प्राचीन भारतइतिहासकनिष्ककुषाण वंश

कुषाण वंश का सबसे शक्तशाली शासक – कनिष्क

विम कडफिसेस के बाद कुषाण शासन की बागडोर कनिष्क के हाथों में आयी। कनिष्क निश्चित रूप से भारत के कुषाण राजाओं में सबसे महान् है। उत्तरी बौद्ध अनुश्रुतियों में उसका नाम प्रभामंडल से युक्त है। उसके लगभग बारह अभिलेख तथा बहुसंख्यक स्वर्ण एवं ताम्र मुद्रायें प्राप्त हुई हैं।

बौद्ध साहित्य, अभिलेख तथा सिक्कों के आधार पर हम कनिष्क के बारे में जान सकते हैं।

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कनिष्क की उत्पत्ति, वंश तथा प्रारंभिक जीवन अंधकारपूर्ण है। यह भी स्पष्ट नहीं है, कि पूर्ववर्ती कडफिसेस राजाओं से कनिष्क का कोई संबंध था अथवा नहीं। स्टेनकोनो जैसे कुछ विद्वानों की धारणा है, कि कनिष्क यू-ची की छोटी शाखा से संबंधित था तथा भारत में खोतान से आया था।

इसी प्रकार कनिष्क की उत्पत्ति तथा वंश-परंपरा पूर्णतया अनुमानपरक ही हैं।

हाल ही में उत्तरी अफगानिस्तान के रवाता नामक स्थान से कनिष्क का एक लेख मिला है, जिसमें उसकी वंशावली दी गयी है। लेख में कनिष्क की उपाधि देवपुत्र मिलती है, तथा इसमें उसे विम कडफिसेस का पुत्र कहा गया है। उसे साकेत, कौशांबी, पाटलिपुत्र आदि का विजेता बताया गया है। कनिष्क द्वारा संवत् प्रवर्तन का भी उल्लेख है। यदि इस लेख को प्रामाणिक माना जाय तो कनिष्क की वंशावली संबंधी विवाद समाप्त हो जायेगा।

राज्यारोहण की तिथि-

कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि का अब तक पता नहीं लग सका है। जिसके परिणामस्वरूप कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि का निर्धारण भारतीय इतिहास का सर्वाधिक विवादास्पद प्रश्न रहा है।

कनिष्क की तिथि की समस्या पर विचार करने के लिये 1913 तथा 1960 ई. में लंदन में दो अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किये गये। द्वितीय सम्मेलन में आम सहमति 78 ई. के पक्ष में ही बनी।

इसके समापन भाषण में ए.एल. बाशम ने कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि 78 ई. में रखने के पक्ष में एक नया तर्क प्रस्तुत किया। इसके अनुसार कनिष्क की तिथि 78 ई. न मानने की स्थिति में यह बता सकना कठिन होगा कि गंधार तथा पंजाब में किस संवत् का प्रचलन था।

हमें संपूर्ण उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम भारत में, जो दीर्घकाल तक शक-कुषाणों की अधीनता में थे, शक संवत् के प्रचलन का प्रमाण मिलता है। मात्र उपरोक्त दो प्रदेशों में ही इसका प्रचलन नहीं मिलता। किन्तु यदि कनिष्क के लेखों की तिथि को शक-संवत् से समीकृत कर दिया जाये तो हमें पंजाब और गंधार में संवत् का अभाव नहीं दिखाई देगा।

कनिष्क के युद्ध तथा विजयें

साम्राज्य तथा शासन

कनिष्क का अंत-

कनिष्क के अंतिम दिनों के विषय में हमें निश्चित रूप से जानकारी नहीं मिलती है। संस्कृत तथा बौद्ध ग्रंथों के चीनी अनुवाद में उसकी मृत्यु संबंधी जो अनुश्रुति सुरक्षित हैं, उससे पता चलता है, कि उसकी अतिशय लोलुपता, निर्दयता तथा महत्वाकांक्षा से प्रजा में भारी असंतोष फैल गया।

निरंतर युद्धों के कारण उसके सैनिक तंग आ चुके तथा उसके विरुद्ध एक विद्रोह उठ खङा हुआ। एक बार जब वह उत्तरी अभियान पर जा रहा था, मार्ग में बीमार पङा। उसी समय उसके सैनिकों ने उसका मुँह ढंककर उसे मार डाला।

कनिष्क ने कुल 23 वर्षों तक राज्य किया। यदि हम उसके राज्यारोहण की तिथि 78ईस्वी मानें तो तदनुसार उसकी मृत्यु 101 ईस्वी के लगभग हुई।

कनिष्क का मूल्यांकन-

कनिष्क की उपलब्धियों को देखते हुये हम उसे भारतीय इतिहास के महान सम्राटों में स्थान दे सकते हैं। वह एक महान् विजेता, साम्राज्.-निर्माता तथा विद्या एवं कला-कौशल का उदार संरक्षक था। गंगाघाटी में एक साधारण क्षत्रप के पद से उठकर उसने अपनी विजयों द्वारा एशिया के महान् राजाओं में अपना स्थान बना लिया।

वह एक कुशल सेनानायक तथा सफल शासक था। अशोक के समान उसने भी बौद्ध धर्म के प्रचार में अपने साम्राज्य के साधनों को लगा दिया। उत्तरी बौद्ध अनुश्रुतियों में उसका वही स्थान है, जो दक्षिणी बौद्ध परंपराओं में अशोक का।

वह कभी भी धर्मांध अथवा धार्मिक मामलों में असहिष्णु नहीं हुआ तथा बौद्ध धर्म के साथ-2 दूसरे धर्मों का भी सम्मान किया। इस प्रकार कनिष्क में चंद्रगुप्त जैसी सैनिक योग्यता तथा अशोक जैसा धार्मिक उत्साह देखने को मिलता है।

कनिष्क एक विदेशी शासक था, फिर भी उसने भारतीय संस्कृति में अपने को पूर्णतया विलीन कर दिया। उसने भारतीय धर्म, कला एवं विद्वता को संरक्षण प्रदान किया। इस प्रकार कनिष्क ने मध्य तथा पूर्वी एशिया में भारतीय संस्कृति के प्रवेश का द्वार खोल दिया।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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