देवगुप्त का इतिहास
महासेनगुप्त जो कि देवगुप्त का पिता था, के अंतिम दिनों के बारे में
महासेनगुप्त की मृत्यु के बारे में ज्यादा जानकारी प्राप्त नहीं होती है, बी.पी. सिन्हा अभोना लेख के आधार पर यह निष्कर्ष निकालते हैं, कि कलचुरि नरेश शंकरगण ने कलचुरि संवत् 347 अर्थात् 595 ईस्वी में महासेनगुप्त पर आक्रमण कर मालवा पर अधिकार कर लिया।
महासेनगुप्त संभवतः इस युद्ध में लङता हुआ मार डाला गया। किन्तु मालवा के ऊपर कलचुरि शासन स्थायी नहीं रहा। शंकरगण के उत्तराधिकारी बुद्धराज को चालुक्य नरेश मंगलेश ने पराजित किया, जिससे कलचुरियों की महत्वाकांक्षा पर पानी फिर गया।
देवगुप्त
जिन दिनों कलचुरि चालुक्यों के साथ संघर्ष में उलझे हुए थे, मालवा में देवगुप्त ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। इस प्रकार कुमारगुप्त तथा माधवगुप्त मालवा का राज्य प्राप्त करने से वंचित रह गये तथा उनकी स्थिति अत्यंत ही दयनीय हो गयी।
मधुबन एवं बंसखेङा के लेखों में देवगुप्त का उल्लेख मिलता है। देवगुप्त महासेनगुप्त का सबसे बङा पुत्र था, जो उसकी पहली पत्नी से उत्पन्न हुआ था। महासेनगुप्त के दो छोटे पुत्र कुमारगुप्त तथा माधवगुप्त भी थे। ये दोनों पुत्र महासेनगुप्त की दूसरी पत्नी से उत्पन्न हुये थे। सौतेला भाई होने के कारण देवगुप्त इन दोनों से ईर्ष्या करता था।
महासेनगुप्त की वृद्धावस्था का फायदा उठाकर देवगुप्त मालवा का राज्य हथियाना चाहता था। ऐसा लगता है,कि अपने दोनों पुत्रों की सुरक्षा के लिये ही महासेनगुप्त ने उन्हें प्रभाकरवर्द्धन के पास भेज दिया। महासेनगुप्त की मृत्यु होते ही देवगुप्त ने मालवा पर अधिकार कर लिया।
इस प्रकार देवगुप्त वर्धनों का स्वाभाविक रूप से शत्रु बन गया। अपनी स्थिति सुदृढ करने के लिये देवगुप्त ने गौङ नरेश शशांक के साथ मित्रता कर ली। इसके पूर्व कि प्रभाकरवर्द्धन उसे कोई दंड दे सके, स्वयं उसी की मृत्यु हो गयी और देवगुप्त का मार्ग निष्कंटक हो गया। उसने शशांक की सहायता पाकर कन्नौज के मौखरी राज्य पर आक्रमण कर दिया। ग्रहवर्मा की हत्या कर दी गयी तथा राजश्री को चौरांगना की भाँति कन्नौज के कारागार में डाल दिया गया।
इस प्रकार देवगुप्त ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया। परंतु उसकी सफलता क्षणिक रही। प्रभाकरवर्द्धन के बङे पुत्र राज्यवर्द्धन ने एक बङी सेना के साथ उस पर आक्रमण कर दिया तथा उसे मार डाला।
Reference : https://www.indiaolddays.com