इतिहासराजस्थान का इतिहास

राजस्थान में स्वतंत्रता संघर्ष का आरंभ

राजस्थान में स्वतंत्रता संघर्ष – डॉ. एम.एस.जैन ने राजस्थान में स्वतंत्रता संघर्ष को तीन चरणों में विभाजित किया है – 1.) 1927 ई. के पूर्व, 2.) 1927 से 1938 ई., 3.) 1938 से 1949 ई.। प्रथम चरण में प्रायः प्रत्येक राज्य में यह संघर्ष, अन्य राज्यों की घटनाओं से अप्रभावित रहकर सामाजिक अथवा मानवतावादी समस्याओं पर केन्द्रित रहा। चूँकि 1920 ई. में काँग्रेस ने प्रस्ताव पास किया था कि वह भारतीय राज्यों के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी, अतः प्रत्येक राज्य में संघर्ष प्रायः राजनीतिक लक्ष्यों से विहीन ही रहा। दूसरा चरण 1927 ई. में ऑल इंडिया स्टेट् पीपुल्स कान्फ्रेन्स (अखिल भारतीय देशी राज्य लोक-परिषद) की स्थापना से आरंभ हुआ। इस संस्था के स्थापित हो जाने से विभिन्न राज्यों के राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं को एक ऐसा मंच मिल गया जहाँ से वे अपनी बात कह सकते थे। तीसरा चरण 1938 ई. में हरिपुरा काँग्रेस के उस प्रस्ताव से आरंभ हुआ जिसमें देशी राज्यों में स्वतंत्रता संघर्ष संबंधित राज्यों के लोगों द्वारा चलाने की बात कही गयी थी। 1938 के बाद विभिन्न राज्यों में प्रजा मंडलों अथवा प्रजा परिषदों की स्थापना हुई तथा प्रत्येक राज्य के लोगों ने राजनीतिक अधिकारों तथा उत्तरदायी प्रशासन के लिये आंदोलन किये। 1942 ई. के बाद अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद और भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस में अधिक समन्वय स्थापित हुआ और 1948 ई. में देशी राज्य लोक परिषद ने अपने-आपको काँग्रेस में विलय कर 1917-20 ई. की कुछ घटनाओं के बाद राजस्थान के विभिन्न राज्यों में राजनीतिक चर्चा व्यापक होनी आरंभ हो गयी। प्रथम विश्वयुद्ध से लौटे सैनिकों द्वारा सामान्य जनता को अपने अनुभव बताना, रूस की बोल्शेविक क्रांति, 1917 ई. की मॉण्टेग्यू घोषणा, 1918-21 ई. के मध्य भारत में अहिंसात्मक आंदोलन, रौलेट एक्ट के विरुद्ध सत्याग्रह, खिलाफत और असहयोग आंदोलन का व्यापक प्रभाव पङा। राजस्थान के लोगों ने अनुभव किया कि यदि ब्रिटिश सरकार की सर्वोच्च सत्ता के विरुद्ध सफलतापूर्वक अहिंसात्मक आंदोलन चलाया जा सकता है तो राजस्थान के राज्यों में भी राजनीतिक अधिकारों के लिये आंदोलन चलाया जा सकता है। राजस्थान के राज्यों में खादी प्रयोग के प्रचार ने भी स्वतंत्रता की भावना को लोकप्रिय तथा व्यापक बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। प्रारंभ में खादी के प्रयोग से, यहाँ के शासकों को कोई हानि दिखायी नहीं दी, क्योंकि गाँवों की निर्धन जनता के लिये यह एक रोजगार का साधन था। किन्तु बाद में यहाँ के शासकों को खादी प्रयोग में आपत्ति दिखायी दी, क्योंकि समय के साथ-साथ खादी का प्रयोग करना तथा गाँधी टोपी पहनना स्वतंत्रता आंदोलन का प्रमुख अंग बन चुके थे। विभिन्न राज्यों में खादी आश्रम और खादी संघ स्वतंत्रता आंदोलन के केन्द्र बन गये।

राजस्थान में स्वतंत्रता संघर्ष

राजस्थान सेवा संघ की स्थापना

राजस्थान मध्य भारत सभा की स्थापना

स्वतंत्रता संघर्ष में बाधाएँ

राजस्थान के राज्यों में राजनीतिक जागरूकता मात्र एक अल्पसंख्यक वर्ग तक ही सीमित थी, जो दमनकारी प्रशासन के वास्तविक स्वरूप को समझता था। राजस्थान की जनता को तो दोहरी कठिनाइयों का सामना करना पङ रहा था। एक ओर तो वह शासकों की निरंकुश सत्ता के अधीन पिस रही थी तो दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार शासकों की निरंकुश सत्ता को बनाये रखने के लिये जनता के संवैधानिक अधिकारों को उपेक्षा कर रही थी। शासक तो किसी कीमत पर अपनी सत्ता को कम नहीं करना चाहते थे और अँग्रेज चाहते थे कि भारतीय शासकों के गुट को संगठित कर बढते हुए राष्ट्रीय आंदोलन को परोक्ष रूप से कमजोर किया जाय। इसलिए वे राजाओं के अधिकारों को सीमित करने के पक्ष में नहीं थे। जनता के संवैधानिक अधिकारों के समर्थन का अर्थ तो – शासकों को दुर्बल बनाना। काँग्रेस भी राज्यों की समस्याओं को राष्ट्रीय मंच से समर्थन देने के पक्ष में नहीं थी। स्वयं गाँधीजी अँग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में भारतीय समाज के किसी प्रभावशाली वर्ग को विरोधी नहीं बनाना चाहते थे। उन्हें भय था कि यदि शासकों के विरुद्ध किसी आंदोलन का समर्थन किया गया तो यह प्रतिक्रियावादी वर्ग प्रजातंत्र के मार्ग में रोङा अटकाने वाला बन जायेगा और काँग्रेस पर एक नयी वित्तीय आकर खङी हो जायेगी।

अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद की स्थापना

राजस्थान में देशी राज्य लोक परिषद

प्रजा मंडलों की स्थापना

राजस्थान में प्रजा मंडल आंदोलन

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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