इतिहासप्राचीन भारतवर्द्धन वंशहर्षवर्धन

हर्ष वर्धन का मधुबन ताम्रपत्र अभिलेख

यह अभिलेख उत्तर प्रदेश के मऊ जनपद की घोषी तहसील के मधुबन नामक स्थान से प्राप्त हुआ है। यह अभिलेख हर्षवर्धन से संबंधित है। इस अभिलेख की भाषा संस्कृत तथा लिपि – ब्राह्मी लिपि है। इस ताम्रपत्राभिलेख में हर्षसंवत् 25 (631 ईस्वी) की तिथि अंकित है।

मधुबन ताम्रपत्राभिलेख का हिन्दी अनुवाद

ऊँ. स्वास्ति। नाव, हाथी तथा घोङों से युक्त कपित्यिका के महान् सैनिक शिविर से (यह घोषणा की गयी) – एक महाराज नरवर्धन हुए। (उनकी महिषी) वज्रिणी देवी से महाराज राज्यवर्धन का जन्म हुआ, जो तत्पादानुध्यात तथा सूर्य के महान भक्त थे। (उनकी महिषी) अप्सरों देवी से महाराज आदित्यवर्धन पैदा हुए, जो तत्पादानुध्यात तथा सूर्य के महान भक्त थे। उनकी महिषी महासेनगुप्ता देवी से उनके एक पुत्र परमभट्टारक महाराजाधिराज प्रभाकरवर्धन उत्पन्न हुए। वे भी तत्पादानुध्यात तथा सूर्य के परम भक्त थे। इस महाराज प्रभाकरवर्धन का यश चारों समुद्रों को पार कर गया।

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उनके प्रताप तथा प्रेम के कारण दूसरे शासक उन्हें मस्तक झुकाते थे। इसी महाराज के वर्णाश्रम धर्म को प्रतिष्ठित करने के निमित्त अपना बल प्रयोग किया तथा सूर्य के समान प्रजा के दुखों का अंत किया। (उनकी महिषी) विमल यश वाली यशोमती देवी से परमसौगात तथा उन्हीं के समान हितकारी परमभट्टारक महाराजाधिराज राज्यवर्धन का जन्म हुआ।

ये भी तत्पादानुध्यात एवं सूर्य के महान उपासक थे। उनके उज्जवल यश के तन्तु पूरे भुवनमंडल में फैल गये। इन्होंने कुबेर, वरुण, इन्द्र आदि लोकपालों का तेज वहन करते हुये, सत्य और सुमार्ग से अर्जित द्रव्य, भूमि आदि याची जनों को दान कर उन्हें संतुष्ट कर दिया। इनका चरित्र, अपने पूर्वजों से उन्नत था।

इन्होंने देवगुप्त आदि राजाओं को एक साथ ही युद्ध में इस प्रकार पराजित कर दिया, जिस प्रकार से दुष्ट घोङा चाबुक की मार से रोका जाता है। अपने शत्रुओं का उन्मूलन कर पृथ्वी को जीतने वाले इस राजा ने प्रजा का प्रिय करते हुये सत्य के अनुरोध से शत्रु भवन में प्राण त्याग दिये। इन्हीं के अनुज, तत्पादानुध्यात शिव के महान भक्त तथा उन्हीं के समान प्राणियों पर दयावान परमभट्टारक महाराजाधिराज हर्ष ने श्रावस्ती भुक्ति में स्थित कुण्डधानी विषय के सौमकुण्डा गांव में इकत्रित महासामंत, महाराज, दौस्साधसाधनिक, प्रमातार, राजशथानीय, कुमारामात्य, उपरिक, विषयपति, चाट, भाट, सेवक तथा निवासियों के लिये यह राजाज्ञा प्रसारित करवाई-सभी को पता हो कि यह सोमकुण्डा नामक ग्राम, जिसे वामरथ्य ब्राह्मण ने अपनी जाली दलील से अपने अधिकार में ले लिया था, उसके प्रमाण को रद्द करके उस ग्राम को उससे ले लिया। अपने पिता, माता तथा पूज्य अग्रज के पुण्य और यश की वृद्धि के निमित्त अपनी सीमा तक फैले इस गाँव को उसकी समस्त आय के साथ, समस्त भारों से मुक्त तथा अपने विषय से अलग करते हुये, जब तक चंद्र, सूर्य और पृथ्वी स्थित रहें, तब तक भूछिद्र न्याय के अनुसार सार्वणिगोत्रीय सामवेदी भट्टास्वामी तथा विष्णुवृद्धिगोत्रीय ऋग्वेदी भट्ट शिवदेव स्वामी को अग्रहार के रूप में मैंने दान दे दिया।

ऐसा जानकर आप सब इसे स्वीकार करें तथा राजा की आज्ञा का पालन करते हुये, तुल्य, मेय, भाग, भोग, कर, सुवर्ण आदि इन्हीं को देकर इनकी सेवा में रत रहें। हमारे कुल से संबंध का दावा करने वाले दूसरे अन्य लोग भी इस दान का अनुमोदन करें। लक्ष्मी, जो जल के बुलबुले तथा विद्युत के समान चंचला है, का फल दान देने तथा दूसरों का हित करने में है। मन, वाणी तथा कर्म से प्राणिमात्र का हित करना चाहिये। इसे हर्ष ने पुण्यार्जन का सर्वश्रेष्ट उपाय कहा है। इस विषय में महाप्रमातार, महासामंत श्री स्कंदगुप्त दूतक हैं, तथा महाक्षपटल कार्यालय कार्यालय में सामंत महाराज ईश्वरगुप्त की आज्ञा से गुर्जर द्वारा इसे लिखा गया है। मार्गशीर्ष वदी, संवत् 251 मेरे महाराजाधिराज श्री हर्ष के हस्ताक्षर से।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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