थानेश्वर के वर्द्धन वंश को जानने के लिए इतिहास के साधन
गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद उत्तर भारत के राजवंशों में थानेश्वर का पुष्यभूति राजवंश सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं शक्तिशाली था। इसी राजवंश को वर्धनवंश के नाम से इतिहास में जाना जाता है। गुप्त साम्राज्य का पतन 550 ईस्वी में हुआ था।
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वर्द्धन वंश को जानने के लिये इतिहास के साधन निम्नलिखित हैं-
वर्द्धन वंश के इतिहास को जानने में साहित्य, पुरातत्व तथा विदेशी विवरण तीनों प्रकार के स्रोत सहायक हैं।
पुरातात्विक स्रोत-
अभिलेख–
- बंसखेङा का लेख
यह 1894 ईस्वी में उत्तरप्रदेश के शाहजहाँपुर जिले में स्थित बंसखेङा नामक स्थान से मिला है, जिसमें हर्ष संवत् अर्थात् 628 ईस्वी की तिथि अंकित है। इस लेख से पता चलता है, कि हर्ष ने अहिच्छत्र भुक्ति के अंगदीया विषय के मर्कटसागर नामक ग्राम को बालचंद्र तथा भट्टस्वामी नाम के दो भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मणों को दान दिया था। इससे हर्षकालीन शासन के अनेक प्रदेशों तथा पदाधिकारियों के नाम पता चलते हैं। राज्यवर्द्धन द्वारा मालवा के शासक देवगुप्त पर विजय तथा अन्ततः गौङ नरेश शशांक द्वारा उसकी हत्या की जानकारी भी इसी लेख से मिलती है।
- मधुबन का लेख
यह लेख उत्तर प्रदेश के मऊ जिले में स्थित है। यहाँ से हर्ष संवत् 25 अर्थात 631 ईस्वी का लेख मिलता है। इसमें हर्ष द्वारा श्रावस्ती भुक्ति के सोमकुण्डा नामक ग्राम को दान में देने का विवरण है।
मुहरें-
हर्ष की दो मुहरें नालंदा तथा सोनपत (दिल्ली के समीप सोनीपत नाक स्थान) से प्राप्त होती हैं। पहली मुहर मिट्टी तथा दूसरी मुहर ताँबे की है। इन पर लेख खुदे हुए हैं। जिनमें महाराज राज्यवर्द्धन प्रथम के समय से लेकर हर्षवर्द्धन तक की वंशावली मिलती है। सोनपत मुहर में ही हमें हर्ष का पूरा नाम हर्षवर्द्धन प्राप्त होता है। हर्ष के कुछ सिक्के भितौरा (फैजाबाद, उत्तर प्रदेश) गाँव से प्राप्त हुए हैं। ये चाँदी के हैं तथा इन पर श्री शालदत्त (श्री शिलादित्य) अंकित है।
के.जी.वाजपेयी ने फर्रुखाबाद से हर्ष का स्वर्ण सिक्का प्राप्त किया है। इस सिक्के के मुख पर परमभट्टारक महाराजाधिराज श्रीहर्षदेव अंकित है, तथा इसके पृष्ठ भाग पर उमामाहेश्वर की आकृति खुदी हुई है।
साहित्यिक स्रोत-
हर्षचरित-
हर्षचरित की रचना बाणभट्ट ने की थी। इस ग्रंथ के द्वारा वर्द्धन वंश का इतिहास जाना जाता है।ऐतिहासिक विषय पर गद्यकाव्य लिखने का पहली बार प्रयास किया गया। यह एक आख्यायिका है, जिसमें लेखक अपने समकालीन शासक तथा उसके पूर्वजों के जीवनवृत का वर्णन प्रस्तुत करता है।
काव्यशास्त्र की परिभाषा में आख्यायिका को कथा से भिन्न मानते हुए लिखा गया है, कि प्रथम ( आख्यायिका ) परंपार पर आश्रित होती है, जबकि दूसरे (कथा)में थोङी ही सच्चाई होती है।
हर्षचरित में 8 अध्याय अथवा खंड हैं। इन्हें उच्छवास कहा जाता है।
हर्षचरित के 8 उच्छवासों का विवरण निम्नलिखित है-
- प्रथम तीन में बाण ने अपनी आत्मकथा लिखी है।
- पहले का कोई ऐतिहासिक महत्त्व नहीं है। दूसरे में उसने अपने वात्स्यायन गोत्रीय प्रीतिकूट नामक ग्राम में निवास करने वाले भृगुवंश तथा अपने बचपन का उल्लेख किया है। इसी में वह हर्ष के संपर्क में आने का विवरण देता है।
- तीसरे उच्छवास में श्रीकंठ जनपद तथा स्थाणीश्वर का वर्णन करते हुए वह पुष्यभूति तथा भैरवाचार्य नामक शैव आचार्य के आपसी संबंधों के विषय में बताता है।
- चौथे उच्छवास में प्रभाकरवर्द्धन संबंधी उल्लेख है, जहाँ राज्यवर्धन, हर्षवर्धन, राज्यश्री के जन्म, बचपन एवं कन्नौज के राजा ग्रहवर्मा के साथ राज्यश्री के विवाह जैसी घटनाओं का वर्णन किया गया है।
- पाँचवे उच्छवास में सीमाप्रांत पर हूणों के उपद्रव, उन्हें दबाने के लिये राज्यवर्धन को भेजने, प्रभाकरवर्धन की बीमारी तथा मृत्यु का वर्णन किया गया है।
- 6वें उच्छवास में शोकग्रस्त राज्यवर्धन द्वारा संयास ग्रहण करने की इच्छा, ग्रहवर्मा की हत्या का समाचार, उसके बाद राज्यवर्धन द्वारा शस्त्र गृहण कर मालवराज के विरुद्ध अभियान, मालवराज की पराजय, दुष्ट शशांक द्वारा छलपूर्वक राज्यवर्धन की हत्या का वर्णन है।इन सब घटनाओं के अलावा हर्ष की समस्त शत्रुओं से बदला लेने तथा पृथ्वी को गौङ विहीन कर देने की प्रतिज्ञा का भी विवरण है।
- 7वें उच्छवास में हर्ष के सैन्याभियान, कामरूप के राजा भास्करवर्मन के राजदूत हंसवेग द्वारा प्रेषित मैत्री प्रस्ताव स्वीकार किये जाने का विवरण है।
- 8वें तथा अंतिम उच्छवास में राज्यश्री की खोज तथा प्राप्ति, दिवाकरमित्र से मिलन तथा राज्यश्री को साथ लेकर सैन्य शिविर में वापस आने का वर्णन किया गया है। इसी के साथ हर्षचरित का विवरण समाप्त हो जाता है।
यह ग्रंथ हर्ष के शासन काल का एक सजीव तथा समकालीन चित्र प्रस्तुत करता है। हर्षकालीन भारत की राजनीति एवं संस्कृति के ऊपर भी हर्षचरित से प्रकाश पङता है।
कादंबरी–
कादंबरी नामक ग्रंथ की रचना बाणभट्ट ने की थी।यह संस्कृत साहित्य का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है। इसके अध्ययन से हमें हर्षकालीन सामाजिक तथा धार्मिक जीवन की जानकारी प्राप्त होती है।
आर्यमंजूश्रीमूलकल्प-
यह एक प्रसिद्ध महायान बौद्ध धर्म ग्रंथ है। सर्वप्रथम गणपति शास्री ने 1925 ईस्वी में इसे प्रकाशित किया था। इसमें एक हजार श्लोक हैं, जिनके अंदर ईसा पूर्व 7वी. शता. से लेकर 8वी. शता. ईस्वी तक का प्राचीन भारत का इतिहास वर्णित है।
हर्षकालीन इतिहास की कुछ घटनाओं पर यह ग्रंथ प्रकाश डालता है। इसमें हर्ष के लिये केवल ह शब्द का प्रयोग किया गया है। किन्तु इस ग्रंथ में अनेक अनैतिहासिक सामग्रियाँ भी भरी हुई हैं।
हर्ष के ग्रंथ-
हर्ष ने स्वयं तीन नाटक ग्रंथ लिखे हैं – जो निम्नलिखित हैं-
- प्रियदर्शिका,
- रत्नावली,
- नागानंद।
इन ग्रंथों से भी हर्ष के समय की जानकारी प्राप्त होती है।
विदेशी विवरण-
- ह्वेनसांग तथा उसका विवरण–
ह्वेनसांग एक प्रसिद्ध चीनी यात्री था, जो हर्ष के समय में भारत की यात्रा पर आया था। वह 16 वर्षों तक भारत में रहा। ह्वेनसांग ने अपना यात्रा वृतांत लिखा है, जिसका नाम सी-यू-की है। इस पुस्तक से तत्कालीन राजनीति तथा संस्कृति का इतिहास का पता चलता है।
- ह्वेनसांग की जीवनी
ह्वेनसांग की जीवनी की रचना हेनसांग के मित्र ह्वी-ली ने की थी। बील नामक विद्वान ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया है। इससे भी हर्षकालीन इतिहास से संबंधित महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती हैं।
- इत्सिंग का विवरण
यह एक चीनी यात्री था, जिसका यात्रा विवरण हर्षकालीन इतिहास के अध्ययन के लिये उपयोगी है। इसके यात्रा वृतांत का अंग्रेजी में अनुवाद जापानी बौद्ध विद्वान तक्कुसु ने ए रेकार्ड ऑफ द बुद्धिस्ट् रेलिजन नाम से प्रस्तुत किया है।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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