इतिहासप्राचीन भारतवर्द्धन वंशहर्षवर्धन

हर्ष के अभिलेख बांसखेङा ताम्रपत्र लेख

यह अभिलेख उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर जिले में स्थित बंसखेङा नामक स्थान से मिला है। इस लेख में हर्षवर्धन के बारे में बताया गया है। यह लेख ब्राह्मी लिपि तथा संस्कृत भाषा में लिखा गया है। इसमें हर्ष संवत् 22 (628ई.) की तिथि अंकित है।

बांसखेङा के ताम्रपत्र लेख का हिन्दी अनुवाद

सिद्धि, स्वस्ति (कल्याण हो)। नाव, हस्ति तथा अश्वों से युक्त वर्धमानकोटि के जयस्कंधावार (सैनिक शिविर) से (यह घोषित किया गया) – एक महाराज नरवर्धन हुये। उनकी रानी श्री वज्रिणी देवी से महाराज राज्यवर्धन उत्पन्न हुए, जो उनके चरणों के ध्यान में रत तथा सूर्य के महान भक्त थे। (उनकी महिषी) अप्सरो देवी से महाराज आदित्यवर्धन का जन्म हुआ, जो अपने पिता के चरणों के ध्यान में रत तथा सूर्य के महान भक्त थे। (उनकी रानी) महासेनगुप्ता देवी से उनके एक पुत्र परमभट्टारक महाराजाधिराज प्रभाकरवर्धन उत्पन्न हुए। वे भी अपने पिता के चरणों के ध्यान में रत तथा सूर्य के परम भक्त थे। इस महाराज प्रभाकरवर्धन का यश चारों समुद्रों का अतिक्रमण कर गया।

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उनके प्रताप एवं प्रेम के कारण दूसरे शासक उनको सिर नवाते थे। इसी महाराज ने वर्णाश्रम धर्म की प्रतिष्ठा हेतु अपना बल प्रयोग किया तथा सूर्य के समान प्रजा के दुखों का नाश किया। (उनकी रानी) निर्मल यश वाली यशोमती देवी से बुद्ध के परम भक्त तथा उन्हीं के समान परोपकारी परमभट्टारक महाराजाधिराज राज्यवर्धन उत्पन्न हुए। ये भी पिता के चरणों के ध्यान में रत तथा सूर्य के परम भक्त थे। इनकी उज्जवल कीर्ति के तंतु समस्त भुवनमंजल में व्याप्त हो गये। उन्होंने कुबेर, वरुण, इन्द्र आदि लोकपालों के तेज को धारण कर सत्य एवं सन्मार्ग से संचित द्रत्य, भूमि आदि याचकों को देकर उनके ह्रदय को संतुष्ट किया। इनका चरित्र अपने पूर्वगामी शासकों से बढकर था।

जिस प्रकार दुष्ट घोङे को चाबुक के प्रहार से नियंत्रित किया जाता है, उसी प्रकार देवगुप्त और राजाओं को एक ही साथ युद्ध में दमन कर, अपने शत्रुओं को समूल नष्ट कर पृथ्वी को जीता तथा प्रजा का हित करते हुये सत्य का पालन करने के कारण शत्रु के भवन में प्राण त्याग दिया।

इन्हीं महाराज राज्यवर्धन के अनुज, उनके चरणों के ध्यान में रत, परम शैव तथा शिव के समान प्राणिमात्र पर दया करने वाले परमभट्टारक महाराजाधिराज हर्ष ने अहिच्छत्र मुक्ति के अंतर्गत अंगदीय विषय के पश्चिमी मार्ग से मिला हुआ मर्कंटसागर ग्राम में एकत्रित महासामंत, महाराज, दौस्साधसाधनिक, प्रमातार, राजस्थानी. कुमारामात्य, उपरिक, विषयपति, चाट, भाट, सेवक तथा निवासियों के लिये प्रस्तुत राजाज्ञा प्रसारित की –

सर्वसाधारण को ज्ञात हो कि मैंने अपने पिता परमभट्टारक महाराजाधिराज प्रभाकरवर्धन, माता परमभट्टारिका महारानी यशोमती देवी तथा पूज्य अग्रज महाराज राज्यवर्धन के पुण्य एवं यश को बढाने के लिये अपनी सीमा तक फैले हुए उपरोक्त ग्राम को – उसकी समस्त आय के साथ जिस पर राजवंश का अधिकार का, सभी प्रकार के भारों से मुक्त तथा अपने विषय से अलग कर पुत्र पौत्रादि के लिये जब तक सूर्य, चंद्र और पृथ्वी स्थित रहे, तब तक भू छिद्र न्याय से – भारद्वाज के ऋग्वेदी, भट्ट बालचंद्र तथा भारद्वाज गोत्रीय सामवेदी भट्ट भद्रस्वामी को अग्रहार रूप में दान दिया। यह जानकर आप सब इसे स्वीकार करें। इस ग्राम के निवासी हमारी आज्ञा को स्वीकार करते हुये तुल्य, मेय, भाग, भोग, कर, सुवर्ण आदि इन्हीं दोनों ब्राह्मणों को प्रदान करें तथा इन्हीं की सेवा में रत हों।

इसके अतिरिक्त हमारे महान कुल के साथ संबंध का दावा करने वाले दूसरे जन भी इस दान को मान्यता दें। लक्ष्मी का, जो दल के बुलबुले तथा विद्युत की भाँति चंचला है, का फल दान देने दूसरों के यश की रक्षा करने में है। (अतः मनुष्य को) मन, वाणी एवं कर्म से सभी प्राणियों का कल्याण करना चाहिये। इसे हर्ष ने पुण्यार्जन का सबसे श्रेष्ठ साधन कहा है। इस संबंध में महाप्रमातार, महासामंत श्री स्कंदगुप्त तथा दूतक महाप्रमातार हैं। महाक्षपटलाकरमाधिकृत महासामंत महाराज मान की आज्ञा से ईश्वर द्वारा इसे अंकित कराया गया है। कार्त्तिक वदी 9 संवत् 22। महाराजाधिराज श्री हर्ष के अपने हाथ (हस्ताक्षर) से।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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