इतिहासप्राचीन भारतवर्द्धन वंश

वर्धन वंश के शासक प्रभाकरवर्धन का इतिहास

थानेश्वर के वर्द्धनों का क्रमबद्ध इतिहास प्रभाकरवर्धन के समय से मिलने लगता है। प्रभाकरवर्द्धन वर्द्धन वंश की स्वतंत्रता का जन्मदाता था। उसकी स्वतंत्र स्थिति का पता उसके द्वारा धारण की गई परमभट्टारक तथा महाराजाधिराज जैसी सम्मानपरक उपाधियाँ हैं।

थानेश्वर के वर्धन वंश की जानकारी के इतिहास के स्रोत

प्रभाकरवर्द्धन एक शक्तिशाली राजा था। उसकी उपलब्धियों का विवरण बाण के हर्षचरित में इस प्रकार से मिलता है – वह हूण रूपी हरिन के लिये सिंह, सिन्धु देश के राजा के लिये ज्वर, गुर्जर को चैन से न सोने देने वाला, गंधराज रूपी मस्त हाथी के लिये जलता हुआ बुखार, लाट देश की चालाकी का अंत करने वाला, मालवा देश की लक्ष्मीरूपी लता को काट देने वाली कुठार के समान था।

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इस प्रकार वह प्रतापशील नामक एक अन्य नाम से भी जाना जाता था।

पंजाब में हूणों के साथ भी प्रभाकरवर्द्धन का युद्ध हुआ था। हर्षचरित से पता चलता है, कि उसने अपने पुत्र बङे पुत्र राज्यवर्धन को हूणों से युद्ध करने के लिये उत्तरापथ भेजा था। यहाँ पर उत्तरापथ से तात्पर्य पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत के प्रदेशों से है, जिसमें गंधार, कंबोज, मद्र आदि सम्मिलित थे।

हूण शक्ति का उत्थान।

हमने गुप्त काल में पढा था कि स्कंदगुप्त के समय में हूणों का प्रथम आक्रमण हुआ था, जिसमें स्कंदगुप्त ने हूणों को पराजित किया था। हूण स्कंदगुप्त से पराजित होने के बाद गंधार प्रदेश में जाकर बस गये थे। इसी को म्लेच्छ देश भी कहा गया है। यहीं से कालांतर में उन्होंने विभिन्न राजवंशों के समय में भारत पर आक्रमण किया था।

प्रभाकरवर्धन के समय में हूणों का आक्रमण पंजाब में हुआ था। उसने राज्यवर्धन को हूणों से युद्ध करने के लिये पंजाब में भेजा था, तथा उसने हूणों को पराजित किया था।

रणजीतसिंह और पंजाब

बाण ने हूणों के बाद सिंध तथा गांधार का अलग-2 विवरण दिया है, जिन्हें प्रभाकरवर्धन ने जीता था।

सिंधु में कुषाणों का शासन था। गंधार में श्वेत हूणों का शासन था, जिन्हें एफ्थलाइट कहा गया है।

गुर्जर से तात्पर्य गुर्जर देश के राजाओं से है। प्राचीन गुर्जर राज्य राजस्थान में था। हर्षकाल में गुजरात के भृगुकच्छ में गुर्जरों की एक शाखा निवास करती थी, जिसका शासक दद्द द्वितीय था। दद्द द्वितीय तथा प्रभाकरवर्धन के पूर्वजों में युद्ध हुआ था।

बाणभट्ट लाट और मालवा के साथ भी प्रभाकरवर्धन की शत्रुता का उल्लेख करते हैं। लाट प्रदेश गुजरात, कोंकण, उत्तरी महाराष्ट्र तथा विदर्भ में फैला था और कलचुरि राजाओं के अधिकार में था। इस वंश के शंकरगण ने पश्चिमी मालवा स्थित उज्जयिनी को बचाने का प्रयास किया तथा उसके इस कार्य में प्रभाकरवर्धन से सहायता मिली थी।

मालवा से तात्पर्य पश्चिमी मालवा से है, जो पहले यशोधर्मन् का राज्य था। पूर्वी मालवा का क्षेत्र पहले ही उत्तरगुप्तों के राज्य में था। यह प्रभाकरवर्धन का संरक्षित राज्य था। इस प्रकार प्रभाकरवर्धन ने अपने समकालीन विविध शक्तियों को नतमस्तक कर परमभट्टारक एवं महाराजाधिराज जैसी उपाधियां सार्थक कर दी।

बंसखेङा तथा मधुबन लेखों के अनुसार प्रभाकरवर्धन का यश चारों समुद्रों को पार कर गया तथा अन्य राजा उसके प्रताप अथवा प्रेम के कारण उसके सामने नतमस्तक होते थे। प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के समय उसके साम्राज्य में गंधार, सिंध, गुर्जर देश तथा मालवा शामिल थे और उसका विस्तार पश्चिम में सिंध से लेकर दक्षिण की ओर नर्मदा नदी तक था। उसका समकालीन मौखरि नरेश अवंतिवर्मा भी एक अत्यंत शक्तिशाली नरेश था, किन्तु कूटनीतिक कारणों से प्रभाकरवर्धन ने उसके साथ शत्रुता मोल नहीं ली।

प्रभाकरवर्धन का वैवाहिक जीवन

वैसे तो प्रभाकरवर्धन के कई रानियाँ थी। लेकिन यशोमती नामक रानी (अग्रमहिषी) उसकी प्रधान रानी थी। यशोमती से दो पुत्र – राज्यवर्द्धन और हर्षवर्द्धन तथा एक कन्या राज्यश्री उत्पन्न हुये थे।

राज्यश्री का विवाह कन्नौज के मौखरि राजा ग्रहवर्मा के साथ हुआ था, जिसके फलस्वरूप वर्द्धनों एवं मौखरियों में मैत्री के संबंध स्थापित हो गये थे।

महासेनगुप्त के गुट वाले उत्तरगुप्तों के साथ भी प्रभाकरवर्धन के संबंध मैत्रीपूर्ण थे। महासेनगुप्त के दो पुत्र कुमारगुप्त तथा माधवगुप्त दोनों प्रभाकरवर्धन के दरबार में निवास करते थे।

हर्षचरित से पता चलता है, कि कृष्ण नामक का एक अन्य पुत्र भी प्रभाकरवर्धन का पुत्र था। कृष्ण प्रभाकरवर्धन की किसी अन्य रानि का पुत्र था।

हूण एवं प्रभाकरवर्धन

प्रभाकरवर्द्धन के शासन काल के अंत में अर्थात् 604 ईस्वी में उसकी पश्चिमी सीमा पर हूणों का आक्रमण हुआ। इससे प्रदेश की शांति और सुरक्षा खतरे में पङ गयी। जिसके परिणामस्वरूप उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र राज्यवर्धन को, जो उस समय 18 वर्ष का था, एक विशाल सेना के साथ हूणों का सामना करने के लिये भेजा।

हर्ष चरित से पता चलता है, कि जिस समय राज्यवर्धन हूणों के विरुद्ध युद्ध करने के लिये उत्तरी-पश्चिमी सीमा की ओर गया था, हर्ष भी अश्वारोही सेना के साथ उसके पीछे-2 गया, किन्तु वह हिमालय के जंगलों में आखेट का आनंद लेने लगा। जब दोनों भाई इस प्रकार व्यस्त थे, तो हर्ष को कुरंगक नामक राजदूत ने उसके पिता के गंभीर रूप से बीमार होने की सूचना दी। हर्ष तुरंत अपनी राजधानी वापस लौटा तथा पाया कि राजा मृत्यु शय्या पर पङे थे। प्रभाकरवर्धन को बचाने के लिये रसायन एवं सुषेन नामक राजवैद्य ने भरपूर प्रयास किये। किन्तु प्रभाकरवर्धन की मृत्यु हो गयी। रानी यशोमती ने चिता में कूदकर आत्मदाह कर लिया।

राज्यवर्धन को बुलाने के लिये दूत भेजे गये। समाचार सुनकर वह शीघ्र थानेश्वर वापस आया। किन्तु वहाँ पहुँचने पर उसने पिता को मृत एवं संपूर्ण नगर को शोक में निमग्न पाया।

इतिहासकार स्मिथ का विचार है, कि राजदरबार में सभासदों का एक ऐसा दल था, जो हर्ष को ही राजा बनाना चाहता था।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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