस्पतियों के संवर्धन में भी पूषन को सहायता देने वाला माना गया है।
  6. विष्णु-इस शब्द का अर्थ है, व्यापकता अथवा व्यापनशीलता। इस प्रकार यह सूर्य के क्रियाशील रूप का प्रतिनिधि हैं, जो आकाश में विचरण करता है। उसके लिये उरुक्रम (विशाल पग) तथा उरुगाय (विशाल गति वाला) विरुदों का प्रयोग किया गया है। कालान्तर में विष्णु की प्रतिष्ठा एक स्वतंत्र देवता के रूप में हो गयी।

ऋग्वेद में सूर्य की अनेक विशेषताओं का उल्लेख मिलता है। बताया गया है, कि वह एक श्वेत-अश्व है, जिसे उषा लाती है। वह अपने रथ पर सवार होकर आकाश में परिभ्रमण करता है। उसके रथ में एक या अधिक अश्व (अधिकतम सात) रहते हैं। इसी आधार पर बाद में उसे भगवान सप्त सप्ति कहा गया है। ऋग्वेद के अनुसार सूर्य देवों का अनीक (सेना प्रमुख), चराचर की आत्मा, मनुष्यों के सत्-असत् कार्यों का द्रष्टा, समस्त ज्योतियों में सर्वोत्तम एवं विश्वकर्मा है।

उसके विविध रूपों एवं महिमा का गान एक सूक्त के अन्तर्गत अत्यन्त सुन्दर ढंग से किया गया है। गुप्तकाल से सूर्य की प्रतिमाओं में सात अश्व प्रदर्शित किये जाने लगे। किन्तु वैदिक काल तक सूर्य प्रतिमा का आविर्भाव नहीं हुआ था। रामायण तथा महाभारत में सूर्य के मानवीय स्वरूप का ही विवरण मिलता है। उत्तर वैदिक साहित्य- संहिता, ब्राह्मण, उपनिषद, गृह्य एवं धर्म सूत्रों आदि में हम सूर्य की पूजा का उल्लेख प्राप्त करते हैं। कालान्तर में सूर्य की पूजा करने वालों का एक अलग सम्प्रदाय गठित हो गया,जिसे सौर संप्रदाय कहा जाता है। इसके अनुयायी मस्तक पर लाल चंदन लगाते हैं, लाल पुष्पों की माला पहनते हैं तथा गायित्री मंत्र जाप करते हैं।

ईसा की पहली शताब्दी से हम सूर्यपूजा में विदेशी प्रभाव के फलस्वरूप कुछ परिवर्तन पाते हैं। आर.जी.भंडारकर का विचार है, कि यह परिवर्तन मग नामक ईरानी पुरोहितों के एक वर्ग के भारत आगमन के कारण हुआ। विद्वान इतिहासकार ने अपने मत की पुष्टि में भविष्य पुराण की एक कथा का संदर्भ प्रस्तुत किया है, जिसके अनुसार कृष्ण के पुत्र साम्ब द्वारा चंद्रभागा नदी के तट पर सूर्य मंदिर बनवाया गया, किन्तु इसमें पूजा कराने के लिये कोई भी भारतीय ब्राह्मण तैयार नहीं हुआ। अतः शक-द्वीप से पुजारियों को बुलाकर यहाँ पुरोहित नियुक्त किया गया।

गोविन्दपुर (गया-बिहार) से प्राप्त लेख (1137-38ई.) में भी यही बात उल्लेखित है। यह लेख मघ ब्राह्मणों का विस्तृत विवरण देता है, जिसके अनुसार – क्षीर समुद्र से घिरे शाक-द्वीप के पुण्यमय निवास स्थान पर, त्रिलोक में अरुण के समान प्रकाश फैलाने वाले शाम्ब ने, इन ब्राह्मणों को अपना अंग मानकर प्रतिष्ठित किया। ये जगत में श्रेष्ठ हैं। इनमें सर्वप्रथम, समस्त वेदों तथा आत्म-विद्या के ज्ञाता, नित्य यज्ञ क्रिया को पूर्ण करने वाले संसार के द्वार के समान भारद्वाज नामक मुनि मगद्विज नामि महावंश के अलंकार – स्वरूप थे। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी चंद्रभागा नदी तट पर शाम्ब द्वारा सूर्य मंदिर बनवाये जाने का विवरण दिाय है।

वाराह पुराण से पता चलता है, कि उसने मथुरा में सूर्य की एक मूर्ति स्थापित करवायी थी। कुषाण काल में सूर्य पूजा का प्रचलन बढा। कनिष्क धर्म सहिष्णु शासक था। उसके सिक्कों पर मिइरो (सूर्य) का उत्कीर्ण मिलता है। इससे सूचित होता है, कि भारत में मगों का प्रवेश पहली शताब्दी ईस्वी में हो गया था। वृहतसंहिता से पता चलता है, कि उत्तर भारत में मगों के प्रभाव से ही सौर संप्रदाय स्थापित हुआ, जो अपने साथ सूर्य-पूजा के पूर्वी ईरानी रूप को लेकर आये थे।

सूर्य मंदिर में देवता की प्रतिमा स्थापित करने के लिये मग ही विशेषतया अधिकृत थे। वे उसी प्रकार सूर्य मंदिर में पुजारी का कार्य करते थे जैसे विष्णु के लिये भागवत। कुषाणकालीन ग्रंथ ललितविस्तार में सूर्योपासना का उल्लेख मिलता है। अल्बरूनी भी मगों को ही सूर्य प्रतिमा का सच्चा पुजारी कहता है। ईरानी पुरोहितों को उत्तर भारत में शाकलद्वीपी अथवा शाकद्वीपी ब्राह्मण कहा गया। आज भी विभिन्न भागों में इनकी बस्तियाँ हैं तथा वे सूर्य की पूजा विशेष विधि-विधान के अनुसार करते हैं। निश्यतः शाकलद्वीपी ब्राह्मण ईरानी पुरोहितों (मगों) के ही वंशज हैं, जो यहाँ सूर्य-पूजा की नयी परंपरा के साथ आये थे।

गुप्तकाल ब्राह्मण धर्म की उन्नति का काल था, जहाँ धार्मिक सहिष्णुता के वातावरण में विभिन्न देवी-देवताओं की उपासना की जाती थी। सूर्य की पूजा के प्रमाण भी हमें लेख तथा साहित्य में मिलते हैं। कुमारगुप्तकालीन मंदसोर लेख से पता चलता है, कि दशपुर की तन्तुवाय श्रेणी (रेशम वस्त्र बनाने वाले बुनकरों) ने शिल्प से प्राप्त धन से सूर्य का एक मंदिर बनवाया तथा क्षतिग्रस्त होने पर पुनः उसकी मरम्मत करवायी थी। इस लेख का प्रारंभ ही सूर्य की स्तुति से होता है, जिसके अनुसार-

अस्तित्व के अभिलाषी देवगण, यौगिक सिद्धि के अभिलाषी सिद्धगण, नरिंतर ध्यानमग्न संयमी तथा मोक्षार्थी भोगिगण, वरदान और शाप देने में समर्थ कठोर तप करने वाले मुनिगण द्वारा जो भक्तिपूर्वक पूजित हैं, वे संसार की सृष्टि और विनाश के कारण सूर्य (भगवान) आप सबकी रक्षा करें।

जिसके वास्तविक स्वरूप को तत्वज्ञानी तथा साधना में लीन ब्रह्मर्षि लोग भी नहीं जान पाते, जो अपनी फैली हुई किरणों से समस्त त्रिलोक का पोषण कते हैं, जो उदित होते ही गन्धर्व, देव, किन्नर, सिद्ध तथा मनुष्यों द्वारा प्रशंसित होते हैं, जो अपने भक्तों की अभिलाषा को पूर्ण करते हैं उस (भगवान) सविता को नमस्कार हो…..

सूर्य-मदिर के निर्माण का उल्लेख स्कन्दगुप्तकालीन इन्दौर ताम्रपत्र (गुप्त संवत् 146) में भी मिलता है। पता चलता है, कि क्षत्रिय अचल वर्मा तथा भृकुंठ सिंह ने इन्द्रपुर (बुलंदशहर स्थित इन्दौर) में सूर्य मंदिर बनवाया था। लेख के प्रारंभ में सूर्य स्तुति होती है – जिनका ब्राह्मण विधिवत प्रबुद्ध मन से ध्यान करते हैं, जिनका अंत न तो देवता और असुर जानते हैं, जिनका स्मरण कर लोग विविध रोगों से मुक्ति पाते हैं, वे जगत पीठ रश्मि-आकार (सूर्य) रक्षा करें। हूण नरेश मिहिरकुल के ग्वालियर लेख से पता चलता है, कि यहां पहाङी पर मातृचेट ने एक सूर्य-मंदिर बनवाया था। हर्षकालीन साहित्य से सूर्य-पूजा के व्यापक प्रचलन का ज्ञान प्राप्त होता है। हर्ष के पिता प्रभाकरवर्धन सूर्य के भक्त थे।

हर्ष स्वयं शिव तथा बुद्ध के साथ-साथ सूर्य की पूजा करता है। प्रयाग की सभा में उसने बुद्ध और शिव के साथ-साथ सूर्य की भी पूजा की थी। बाण के विवरण से पता चलता है, कि उज्जैन में सूर्य-पूजा का प्रचलन था। ह्वेनसांग लिखता है, कि मूल स्थान पुर में सूर्य का प्रसिद्ध मंदिर था, जिसकी मूर्ति सोने की बनी थी। उसमें अलौकिक शक्ति थी। संपूर्ण भारत के राजा तथा सरदार वहाँ जाते तथा मूर्ति पर बहुमूल्य पदार्थ चढाते थे। मंदिर में हर समय विभिन्न देशों के लगभग एक हजार यात्री पूजा करने के लिये उपस्थित रहते थे।

राजपूतकाल में भी उत्तर भारत में सूर्य-पूजा लोकप्रिय थी। कुछ प्रतिहार शासक सूर्य के उपासक थे। गहङवालकालीन कन्नौज के दानपत्र (1177ई.) में सूर्य मंदिर का उल्लेख मिलता है। चाहमान शासक चंडमहासेन सूर्य का भक्त था। मीनमल में सौर संप्रदाय काफी लोकप्रिय था। पूर्व मध्य एवं मध्यकाल में सूर्योपासना के अन्य प्रसिद्ध केन्द्र थे- गुजरात में मोडेहरा, राजस्थान में ओसिया तथा सिरोही तथा उङीसा में कोणार्क। यहाँ से प्राप्त मंदिर तथा मूर्तियाँ सूर्य देवता की लोकप्रियता सूचित करती है। पालों के समय निर्मित कई सूर्य मूर्तियाँ बंगाल से मिलती हैं।

सेन नरेश मूर्तियाँ सूर्य देवता की लोकप्रियता सूचित करती हैं। पालों के समय निर्मित कई सूर्य मूर्तियाँ बंगाल से मिलती हैं। सेन नरेश विश्वरूप तथा केशव सेन सूर्य के महान उपासक थे, जिनकी उपाधि परमसोर की थी। दीनाजपुर से प्राप्त सूर्य प्रतिमा पर उत्कीर्ण एक लेख में कहा गया है, कि सूर्य-पूजा से समस्त रोगों का हरण होता है। कश्मीर नरेश लालितादित्य सूर्य का अन्नय भक्त हुआ, जिसने मार्तण्ड मंदिर बनवाया था। चौलुक्य नरेश भीमदेव द्वितीय के पाटन दानपत्र (1199ई.) से पता चलता है, कि अनलेश्वर देव (सूर्य) के मंदिर को दान दिया गया था।

अलबरूनी तथा अन्य मुस्लिम लेखकों के विवरण से पता चलता है, कि मुल्तान में सूर्य का प्राचीन एवं विशाल मंदिर था, जिसके उपलक्ष्य में प्रतिवर्ष उत्सव होता था। दुर्भाग्यवश ग्यारहवीं शती में यहाँ की मूर्ति तुर्की आक्रान्ताओं द्वारा नष्ट कर दी गयी थी। दक्षिण भारत में एकमात्र सूर्य का मंदिर तंजोर में मिलता है, जिससे सूचित होता है, कि सूर्य की पूजा का प्रचलन उत्तर भारत में ही अधिक था। प्रबंधचिन्तामणि से पता चलता है, कि पश्चिमी भारत में तो सूर्य की पूजा जैनियों द्वारा भी की जाती थी।

इस प्रकार प्रागैतिहासिक काल से लेकर मध्यकाल तक भारत में सूर्य पूजा के प्रचलन के साहित्यिक एवं पुरातात्विक प्रमाण मिलते हैं।

प्राचीन ग्रंथों – वृहत्संहिता, विष्णुधर्मोत्तर पुराण, मत्स्य पुराण, भविष्य पुराण आदि में सूर्य-प्रतिमा की विधि का विवरण दिया गया है। प्रायः सूर्य के दो रूपों का वर्णन मिलता है – उदीच्य (उत्तरी) तथा दक्षिणी। उत्तरी वेशभूषा विदेशी तत्वों से प्रभावित है। इसमें सूर्य का शरीर वक्षस्थल से पैरों तक ढका रहता है। उनके सिर पर मुकुट, हाथों में कमल पुष्प, कानों में कुण्डल, गले में हार तथा पैरों में जूते दिखाये गये हैं। कुषाणकालीन प्रतिमाओं पर गांधार कला का प्रभाव है। वे लम्बा कोट, शलवार तथा बूट पहने हुए हैं। यही वेषभूषा कुषाण शासकों की भी मिलती है।

सूर्य के रथ को दो, चार अथवा सात घोङे खींच रहे हैं। उषा-प्रत्युषा दायें-बायें दिखाई गयी हैं। सूर्य के दक्षिणी रूप का विवरण कुछ भिन्न प्रकार से मिलता है। जाहँ उत्तरी वेशभूषा में सूर्य प्रतिमा को पूर्णतया आवृत्त प्रदर्शित करने पर बल दिया गया है, वहाँ दक्षिण भारतीय ग्रंथों – अंशुमद्भेदागम्, सुप्रभेदागम् आदि में उनके शरीर को अनावृत्त प्रदर्शित करने पर बल दिया गया है। इस रूप में विदेशी प्रभाव अत्यल्प है। बताया गया है, कि सूर्य के दोनों हाथों में कमल तथा मुट्ठियां बंधी एवं कंधों पर उठी होनी चाहिये। उनका शरीर उत्तरीय से आवृत्त हो, वे कमल पर खङे हों या सात घोङों के रथ पर सवार हों, उषा-प्रत्युषा देवियाँ उनकी दायीं तथा बायीं ओर खङी हों आदि।

मध्यकाल में विभिन्न स्थानों से हम सूर्य की खङी एवं बैठी मुद्राओं में मूर्तियाँ प्राप्त करते हैं। सूर्य-पूजा की परंपरा भारत में सदा विद्यमान रही तथा आज भी विभिन्न नाम रूप एवं विधियों से उनकी स्तुति की जाती है। अधिकांश नैष्ठिक हिन्दू प्रातःकाल स्नान के बाद सूर्य को जलादि (अर्ध्य) चढाने के बाद ही अन्न-जल ग्रहण करते हैं। गायित्री मंत्र का भारत में व्यापक प्रचलन दिखायी देता है।

इस प्रसंग में उल्लेखनीय है, कि पूर्वाच्चल क्षेत्रों (विशेषकर बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश) में कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को अस्त तथा उदय होते हुए, दोनों रूपों में सूर्य पूजा अत्यधिक लोकप्रिय है। इसे छठ अथवा डाला छठ कहा जाता है। इसे स्त्री-पुरुष अत्यन्त विधि-विधान से कठोर व्रत रखकर करते हैं, जिसमें विविध फल-पकवान आदि सामग्रियों से सूर्य को अर्ध्य दिया जाता है। देश के अन्य भागों में क्रमशः इस पर्व की लोकप्रियता बढती हुयी दिखायी देती है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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