इतिहासराजस्थान का इतिहास

राजस्थान में प्रजामंडल आंदोलन

राजस्थान में प्रजामंडल आंदोलन

प्रजामंडल आंदोलन – प्रजामण्डल भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय रियासतों की जनता के संगठन थे। 1920 के दशक में प्रजामण्डलों की स्थापना तेजी से हुई। प्रजामण्डल का अर्थ है ‘जनता का समूह’अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद की स्थापना से राजस्थान के राज्यों में राजनैतिक चेतना की प्रगति पर गहरा प्रभाव पङा।

अब एक राज्य की समस्याओं को उजागर करने के लिये अखिल भारतीय मंच तैयार हो गया। काँग्रेस का समर्थन मिल जाने और अभिन्न राज्यों में देशी राज्य लोक परिषद की शाखाएँ स्थापित हो जाने के बाद राजस्थान के विभिन्न राज्यों में जन आंदोलन कुछ अधिक सक्रिय हुए, जिनकी गति स्थानीय नेतृत्व पर निर्भर करती थी।

यहाँ विभिन्न राज्यों के जन आंदोलनों का विवरण किया गया है-

प्रजामंडल आंदोलन

अन्य राज्यों में जन आंदोलन

बाँसवाङा, डूँगरपुर, प्रतापगढ, सिरोही, झालवाङ, शाहपुर, टोंक, कुशलगढ और किशनगढ आदि राज्यों में राजनीतिक चेतना का विकास 20 वीं शताब्दी के दूसरे और तीसरे दशक में ही हो पाया था। कुछ राज्यों में तो 1940 के बाद राजनीतिक हलचल दिखाई थी।

बाँसवाङा में भूपेन्द्रनाथ त्रिवेदी ने अपने कुछ साथियों के सहयोग से 1943 ई. में प्रजा मंडल की स्थापना की। प्रजामंडल की बढती हुई लोकप्रियता को देखते हुए राज्य सरकार ने राजधानी में धारा 144 लगाकर प्रजा मंडल की सभाओं पर रोक लगा दी। प्रजा मंडल ने राजधानी से बाहर सभा की सरकार ने प्रजा मंडल के नेताओं को बंदी बना लिया।

इससे नगर में हङताल हो गयी। सरकार को विवश होकर बंदी नेताओं को रिहा करना पङा। 1946 ई. में प्रजा मंडल ने अपने अधिवेशन में उत्तरदायी शासन की माँग की। महारावल ने व्यवस्थापिका स्थापित कर उसके चुनाव कराये। प्रजामंडल 45 में से 35 स्थानों पर विजयी रहा।

इससे प्रजा मंडल संतुष्ट नहीं हुआ। अंत में 1948 ई. के आरंभ में भूपेन्द्रनाथ त्रिवेदी के नेतृत्व में लोकप्रिय मंत्रिमंडल बनाया गया।

डूँगरपुर में श्री भोगीलाल पाण्ड्या ने भीलों में जागृति उत्पन्न करने के लिये एक सेवा संघ स्थापित किया। डूँगरपुर महारावल ने इसकी प्रवृत्तियों को कुचलने के प्रयास आरंभ कर दिये। 1942 ई. के भारत छोङो आंदोलन के समय सेवा संघ के तत्वावधान में जुलूस निकले, सभाएँ हुई और हङतालें हुई।

अगस्त, 1944 ई. में भोगीलाल पाण्ड्या, हरिदेव जोशी, गौरीशंकर आचार्य, शिवलाल कोटङिया आदि ने मिलकर डूँगरपुर प्रजा मंडल की स्थापना की। अप्रैल, 1946 ई. में श्री पण्ड्या की अध्यक्षता में प्रजा मंडल का पहला अधिवेशन हुआ, जिसमें राज्य में उत्तरदायी शासन की माँग की गयी।सरकार ने दमन नीति का सहारा लिया।

हरिदेव जोशी को राज्य से निर्वासित कर दिया गया तथा श्री पण्ड्या को बंदी बनाकर उन पर सामाजिक अत्याचार किये गये। राज्य के दमनात्मक रवैये के विरुद्ध आंदोलन हुआ, जिसमें कई प्रमुख नेताओं को जेल भेजा गया। अंत में प्रान्तीय नेताओं के हस्तक्षेप के बाद सभी कार्यकर्त्ता रिहा किये गये किन्तु महारावल का क्रोध सेवा संघ पर उतर आया।

19 जून, 1947 ई. को ग्राम रास्तापाल में पुलिस ने बर्बरता पूर्वक अत्याचार किये। पुलिस की गोली से 12 वर्षीय भील कन्या काली शहीद हो गयी। क्रुद्ध भीलों की भीङ डूँगरपुर पहुँच गयी। महारावल ने भयभीत होकर पाण्ड्या और उनके साथियों को रिहा कर दिया।

यद्यपि 15 अगस्त, 1947 ई. के पूर्व ही डूँगरपुर भारतीय संघ में सम्मिलित हो गया था, फिर भी सितंबर, 1947 ई. में ग्राम काब्जा में स्थानीय जागीरदारों ने हरिदेव जोशी पर प्राणघातक हमला करवाया। फलतः विशाल जनशक्ति का प्रदर्शन हुआ। विवश होकर सरकार ने दिसंबर, 1947 ई. में गौरीशंकर उपाध्याय और भीखाभाई भील को प्रजा मंडल के प्रतिनिधियों के रूप में मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया। 18 अप्रैल, 1948 ई. को डूँगरपुर का राजस्थान में विलय हो गया।

प्रतापगढ में ठक्कर बापा की प्रेरणा से अमृतलाल पायक ने 1936 ई. में जन जागृति के लिये कार्य किया। 1945 ई. में श्री पायक और चुन्नीलाल प्रभाकर के प्रयत्नों से प्रजा मंडल की स्थापना हुई। 1947 ई. में प्रतापगढ राज्य भारतीय संघ में शामिल हो गया तथा मार्च, 1948 ई. में प्रजा मंडल के दो प्रतिनिधि मंत्रिमंडल में शामिल किये गये।

18 अप्रैल, 1948 ई. को मंत्रिमंडल की सलाह पर प्रतापगढ का संयुक्त राजस्थान में विलय हो गया। इसी प्रकार शाहपुरा में प्रो.गोकुललाल असावा समिति द्वारा निर्मित विधान को स्वीकार कर 14 अगस्त, 1947 ई. को असावा के नेतृत्व में उत्तरदायी मंत्रिमंडल का गठन किया गया।

सिरोही के कुछ उत्साही युवकों ने बंबई में 1934 ई. में सिरोही प्रजा मंडल की स्थापना की, जिसका उद्देश्य महाराव की छत्रछाया में उत्तरदायी शासन स्थापित करना था। लेकिन यह संस्था अधिक सक्रिय नहीं हो सकी। इस समय सिरोही के हाथल गाँव के गोकुलभाई भट्ट बंबई में काँग्रेस को संगठित कर रहे थे।

हरिपुरा काँग्रेस के प्रस्ताव के बाद वे सिरोही आये और 23 जनवरी, 1939 को प्रजा मंडल की स्थापना की। अन्य रियासतों की भाँति यहाँ भी राज्य सरकार ने प्रजा मंडल के कार्यकर्त्ताओं पर अमानुषिक अत्याचार किये। फलस्वरूप जन आंदोलन व्यापक हो गया।

अतः सिरोही महाराव ने प्रजा मंडल के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया, लेकिन तिरंगा झंडा फहराने पर पाबंदी लगा दी। गोकुलभाई भट्ट के नेतृत्व में प्रजा मंडल के कार्यकर्त्ताओं ने इन आदेशों का उल्लंघन किया। भारत छोङो आंदोलन के समय प्रजा मंडल ने राज्य में आंदोलन किया। यह आंदोलन 1947 ई. तक चलता रहा। संयुक्त राजस्थान के निर्माण के समय मार्च, 1948 में सिरोही को बंबई राज्य के साथ मिला दिया गया।

लेकिन गोकुलभाई भट्ट और पंडित हीरालाल शास्री के अथक प्रयत्नों से नवम्बर, 1956 में सिरोही को राजस्थान में मिलाया गया।

झालावाङ में तो 1947 ई. में पहली बार प्रजा मंडल की सभा हुई जिसमें सुधारों की माँग की गयी। चूँकि इस समय तक देश का राजनीतिक वातावरण पूर्णतः बदल चुका था, अतः प्रजा मंडल की माँग तुरंत स्वीकार कर ली गयी। किशनगढ में 1939 ई. में प्रजा मंडल स्थापित हुआ। राज्य की ओर से इसका कोई विरोध नहीं हुआ ।

शेष राज्यों में भी थोङी बहुत राजनैतिक गतिविधियाँ चल रही थी, किन्तु राजनीतिक संगठन बनने में काफी समय लगा। कहीं-कहीं तो दिल्ली में अंतरिम मंत्रिमंडल बन जाने के बावजूद भी ऐसे संगठन नहीं बन पाये।

जन आंदोलनों का मूल्यांकन

राजस्थान के राज्यों में हुए जन आंदोलनों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि अखिल भारतीय काँग्रेस की स्थापना के बाद भारतीय जनता में राष्ट्रवाद की जो लहर उठी, उसने देशी राज्यों में भी चेतना उत्पन्न कर दी। 1887 ई. में अजमेर के राजकीय महाविद्यालय के कुछ छात्रों ने मिलकर अँग्रेज कमेटी की स्थापना की और 1888 ई. में काँग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन में पहली बार अजमेर का प्रतिनिधि मंडल सम्मिलित हुआ।

किन्तु अजमेर, ब्रिटिश शासित क्षेत्र होने से वहाँ राजनैतिक गतिविधियों पर विशेष पाबंदी नहीं थी। राजस्थान की रियासती जनता वर्तमान शताब्दी के प्रथम दो दशकों तक राजनीतिक गतिविधियों के प्रति उदासीन रही। 1927 ई. से पूर्व तक प्रत्येक रियासत में मानवतावादी समस्याओं के निराकरण हेतु छोटे-छोटे आंदोलन होते रहे। चूँकि अखिल भारतीय काँग्रेस भारतीय राज्यों के मामलों में अहस्तक्षेप की नीति का अवलंबन कर रही थी, अतः प्रत्येक राज्य में आंदोलन राजनीतिक लक्ष्यों से विहीन ही रहे। रियासती जनता की राजनीतिक लक्ष्यों के प्रति उदासीनता ने शासकों और जागीरदारों को अत्याचार और शोषण के लिये प्रोत्साहित किया।

एक ओर तो रियासती जनता को, भारत की प्रमुख राष्ट्रीय संस्था, काँग्रेस का समर्थन नहीं मिल रहा था, तो दूसरी ओर कुटिल ब्रिटिश सरकार ने 1921 ई. में नरेन्द्र मंडल का गठन कर रियासती जनता पर निरंकुश शासन को केवल कठोर ही नहीं किया, बल्कि रियासतों के आंदोलन को कमजोर करने का भी प्रयास किया।

यद्यपि नरेन्द्र मंडल के गठन में ब्रिटिश सरकार का उद्देश्य रियासतों के आंदोलनों को कुचलना या कमजोर करना था, किन्तु राजस्थानी नरेश नरेन्द्र मंडल की बैठकों में केवल अपने अधिकारों और सम्मान को सुरक्षित रखने का प्रयास करते रहे। यहाँ तक कि नरेन्द्र मंडल की बैठकों में रियासती आंदोलनों की चर्चा तक नहीं की गयी।

लेकिन साथ ही वे अपनी-अपनी रियासतों में, मानवतावादी समस्याओं के निराकरण हेतु चल रहे आंदोलनों को भी कुचलने में अपनी पाशविक वृत्ति का परिचय देते रहे। 1927 ई. में अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद की स्थापना के फलस्वरूप विभिन्न रियासतों के राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं को एक ऐसा मंच मिल गया, जहाँ से वे अपनी बात कह सकते थे और जनता में राजनैतिक चेतना उत्पन्न कर सकते थे।

1938 ई. में हरिपुरा काँग्रेस के प्रस्ताव ने प्रत्येक राज्य में जन आंदोलनों का उत्तरदायित्व स्थानीय नेतृत्व पर डालकर अत्यन्त ही दूरदर्शिता का परिचय दिया। इससे स्थानीय नेतृत्व तो सक्रिय हुआ ही साथ ही जन सामान्य का मनोबल भी ऊँचा हुआ। ब्रिटिश सरकार ने जिस उद्देश्य से नरेन्द्र मंडल का गठन किया था, वह उद्देश्य पूरा नहीं हुआ।

अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद की स्थापना हुई और प्रजा मंडलों ने अपने सीमित साधनों से बहादुरी के साथ राजाओं की निरंकुश सत्ता से लोहा लिया। हरिपुरा काँग्रेस के प्रस्ताव के बाद तो राजस्थान के राज्यों के आंदोलनों में एक नई गति आ गयी।

अखिल भारतीय स्तर पर काँग्रेस द्वारा प्रजा मंडलों को नैतिक समर्थन देने से ब्रिटिश भारत की जनता और रियासतों की जनता में सामंजस्य स्थापित हुआ और रियासतों की जनता, राष्ट्रीय मुख्य धारा में शामिल हो गयी।

रियासतों के जन आंदोलनों के दौरान लोगों को अनेक प्रकार के जुल्मों और भीषण यातनाओं को सहन करना पङा। अनेक देश भक्तों को तो अपने प्राणों तक की आहुति देनी पङी। राजस्थान के स्वाधीनता संग्राम में शहीद बालमुकुन्द बिस्सा और शहीद सागरमल गोपा के बलिदान आज भी हमारे लिये प्रेरणा के स्रोत हैं।

राजस्थान के स्वतंत्रता सेनानियों का बलिदान निर्थक नहीं गया। प्रजा मंडल आंदोलन निरंकुश राजशाही और ब्रिटिश सत्ता का आखिर तक सामना करते रहे और उत्तरदायी शासन के लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल रहे। राज्यों के प्रजा मंडलों ने राजनैतिक संघर्ष के साथ-साथ अनेक रचनात्मक कार्य भी किये।

प्रजा मंडल आंदोलनों से राष्ट्रीय आंदोलन को बल मिला। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अधिकांश राजाओं ने इन जन आंदोलनों से भयभीत होकर ही अखिल भारतीय संघ में मिलना स्वीकार किया था। इस दृष्टि से प्रजा मंडल संगठन देश को राजनैतिक एकता के सूत्र में बाँधने की दिशा में भी महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए।

प्रजा मंडलों ने अपने रचनात्मक कार्यों के अन्तर्गत सामाजिक सुधार, शिक्षा के प्रसार, बेगार प्रथा के उन्मूलन एवं अन्य आर्थिक समस्याओं का समाधान करने की दिशा में भी महत्त्वपूर्ण कदम उठाये।

यद्यपि राजस्थान में जन आंदोलनों के दौरान स्थानीय नेताओं में मतभेद भी उत्पन्न हुए, लेकिन आंदोलन अपने उद्देश्यों से कभी विचलित नहीं हुआ। जयपुर प्रजा मंडल में भारत छोङो आंदोलन के दौरान तीव्र मतभेद उत्पन्न हो गये थे तथा पंडित हीरालाल शास्री के विरोधियों ने आजाद मोर्चा नामक अलग संगठन बना लिया था, लेकिन राष्ट्रीय नेताओं ने कभी स्थानीय नेताओं के मतभेदों को बढावा नहीं दिया।

यही कारण है कि कुशल कूटनीतिज्ञ सरदार पटेल, राष्ट्रीय एकीकरण कर सका तथा राजस्थान की 22 रियासतों व ब्रिटिश शासित क्षेत्र अजमेर-मेरवाङा को एक इकाई के रूप में संगठित कर सका।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

Online References
विकिपीडिया : राजस्थान में प्रजामंडल

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